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Tuesday 31 July 2018

अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो

अरे ओ रौशनी वालोंं
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जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये पुरपेच गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार
ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं

  दशकों  पूर्व एक फिल्म में एक रचनाकार का संघर्ष और वह हालात क्या आज नहीं है या फिर बिकती हुई खोखली रंग - रलियां आज नहीं है । बेरुह कमरों में खांसी की ठन- ठन , क्या आपकों सुनाई नहीं पड़ती।  कैसे सुनेंगे आपके तो अच्छे दिन जो आ गये हैं !  आप उड़न खटोले से दुनिया की खूबसूरती को निहार रहे हैं और हम साइकिल से बदरंग मुहल्लों को खंगाला रहे हैं। कभी देखा आप ने इस मुहल्ले की उस बूढ़ी माता को जो छोटी सी टोकरी में कुछ पापड़ के टूकड़े लिये किसी चबूतरे पर बैठ राह से गुजरने वाले हर शख्स की ओर टकटकी लगाये  है। कभी ढलते दिन को देखती है, तो कभी बचे पापड़ों को गिनती है । दिन भर थाल सजाये रहती है, फिर भी बिक्री के चंद सिक्के ही उसके हाथ लगते हैं। शाम ढलते ही डबडबाई उसकी आंखों में झांक कर अपने अच्छे दिन को आपने कभी देख  है। बूढ़े रामू काका को रोक कभी आपने पूछा कि चाचा इस 60-62 की अवस्था में रिक्शा कैसे चला लेते हो । सिर झुकाये वर्षों से  बीड़ी बनाती आ रही उस नूरबानो के करीब क्या आप कभी गये। जिसके पीले पड़े चेहरे से नूर चला गया। रुठी लक्ष्मी ने उसके यवन को डस लिया है। अत्याचार के शिकार व प्रतिशोध के लिये नक्सलियों के टट्टू बन गये  दलित- शोषित वर्ग के उन गुमराह नादानों की पथराई आंखों में क्या कभी आपने झांक कर देखा है, जेल में बंद महिला नक्सलियों से कभी आपकी मुलाकात हुई है या फिर उस फूलन देवी से आपकी मुलाकात हुई थी। नारी संग सामंती तत्वों के अत्याचार की जीवंत मिसाल रही। एक नहीं कितनों ने ही उसके अस्मत से खेला था। प्रतिशोध ने जिसे दस्यु सुंदरी बना दिया और जेल से आजाद होने के बाद दो बार हमारे मीरजापुर की सांसद भी रही। एक अनपढ़ महिला हो कर भी वे कलेक्ट्रेट - अस्पताल  एक किये रहती थीं कि जरुरतमंद गरीबों का भला हो जाए।
  पर आप उड़न खटोला वाले , आप चार पहिये वाले भला कैसे समझ पाओगे इनका दर्द। तंग गलियों में आपका रास्ता जो  होगा बंद ।  हां, आप किसी दलित के घर भोजन करने जैसा स्वांग  करना बढ़िया जानते हो। याद आया एक पार्टी के युवराज पिछली सरकार में यहां आये थें। वोटबैंक का सवाल था, क्यों कि वर्ग विशेष का युवक पुलिस के भय से गंगा में डूब मरा था।  युवराज ने उसकी विधवा को अपना मोबाइल नंबर दिया था। जो एक बार भी कभी नहीं लगा था। राजनीति क्या इतनी भी गिर गयी है। कुछ तो बोलो न साहब कि यहां लाखों की भीड़ में जिस बुझी चिमनी में धुआं करने की बात कह आप लोकतंत्र के शिखर पर पहुंच गये हो । अब तो अगला चुनाव भी आने को है, क्या इतना छोटा सा वादा भी अपना नहीं निभाओगे ।  हमारे अच्छे दिन के ख्वाब धुआं- धुआं हुये जा रहे हैं और आप आज भी वहीं छप्पन इंच सीना फुलाये हुये हो। फिर कैसा भाई- बहन का नाता जोड़े जा रहे हो , जब अपने जिले के पीतल और कालीन व्यवसाय से जुड़े श्रमिकों की आंखें नीर बहा रही हो। कभी तो मंच से नीचे आ गये होते आप । ऐसी भी दूरी क्या कि जनसभाओं में आप ही अपना भाषण देते रहो और जनता से इतना भी न पूछो कि बताओं भाई क्या परेशानी है तुम्हें । पहले तो ऐसा नहीं था, नेता सभाओं में जनता के मन की बात जान लिया करते थें, पर अब अपनी मन की बात कहते हैं वे। ग्रामीण जनता छटपटाती रही है कि किसी जन चौपाल में अपने नेता से सीधी बात हो जाए, लेकिन वे बगल से निकल जाया करते हैं।
अभी पिछले ही दिनों हमारे एक शिक्षक मित्र कह रहे थें कि देखें  न कितना विकास हो रहा है, अच्छे दिन तो आ गये हैं। वे जिस प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हैं। वह सत्ता पक्ष के मातृ संगठन का ही अंग है। सो, मैंने पूछ ही लिया कि गुरुवर इन चार वर्षों में आपका वेतन कितना बढ़ा है , झेप गये बेचारे।

     कोई तो बताएं कि मैं कैसे सकरात्मकता को गले लगाऊं , जब इन ढ़ाई दशकों में चहुंओर झूठ का ही व्यापार देखता आ रहा हूं। चलों अच्छा ही हुआ कि मेरी दुनिया आप से अलग है। अहंकार पर तुम्हारा हक है ,तो सम्वेदनाओं पर हमारा अधिकार है। तुम्हें लोग नमस्कार करते हैं, लेकिन हमें वे आशीष देते हैं। तुम अतृप्त गागर हो, हम प्रेम के सागर हैं। धन तुम्हारा आहार है, संघर्ष हमारा श्रृंगार है।  और भी कुछ कहूं क्या, तो सुनो तुम्हारी तिजोरी से हमारी दुनिया बड़ी है। संघर्ष पहचान दिलाता है। आज जहां पर मैं खड़ा हूं, वह कोई दलदल जमीन तो नहीं है। यह तो मेरी तपोस्थली है। पीड़ा बेरोजगार की है जरुर, फिर भी कलम का सिपाही कहा जाता हूं । तुम अमीरों की क्या पहचान शेष रहेगी तब जब न कफन में जेब होगा , न कब्र में अलमारी ही। कहां ले जाओं के इतना दौलत , जब...
   ये दुनिया नहीं जागीर किसी की
   राजा हो या रंक यहाँ तो सब हैं चौकीदार
   कुछ तो आ कर चले गये कुछ जाने को तैयार
   ये दुनिया नहीं जागीर किसी की
   ख़बरदार ख़बरदार ...

Sunday 29 July 2018

कोई निशानी छोड़,फिर दुनिया से डोल


एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल



  • किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसीका दर्द मिल सके तो ले उधार
किसीके वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है
      वॉयस आफ गॉड के इस गाने में छिपे संदेश को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा था कल अपने जन्मदिन पर । जीवन के इस निर्णायक वर्ष में अब जब पहुंच ही गया हूं, तो आत्मावलोकन के अवसर से वंचित नहीं रहना चाहता था । वैसे भी हम पत्रकार समाज के पथ प्रदर्शक कहे जाते हैं। हां, इस अर्थ युग में हम यह दायित्व कितना निभा पा रहे हैं , यह दांवा नहीं कर रहा हूं।  फिर भी उत्तरदायित्व है हमारा। पद भ्रष्ट हुये तो यह लेखनी जिसके हम सिपाही कहे जाते हैं, वह निश्चित ही हमें धिक्कारेगी। वैसे पत्रकारिता से पहले भी और बाद में भी एक जो मानव धर्म है, वही बयां कर रही हैं , गीत की ये पक्तियां। एक कशिश, एक आकर्षक में मैं बंध सा जाता हूं, सदैव ही मुकेश जी के गाये ऐसे गीतों को सुनके।  मैं  भरपूर लुफ्त उठाना चाहता था कल इन गानों का , परंतु ऐसा हुआ नहीं। खबरें एक के बाद एक आती ही चली गयीं , एक अपने शुभचिंतक की भी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। वह समाचार भी तो लिखना और  भेजना था। खैर, शाम ढलने से पहले अपने मुसाफिरखाने पर आ ही गया था। जैसे ही ईयरफोन कान में लगाया मुकेश के एक प्यारे से नगमे -
कहीं दूर जब दिन ढल जाए
साँझ की दुल्हन बदन चुराए
चुपके से आए
मेरे ख़यालों के आँगन में
कोई सपनों के दीप जलाए, दीप जलाए
     के साथ अपनी स्मृतियों को सांझा करने  लगा।  28 जुलाई वर्ष 1969 को ही सिलीगुड़ी के एक नर्सिंग होम में एक अति स्वास्थ्य शिशु के रुप में जन्मा यह पथिक तीन प्रांतों के कई जनपदों का भ्रमण करते, घर- परिवार से दूर वर्ष 1994 में इस अनजान नगर का वासी हो गया था ,कुछ यूं ही कि
सुनसान नगर अन्जान डगर का प्यारा हूँ
आवारा हूँ, आवारा हूँ
आबाद नहीं बरबाद सही
 गाता हूँ खुशीके गीत मगर
 ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा
हंसती है मगर ये मस्त नज़र

     यहां अपनी पत्रकारिता का सफर कुछ ऐसा ही रहा। बस मेरी एक जिद्द ने मुझे बर्बाद कर दिया कि अपनी कलम से संस्थान की गुलामी के शर्त पर मैं बड़े अखबार में नहीं जाऊंगा। मुझे आजादी बचपन से ही पसंद थी, नहीं तो घर का त्याग क्यों करता। सो, कलम की आजादी हासिल की । मेरी खबरों की चर्चा शहर में निश्चित रही । लेकिन मैं श्रीहीन हूं । सो, परिणाम सामने है कि अपना जन्मदिन बंद कमरे में वहीं सूखी चार रोटी एवं थोड़ी सी सब्जी खा कर कुछ यूं मुस्कुराते हुये मना लिया कि

सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी
खुद पे मर मिटने की ये ज़िद थी हमारी
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी

     मेरे कई पैसे वाले मित्रों का संदेश आया कि कहां केक कट रहा है, बताएं न कहां आऊं ? दरअसल उनका दोष नहीं है, यह समाज भी यही समझता है कि पत्रकारों की दुनिया बड़ी चमक- दमक वाली है। पर हम जैसों के लिये नहीं, यह उनके लिये है जो घर से सम्पन्न हो,कारोबारी हो या फिर जुगाड़ तंत्र के खिलाड़ी हो। अब जहां तक केक काटने की बात है, तो वर्ष 1993 में आखिरी बार कोलकाता में केक काटा था, इसके बाद भी कभी जन्मदिन मनाया , मुझे तो याद नहीं । उस 28 जुलाई की खुबसूरत यादें मैं कहां भूल पाया हूं अब भी। लम्मे समय से बीमार चल रहीं मां(नानी) ने वहां कोलकाता में मेरे दोनों ही बर्थडे पर एक दिन पहले से ही तैयारी करनी शुरू कर दी थी। तरह- तरह के व्यंजन बने थें। रिबन,बैलून और पुष्प से कमरे की आकर्षक सजावट की गयी थी। अस्वस्थ मां को इस तरह से हड़बड़ी में कभी नहीं देखा था। मुनिया कहां हो, चलों यह पहनों, जाओ भगवान जी को प्रणाम करो आदि-आदि...
      भोजन व्यवस्था पर उनका विशेष ध्यान था। सांगरी की सब्जी, कांजीबड़ा, काफी बड़े भगौने में केशर, बदाम आदि मेवा डाला हुआ खीर और मिठाइयां तो तमाम थीं ही। रजनीगंधा फूल की बड़ी -बड़ी मालाओं से देवताओं और पूर्वज( बाबा की मां) की सजी तस्वीरों एवं पूजा स्थल का श्रृंगार देखते ही बनता था। एक बड़ा माला मेरे लिये भी था , इनमें से। लिलुआ से फोटो खिंचने बड़ी मां( नानी) के पुत्र आये थें। बाबा नीचे गिफ्ट एवं कपड़े की दुकान पर पहले ही ले जाते थें। प्यारे देखो यह चलेगा ? बाबा के इस प्यार को भला मैं कैसे भुला पाऊंगा । नीचे कारखाने से हाड़ी दादू
शाम ढलने से पहले ही खोवा, संदेश, चाकलेट पाउडर , चेरी से निर्मित खूबसूरत केक भेज देते थें। अब मां ही नहीं तो फिर  जन्मदिन कैसा।
   यहां तो जो पहचान है, वह यह कि मैं एक मस्त फकीर हूं। हां, मेरी लेखनी की भी कुछ पहचान है,तभी तो पीएचडी किये लोग भी इस इंटर पास पत्रकार को सर जी कहते मिल जाते हैं।  इस सम्मान का हकदार मैं कैसे हुआ जानते हैं, सिर्फ उत्साह से। हमारा सबकुछ क्यों न चला जाए, लेकिन हम उत्साह से लबरेज हैं, तो हानि भी सहन कर लेंगे साथ ही कर्म पथ से भी विचलित नहीं होंगे। अपनी कहूं तो जो व्यक्ति हिन्दी में गोबर गणेश रहा, उसी ने समाचार लेखन की अपनी एक अलग शैली विकसित कर ली। यह न्यूज और व्यूज की खिचड़ी जिसमें जिसमें जायके के लिये कुछ तीखा- मीठा मसाले का जो मैंने प्रयोग किया। वह पाठकों को पसंद आया, संस्थान ने भी हस्तक्षेप नहीं किया, इस तरह से मैं मीरजापुर का गांडीवधारी हो गया। परंतु यह तभी सम्भव हुआ जब मैं सच की राह पर रहा।  मेरे समक्ष किसी का जुगाड़ तंत्र काम नहीं आता था। पर एक बात कहूं, अपनी लेखनी को तो मैंने इस जुगाड़ तंत्र से बचा लिया। लेकिन, मैं टूटता ही गया

दिल जाने, मेरे सारे, भेद ये गहरे
खो गए कैसे मेरे, सपने सुनहरे

    सम्भवतः मेरा यही दर्द मेरी लेखनी में  समाती जा रही है। फिर भी जिस स्थान पर मैं हूं, आप सभी प्रबुद्ध जन भी हैं। हमें कोई तो राह निकालनी ही होगी कि इस जुगाड़ तंत्र के समक्ष प्रतिभाएं कुंठित न हो, ईमान आंसू न बहाये , सच राह न बदल ले और पथिक व्याकुल न हो। तभी न हम और आप भी ...

 मर के भी किसी को याद आयेंगे
किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे
कहेगा फूल हर कली से बार बार
जीना इसी का नाम है

Friday 27 July 2018

गुरु से ज्ञान नहीं, उनकी सरलता चाहता हूं




गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि
     
आज गुरु पूर्णिमा है। महात्मा और संत को लेकर मेरा अपना चिंतन है। यदि गुरु से अपनी चाहत की बात कहूं तो, मुझे गुरु से ज्ञान नहीं चाहिए, विज्ञान नहीं चाहिए, दरबार नहीं चाहिए एवं भगवान भी नहीं चाहिए। मैं तो बस उनकी सरलता चाहता हूं। ज्ञानी-ध्यानी होने से कहीं अधिक श्रेष्ठ है सरल होना। स्मृतियां मुझे बहुत पीछे खींचे ले जा रही हैं। उन संस्मरणों को याद कर आज भी मेरा मन आनंदमग्न हो जा रहा है। तब मेरा यौवन उफान पर था। अवस्था 22-23 वर्ष ही होगी। जब वाराणसी में गुरु के आश्रम पर रहने लगा था। पांवों में खड़ाऊं पहनना कितना सुखद लगता था। नये लोग तो इसे पहन ठीक से चल भी नहीं पाते थें, पर मैं आश्रम के समानों को दूर बाजार से खरीद भी आता था, इसे पहने हुये । अब तो रबड़ के पट्टे वाला खड़ाऊं लोग पहनते दिख जाते हैं, पर इसका कोई लाभ नहीं है।  घर से संबंध टूट गया था। दो जून की रोटी की व्यवस्था नहीं थी । फिर भी भूख, की पीड़ा मैंने कभी भी एवं कहीं भी जाहिर नहीं होने दी । एक संयोग ही था या प्रातः भ्रमण का लाभ कि कम्पनी गार्डेन में श्वेत वस्त्र धारी सतनाम का निरंतर जप करने वाले गुरुदेव से मुलाकात हुई थी। कुछ दिनों तक हम दोनों ही वहां साथ- साथ भ्रमण करते रहें। एक दिन उन्होंने स्वयं मुझसे आश्रम में रहने को कहा, कोई शर्त भी नहीं रखा था मेरे लिये। बस सतनाम मंत्र जाप करने को कहा। भोजन हम दोनों ही मिल कर एक समय बनाते थें । मेरे गुरु बहुत बहुत सरल स्वभाव के रहें। अब जब वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर रहा हूं, तो मैं गुरु जी के इसी सरल भाव को दर्पण की तरह अपने समक्ष रखने का पूरा प्रयत्न करना चाहता हूं। परंतु, वहां आश्रम में भी जब "सतनाम" और "राम" को लेकर द्वंद की स्थिति मैंने पाया। जो सरलता मुझे लुभा रही थी,वह जटिलता में बदलती जा रही थी। आश्रम का यही ज्ञान युद्ध मेरे मन की शांति को भंग करने लगा था। मेरा जो अपना यह चिन्तन है, वहीं मेरी सबसे बड़ी कमजोरी या ताकत मैं नहीं जानता। पर इसी कारण मैं आश्रम त्याग वहां जैसे आनंदमय जीवन से वंचित हो गया।  फिर सामान्य मनुष्य की तरह मुजफ्फरपुर, कालिंपोंग, बनारस और पिछले ढ़ाई दशक से इस मीरजापुर में आजीविका की तलाश में भटकता ही रहा साथ ही तमाम विकारों से युक्त हो गया फिर से। वैसै, मैं उन सभी श्रेष्ठ जनों सें कुछ न कुछ सीखते रहना चाहता हूं, जो सरल हैं , सहज हैं और सादगी पसंद हैं । महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री जी की जीवनशैली में मुझे एक सच्चे महात्मा व संत का दर्शन होता है। महान और सामर्थ्यवान होकर भी उनका रहन-सहन एक आम आदमी जैसा ही रहा, वस्त्र और आहार भी। मैंने भी इस वर्ष से पकवान का त्याग इसीलिये किया हूं कि आम आदमी बन सकूं। विरक्त हो सकूं। एक वक्त दलिया और दूसरे समय सिर्फ सादी रोटी- सब्जी से बढ़ती शारीरिक दुर्बलता देख राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के ब्यूरोचीफ बड़े भैया प्रभात मिश्र जी अपने घर से देशी गाय का शुद्ध दूध इन दिनों मेरे लिये लेते आते हैं,अपने दफ्तर में। आज ही राज्यसभा सदस्य रामसकल जी एक बार पुनः मुझे इलाज के लिये एम्स ( दिल्ली) चलने के लिये कह रहे थें। यह मेरा सौभाग्य है कि इतना स्नेह रखने वाले विशिष्ट लोग मुझे इस अनजान शहर में मिले हैं। लेकिन, सच कहूं तो मैं अपने जीवन को और उलझाना नहीं चाहता ,न ही अधिक लम्बा खींचने की इच्छा है। हो सकता है कि यह जो अनाशक्ति का भाव है, उसी ने मेरे जीवन में एक खालीपन सा ला दिया है ,जिसकी भरपाई मैं ब्लॉग लेखन से कर रहा हूं। जहां से कुछ सीखने को मिल रहा है, वही मेरा गुरु है।
  शरीर की सूखी हड्डियों के घर्षण से उत्पन्न ज्ञान के प्रकाश से युक्त गुरु के लिये भी भक्त द्वारा की गई प्रशंसा मेघ बन उस ज्ञान रुपी दीपक को बुझा सकती है। विंध्याचल के काली खोह में प्रख्यात संत मौनी बाब सहित तीन लोगों की निर्मम हत्या के लिये जिम्मेदार मैं उन धनी भक्तों को ही मानता हूं , जिन्होंने एक विरक्त महात्मा के निवास स्थान को वैभव सम्पन्न बना दिया था। जबकि वे चबूतरे पर खुले में सोने वाले तपस्वी थें। नवरात्र में हिमाचल क्षेत्र से यहां विंध्य क्षेत्र में शक्ति अर्जित करने आते थें। हमारे धर्म शास्त्रों में यह कहां  लिखा है कि गुरु भव्य सुविधा सम्पन्न आश्रम और मठ में रहते थें। वे तो एकांत में कुटिया बना कर रहते थें न। बुद्ध, महाबीर, साईंबाबा, कबीर, तुलसी, रैदास  क्या आप बता सकते हैं कि इनमें से किसी के पास भी महलों जैसा मठ-आश्रम था। परंतु अब जब वे नहीं हैं , तो सब है उनके पास । गुरु दरबार का यह वैभव एक निर्धन शिष्य की कामनाओं का शमन किस प्रकार करेगा। मैंने इस जनपद में सिर्फ मौनी बाबा का ही मन से चरण स्पर्श किया है अब तक एवं उनके ठीक सामने उसी पत्थर के चबूतरे पर बैठ ज्ञानगंगा से सराबोर भी होता रहा।  एक बात और अपनी कहना चाहता हूं कि साधक अपने पर मेनका के विजय से  विचलित नहीं हो, फिर से वह प्रयत्न करे विश्वामित्र की तरह कभी तो वशिष्ठ उसे भी ब्रह्मर्षि कहेंगे ही।

Wednesday 25 July 2018

बाबू यह दुनिया एक जुगाड़ तंत्र है




        न न्याय मंच है, न पंच परमेश्वर



आज भी सुबह बारिश में भींग कर ही अखबार बांटना पड़ा। सो, करीब ढ़ाई घंटे लग गये। वापस लौटा तो बुखार ने दस्तक दे दी,  पर विश्राम कहां पूरे पांच घंटे तक मोबाइल पर हमेशा की तरह समाचार संकलन और टाइप किया। तब जाकर तीन बजे फुर्सत मिली। मित्रों का कहना है कि जब तुम धन और यश दोनों से ही दूर हो, एकांतप्रिय हो गये हो, तो फिर इस उम्र में अपने शरीर को इतना प्रताड़ना क्यों दे रहे हो। सामने पकवान की थाली भी सजी हो, तो भी चार सादी रोटी बनवा कर थोड़ी सी सब्जी संग ही काम चला लेते हो। बहुतों को लगता हो कि यह मेरी सनक है। कुछ तो कह भी देते हैं कि यह क्या पागलपन है कि सुबह पौने पांच बजे ही पेपर बांटने निकल पड़ते हो। वहीं ,जो पुलिस अधिकारी या पैसेवाले लोग प्रातः मुझे साइकिल खड़ी कर बंद दुकान के शटर में से अखबार डालते देखते हैं, वे जो मेरे हॉकर वाले इस रुप से अनभिज्ञ हैं। उन्हें संदेह होने लगता है कि यह शख्स मैं ही हूं कि कोई दूसरा, क्यों कि उन्होंने ने अपने करीबियों से मेरे बारे में यही सुना था कि मैं एक ईमानदार और ठीक-ठाक पत्रकार हूं। मेरी लेखनी को तो वे पहचानते  हैं । लेकिन, जैसा कि अकसर होता है कि मेरा समाचार पत्र विक्रेता वाला पहचान दब जाता है।
    अब पहले आपके इस सवाल का जवाब दे दूं कि मैं अब भी अखबार क्यों बांटता हूं। तो बंधुओं इसके पीछे मेरी अपनी फिलासफी है। पहला तो यह कि साइकिल की गति के साथ उखड़ती सांसें मेरे चिन्तन की शक्ति भी बढ़ती हैंं। दूसरा मैं अपने इस श्रम का उपहास उड़ते देखना चाहता हूं, ताकि उन तमाम उपदेशकों से आंखें मिला कर यह कह सकूं कि तुम्हारा दर्शन शास्त्र झूठा है। सच तो यह है कि एक  ईमानदार व्यक्ति के परिश्रम की कमाई से ठीक से दो जून की रोटी भी नहीं है। मिसाल के तौर पर मैं सामने खड़ा हूं। है यदि साहस तो आंखें मिलाकर आओ मुझसे बात करों न। तीसरा कारण मैं एक पत्रकार के रुप में अखबार वितरण के माध्यम से श्रमजीवी वर्ग को यह बतलाना चाहता हूं कि आजीविका के लिये कुछ तो जुगाड़ का कारोबार करों। अन्यथा सावधान ! ईमानदारी का तमगा बांटने वाले ऐसे उपदेश , जाहे तुम कितने भी योग्य हो, अपने कर्म को ही धर्म मानते हो, चाहे गीता के इस ज्ञान को किसी से सुन बैठे हो कि जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान । अरे पगले! ऐसा कुछ भी नहीं है । प्यारे यह दुनिया जुगाड़ से चलती है। अन्यथा अपने जुम्मन चाचा को साठ वर्ष की इस अवस्था में रिक्शा क्यों खिंचवाते ईमानदारों के ये शहंशाह। क्या कसूर है ,उनका यही न कि जुगाड़ तंत्र से वाकिफ नहीं थें। नहीं तो अपने जमाने के इंटर पास हैं। सुबह एक दुकान के चबुतरे पर निढ़ाल पड़े मिलते थें। बीड़ी पी लेते हैं, पर दारू को हाथ तक नहीं लगाया है। ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं सुबह, जेंटलमैनों की इस दुनिया में। अतः मित्रों मेरा चिन्तन स्पष्ट है कि यहां  न न्याय मंच है, ना ही पंच परमेश्वर। यहां जो है, वह जुगाड़ है, मक्कारी है, चाटूकारिता है, गणेश परिक्रमा है और झूठ की जय है । आपने कभी उस महिला अध्यापिका का दर्द जाना है, जिसके पास कितनी ही डिग्रियां हैं, स्वयं भी बहुत शिष्ट है, पर दुर्भाग्य से सरकारी नौकरी नहीं मिली, तो प्राइवेट स्कूल की चाकरी करनी पड़ी। पूरे निष्ठा से विद्यालय में अपना शिक्षक धर्म निभाने के बावजूद वेतन उसे कितना मिलता है, मालूम है न ? और उसकी मनोस्थिति का यह भी सच मैं आपकों आज बतलाता हूं कि वह हर बच्चों से यही कहती है कि सकारात्मक सोचो, खूब प्रगति करोगे। परंतु  उसका स्वयं का जीवन पीड़ादायी संघर्ष से गुजरता है। वह देख रही है कि सरकारी स्कूलों में स्वेटर बुनाई कर उससे कम योग्य अध्यापिकाएं उसकी अपेक्षा दस गुना वेतन पा रही हैं। उसका आत्मबल तब और भी टूटने लगता है, जब वह अपने ही विद्यालय के किसी सहयोगी शिक्षिका को नये - नये फैशन वाले पोशाक, महंगे स्मार्टफोन और बढ़िया कम्पनी की स्कूटी से देखती है, जो स्कूल से निकल रेस्टोरेंट में भी लजीज व्यंजनों का लुफ्त उठा रही होती हैं और यहां तो उसे अपने बच्चों के लंच बाक्स में कुछ महंगी भोज्य सामग्री रखने तक के लिये बजट में कहां- कहां से कटौती नहीं करनी पड़ती है। आखिर सहयोगी शिक्षिका ने किस जुगाड़ तंत्र से यह अमीरों जैसी व्यवस्था हासिल की ,यह भी जगजाहिर है। कोई अपना ईमान बेच रहा तो कोई अपना तन और कोई मन भी बेच रहा है !  राजनीति के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है । कल तक जो बड़े माफिया थें , आज धन,जाति और बाहुबल रुपी इस  जुगाड़ तंत्र से माननीय बन बैठे हैं। पूछे ना साहब फिर वे भाषण मंच से किस तरह से नैतिकता की बातें करते हैं। मैं अपने जैसे कुछ पत्रकारों की बात छोड़ दूं, तो वहां उनके चौखट पर मीडिया कर्मी परेड करते रहते हैं। बड़े समाजसेवी के रुप उनकी नई पहचान माननीय वाली बनाने के लिये चार से छह कालम की खबर अगले दिन छपती है। उधर , अपने कामरेड सलीम भाई लाल सलाम कहते-कहते केश- दाढ़ी सफेद कर चुके हैं।कितने ही क्रांति दूतों की पुस्तकें उन्होंने पढ़ी होगी, पर वोटों के जुगाड़ तंत्र की सियासत नहीं जानते हैं, इसलिये कल भी पैदल थें और आज भी है।
    अब क्या कहूं , अपने अहिंसा के पुजारी अपने गांधी जी की लंगोटी तक ये जुगाड़ू नेता बटोर ले गये , तो हमें सादगी से रहने का उपदेश देने वाले बुद्ध, महावीर और साईं बाबा भव्य उपासना स्थलों में आज बैठे हैं। मेरे पिता जी स्वयं एक ईमानदार अध्यापक थें। वे क्यों झुंझला उठते थें, अब मुझे इसका एहसास हुआ है। फिर यदि समाज आपको ईमानदार नहीं बने रहने देना चाहता है, वह आपके श्रम का उपहास उड़ाता है। जैसा मैंने अपने कानों से सुना है और कुछ अपनों ने भी टोका है कि जानते हो, लोग तुम्हारे बारे में क्या कहते हैं ? जाने दो नहीं बताऊंगा ,नहीं तो तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचेगा। वैसे, उन्हें यह भी मालूम है कि मान- अपमान को लेकर मुझे उतनी पीड़ा नहीं होती है अब, जितना मुझे कोई ईमानदार पत्रकार कह कर सम्बोधित करता है तब । मैं अपने जीवन की डिक्शनरी से इसी एक शब्द को मिटा देना चाहता हूं। अपनी खुशी के लिये भी और अपने जैसों को भी इसी जुगाड़ तंत्र की राह पर लाने के लिये। आप कह सकते हैं कि शशि भाई पच्चीस वर्षों के इस संघर्ष को आप पल भर में यूं नहीं नष्ट करें  और मैं कहता हूं कि जब समाज अपने कर्मपथ पर चलने वाले लोगोंं का संरक्षण नहीं करें, तो हमारी ईमानदारी किसके लिये है, क्या उपहास करने वालों के लिये है अथवा इस रंगबिरंगी दुनिया में फकीर बनने के लिये हैं । या फिर अपनी ही राह पर औरों को भी लाकर उसे बर्बाद करने के लिये है।
     भले ही आज जब मैं साइकिल से अखबार बांट रहा होता हूं, तो पीछे से कोई पगलवा पत्रकार कह लें, कोई वेदना नहीं  होती है। संस्थान ने मेरी वफादारी को मेरी बेरोजगारी में तब्दील कर दिया ,उसका भी गम नहीं है। मुकदमे ने मेरी लेखनी को कमजोर कर दिया, उससे भी मैं नहीं घबड़ाया। इसलिये  क्यों कि जुगाड़ तंत्र ने काफी पहले ही मेरा दंड निर्धारित कर दिया था । पर यह मेरी भी जिद्द ही थी कि मैंने उसके सामने (जुगाड़ तंत्र ) समर्पण नहीं किया और अब तो करने का कोई सवाल ही नहीं, क्यों कि जिस अवस्था में मैं अब हूं, वहां मोह के लिये कोई स्थान नहीं है। यहां मैं यदि अपने जीवन के इस सफर पर पूर्ण विराम लगा भी दूं, तो मुझे तनिक भी दुख नहीं होगा। हां, एक  चिन्ता थी कि मृत्यु के पश्चात मेरे इस संघर्ष की कहानी इतिहास के पन्नों में दफन न हो जाए, तो इसके लिये ब्लॉग पर बहुत कुछ लिख चुका हूं। सो, आजके लिये बस इतना ही कि

 " ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है,
   वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है,
   यहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है,
  ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हैं?"

Monday 23 July 2018

सावन के झूले पड़े तुम चले आओ






सावन के झूले पड़े
तुम चले आओ
दिल ने पुकारा तुम्हें
तुम चले आओ
तुम चले आओ...

    रिमझिम बारिश के इस सुहावने मौसम में अश्वनी भाई द्वारा प्रेषित इस गीत ने स्मृतियों संग फिर से सवाल- जवाब शुरू कर दिया है। वो क्या बचपना था और फिर कैसी जवानी थी। ख्वाब कितने सुनहरे थें ,यादें कितनी सताती हैं। अकेले में यूं ही कुछ गुनगुनाता हूं-

जब दर्द नहीं था सीने में
क्या ख़ाक मज़ा था जीने में
अब के शायद हम भी रोयें सावन के महीने में
यारो का ग़म क्या होता है
मालूम न था अन्जानों को
साहिल पे खड़े होकर अक़्सर
देखा हमने तूफ़ानों को
अब के शायद दिल भी डूबे
मौजों के सफ़ीने में

 सचमुच ऐसे दर्द को सहने का अपना ही अलग मजा है और अलग अंदाज भी। पर अभी तो बचपन की याद आ रही है। सावन का यह महीना हम तीनों भाई- बहन के लिये कितना  खास होता था, वहां बनारस में। हो भी क्यों न बाबा विश्वनाथ की नगरी है हमारी काशी। सावन के सभी सोमवार  व्रत के नाम से ही सही हम सभी को दिव्य स्वादिष्ट पकवान जो भोजन के रुप में मिलते थें। सिंघाड़े के आटे का हलुआ तो मुझे सबसे  अधिक प्रिय था ही। फलहारी कढ़ी, तली हुई मूंगफली और फिर आलू भी साथ में पकौड़ी सारी सामग्री सिंघाड़े के आटे से ही बनती थीं। तब घर पर अपना विद्यालय नहीं था , पापा एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थें। सो, ऐसे फलहारी पकवान  हम सभी को सिर्फ व्रत के दिन ही मिल पाता था। सो, हम बच्चे न जाने कितनी ही बार घर पर पूछा करते थें कि बताएं न सावन  कब आएगा। वैसे , तो शिवरात्रि पर भी यह सबकुछ खाने को मिलता था और अनंत चतुर्दशी की भी याद है सेवई, पूड़ी और बिना नमक वाली मूली की सब्जी मिलती थी। खूबसूरत अनंत खरीद कर और पूजा भी करवा मैं ही तो लाता था। फिर करवाचौथ पर चावल से निर्मित लड्डू खाने के लिये मैं किस तरह से सियामाई के चित्र के समीप ही डेरा डाले रहता था। शीतला पूजन बसौड़ा पर्व पर गुलगुले की मिठास अब भी याद। हम दोनों भाइयों को सोने का लाकेट , जिस पर शीतला देवी की आकृति होती थी , पहनाया जाता था। तब पूछे न साहब , उस बालपन की बात अपनी सीना भी किस तरह छप्पन इंच चौड़ी हो जाया करती थी। जन्माष्टमी पर सजावट भी तो मैं ही करता था और सरस्वती पूजा पर जिस सफेद चादर से जिस तरह से पर्वत निर्मित करता था, ताऊ जी मेरी कलाकारी देख स्नेह से पूछा करते थें कि क्या तुमने सजाया है। इस बार रथयात्रा पर बाबा की बहुत याद आयी। कोलकाता में मुझे घर पर ही दो बार रथ सजाने का अवसर मिलाता था। बाबा ने क्या- क्या नहीं मंगवा के दिया था। याद कर आंखें न जाने क्यों बार-बार नम हो जाती है कि हम बच्चों से इस कदर स्नेह करने वाले बाबा को एक अनजाने ठिकाने पर गम से भरी ऐसी मौत क्यों मिली थी। सभी ने उनसे नाता यूं तोड़ लिया था, मानों उनकी परछाई से भी कलंकित होने का भय था । कोलकाता से बनारस जब वे बीमारी की हालत में आये थें और सभी अपनों ने मुंह फेर लिया था, तो यह हम सबसे के लिये उनका आखिरी शब्द था,  " देखा हो गया"। डबडबाई आंखें लिये वे चले गये, फिर न कभी वापस आने के लिये! यह प्यारे ( मेरा नाम) अपने प्यारे से बाबा के लिये बस इतना ही कहने की स्थिति में है-

   जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला..

   खैर, बात सावन महीने की कर रहा था और ये स्मृतियां मुझे फिर से घसीटकर कहां ले गयीं। हां, याद आया वह सावन का मेला जब बनारस में था, तो प्रथम और आखिर सोमवार हम सभी मृत्युंजय महादेव मंदिर जाया करते थें। बड़ा भव्य मेला लगता था। वो पीतल की अंगूठी भला कैसे भूल पाऊंगा। जिसके लिये कितनी हिफाजत से पचास पैसे बचाये रखता था।  मिट्टी से शिवलिंग बनाता था और उसे रंगता था। सृजन में मेरी बचपन से ही रुचि थी, एक चित्रकार जो बनना चाहता था। पतंग उड़ाने नहीं आती थी, फिर भी कटी पतंगों को रंगबिरंगे कागजों से खूब सजाता था। अकसर पतंग और शिवलिंग मुहल्ले का एक लड़का खरीद ले जाया करता था। क्या करता घर पर पैसे की जरूरत जो थी। सो, अपनी प्रिय सामग्री भी बेच दिया करता था। तब पांचवीं- छटवीं कक्षा में ही तो पढ़ता था। फिर भी परिस्थितियों ने दुनियादारी सिखला दी थी। पर कटी पतंगों को सजाते - संवारते समय यह कभी नहीं सोचा था कि मैं भी एक दिन इनकी ही तरह कटी पतंग बन जाऊंगा और फिर मुझे कोई न सजा- संवार पाएगा। बस यें दर्द भरे नगमे गुनगुनाता रह जाऊंगा-

  ना कोई उमंग है, ना कोई तरंग है
मेरी जिंदगी है क्या,एक कटी पतंग है।

      किस्मत का खेल भी निराला होता है। अभी तो सावन में मानस मंदिर की बहुत याद आ रही है। कितनी अच्छी झांकियां सजती थी ,इस मंदिर में। आज भी सजती होगीं ही। परंतु बचपन बीता और सावन मेला भी पीछे  छूट गया। उस ठेकुआ का स्वाद भी भूल गया , जिसे मानस मंदिर जाने से पूर्व दुर्गा मंदिर में चढ़ाने के लिये मम्मी बनाती थी और हम तीनों बच्चे मुंह पर ताला लटकाएं ,उसकी सुंगध को दूर से महसूस किया करते थें। ठेकुआ मुझे अत्यधिक प्रिय है, इसलिये मौसी जी बाद में भी मुझे भेजा करती थीं , यहां मीरजापुर में भी। सावन के महीने में रेनी-डे का अपना अलग मजा था। पहले बारिश भी तो  लगातार कई दिनों तक हुआ करती थी। कक्षा छह में जब था तो एक बार स्कूल के बच्चों संग पिकनिक पर जाने का अवसर इसी सावन में मिला था। तब 11 वर्ष का ही तो था, परंतु देवदरी और राजदरी जैसे जलप्रपात का प्राकृतिक सौंदर्य अब भी याद है, मुझे। पर विडंबना तो देखें जरा मेरी यहां मीरजापुर में ढ़ाई दशकों से हूं। कितने ही आकर्षक पर्यटक स्थल हैं यहां , परंतु न जाने कितने सावन यूं ही गुजर गये , किसी भी जलप्रपात को समीप से नहीं निहार पाया हूं। अब तो बचपन के बाद जवानी से भी नाता टूट चुका है। बचपन में घर के छत पर लटकती बरगद की डाल से सावन में  झूला करता था, तो जवानी में किसी हमसफर की चाहत में झूमा करता था और अब जीवन के तीसरे और अंतिम  पड़ाव में बस इस सावन में,यूं ही बोला करता हूं -

कोई लौटा दे मेरे, बीते हुए दिन
बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन
मेरे ख्वाबों के नगर, मेरे सपनों के शहर
पी लिया जिनके लिये, मैंने जीवन का ज़हर
 ऐसे भी दिन थे कभी, मेरी दुनिया थी मेरी
 बीते हुए दिन वो हाय, प्यारे पल छिन कोई लौटा दे ...

मित्रों, मेरे जीवन में सावन की उपयोगिता अब बस इतनी है  कि ग्रीष्म ऋतु से दुर्बल इस तन को रिमझिम बारिश कार्य करने के लिये नवीन उर्जा देती है। अब यह न कहना कि मैं फिर से विलाप कर रहा हूं।  हुजूर  ! ये स्मृतियां हैं , जो अटखेलियां यूं ही किया करती हैं। क्या तुम मुझसे जब भी मिलते हो, मैं मुस्कुराता नजर नहीं आता हूं ? पत्रकार जो हूं न, जिसकी अपनी पीड़ा नहीं होती है। समाज हमें हर वक्त याद दिलाता है कि उसका दर्द ही हमारा है।

Sunday 22 July 2018

प्यारे दुनिया ये सर्कस है

यहां जुगाड़ तंत्र से काम नहीं चलने वाला, कोड़ा जो किस्मत है


   

        "दुनिया ये सर्कस है। बार-बार रोना और गाना यहाँ पड़ता है। हीरो से जोकर बन जाना पड़ता है। "

  सचमुच कितनी बड़ी बात कह गये नीरज जी। सो, मैं उनकी इसी गीत में अपने अस्तित्व को तलाश रहा हूं -

 "  ऐ भाई ज़रा देखकर चलो,आगे ही नहीं पीछे भी।
   दाएं ही नहीं बाएं भी,ऊपर ही नहीं नीचे भी।
 तू जहां आया है वो तेरा घर नहीं, गांव नहीं, गली नहीं,  कूचा नहीं, रास्ता नहीं, बस्ती नहीं, दुनिया है और प्यारे
दुनिया ये सर्कस है। "

  इसी एक गीत को फिर से कई बार ऊपर से, नीचे से और बीच से भी पढ़ा । ऐसा नहीं है कि पहली बार इस गीत से परिचित हो रहा हूं। इस " मेरा नाम जोकर " फिल्म में ही तो मैं अपना प्रतिविम्ब देखता हूं। परंतु अब इसकी फ़िलॉसफ़ी को और करीब से समझ रहा हूं।
     गीत सम्राट गोपाल दास नीरज जी को गत वृहस्पतिवार की रात  मैंने भी तनिक मुस्कुराते ( ऐसे महान लोगों के महाप्रयाण पर अश्रुपूरित नेत्रों से लिखना मुझे अच्छा नहीं लगता) हुये मौन श्रद्धांजलि दी। मोबाइल पर कुछ टाइप कर रहा था , तभी उनके निधन की खबर सोशल मीडिया में चलने लगी। साथ ही उनकी ये चन्द पक्तियां भी जुबां  पर आ गयीं । कितनी संजीदगी से उन्होंने एक- एक शब्द कागज पर उतारे हैं। मानों मानव जीवन का पूरा दर्शन शास्त्र ही लिख डाला हो और आखिरी में जो लिखा है, वह तो मेरे लिये बड़े काम की चीज है। जिस अकेलेपन की बात मैं अकसर ब्लॉग पर किया करता हूं। उस अंधकार से स्वयं को बाहर लाने के लिये यह टिमटिमाता दीपक है। अतः बार- बार इन्हें पढ़ने और मन ही मन गुनगुनाने का मन कर रहा है। आदि शंकराचार्य ने भी कुछ ऐसा ही तो कहा था कि

     न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
     पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
     न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
     चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ।।

 और यहां भी नीरज जी दुनिया रूपी सर्कस का सत्य समझा गये है -

    " हाँ बाबू, यह सरकस है शो तीन घंटे का पहला घंटा बचपन है, दूसरा जवानी है तीसरा बुढ़ापा है और उसके बाद - माँ नहीं, बाप नहीं बेटा नहीं, बेटी नहीं, तू नहीं, मैं नहीं, कुछ भी नहीं रहता है । रहता है जो कुछ वो - ख़ाली-ख़ाली कुर्सियाँ हैं ख़ाली-ख़ाली ताम्बू है, ख़ाली-ख़ाली घेरा है बिना चिड़िया का बसेरा है, न तेरा है, न मेरा है। "

 अब यदि अपने मूल विषय पर आऊं , यानी कि अपने जीवन संघर्ष के विलाप को कुछ कम करके के इस सर्कस वाले सत्य पर चिन्तन करूं। हां, एक बात और मन को तरावट दे रही है, वह है कि मृत्यु के पश्चात किसी शख्स को न तो उसकी अमीरी - गरीबी से लोग याद रखते हैं और न ही उसके उसके उसके घर -परिवार से। स्वास्थ्य, रंग-रूप और रुतबे का भी तो मृत्यु के पश्चात को महत्व नहीं है। आज नीरज जी को हम इनमें से किसी एक के लिये भी याद कर रहे है क्या, नहीं न । उन्हें तो हम उनके गीतों से पहचानते हैं। उनकी पंक्तियों में छुपे संदेश से पहचानते हैं। यदि ऐसा न होता तो मृत्यु के बाद इंसान की पहचान भी अमीरों के ही हिस्से में चली जाती ? लेकिन साहब! यहां जुगाड़ तंत्र से काम नहीं चलने वाला है। यहां तो स्वयं का संघर्ष होना चाहिए, क्यों कि यहां कोड़ा जो किस्मत है। तभी अपनी भी पहचान बनेगी। सो, स्वयं को यह बात बतानी होगी , सौ बार मन को समझाना होगा कि

"  गिरने से डरता है क्यों, मरने से डरता है क्यों, ठोकर तू जब न खाएगा, पास किसी ग़म को न जब तक बुलाएगा, ज़िंदगी है चीज़ क्या नहीं जान पायेगा ,रोता हुआ आया है चला जाएगा। "
  कितना सहज भाव से बिल्कुल सरल शब्दों में नीरज जी ने जिस तरह से मानव जीवन दर्शन का सार तत्व इस गीत में प्रस्तुत किया है, जिसे बार- बार पढ़कर इस पथिक का व्याकुल मन भी आह्लादित हो उठा है। निराशाओं का बादल छटा है और आशाओं का सबेरा दिखाई पड़ रहा है। आखिर इंसान जीवन संघर्ष को लेकर इतना व्यथित क्यों होता है। इतनी विकलता क्यों है उसमें । यह तो हमारा प्रशिक्षण है। बिना ठोकर खाये , बिना ईमानदारी दिखलाये आज मेरी जो पहचान है, वह प्रेस लिखे चार पहिये गाड़ी की सवारी से होती क्या ? यही संघर्ष ही तो रचना बन हमारी- आपकी जीवन यात्रा को एक नया आयाम देता है, पहचान देता है और फिर विश्राम के बाद गुमनाम होने के भय से मुक्ति भी । नीरज जी जैसे रचनाकारों को मृत्यु क्या अपनी सीमा से बांध पायी ? वे तो सदैव धड़कते रहेंगे अपनी गीतों में। हां , हर इंसान उतना सामर्थ्यवान नहीं है कि वह भी बड़ा रचनाकार बनेंं, पर एक जो संदेश हम छोड़ कर इस समाज में जा सकते हैं कि जो भी रंगमंच हमें मिला है, पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से हमने उस पर अपनी भूमिका निभाई है। यदि मैं जनपद स्तरीय पत्रकार हूं, तो जनता की बातों को मैंने उठाई है, तो फिर गुमनामी का क्या भय है। हर किसी को यही करना है, यदि दुनिया में कायम रहना है। मुझे पता है कि ब्लॉग के कुछ पन्नों पर मेरे हृदय की धड़कनों का एहसास स्नेही जनों को होगा। जब मैं ना रहूंगा और मेरे मित्र उन पन्नों को सहेजेंगे, उसे आकर मिलेगा और मेरा स्वप्न साकार होगा। मैं रहूं न रहूं ,इससे क्या फर्क पड़ता है। परंतु मेरी कोई रचना यदि आपके काम आयी, तो इससे मुझपर निश्चित ही फर्क पड़ना है। नीरज जी को हम यूं ही नहीं याद कर रहे हैं। इसके पीछे उनकी वर्षों की साधना है। सो, भले ही ताली ना बजाओ मित्रों हमारे जैसों के संघर्ष पर , याद रखों लेकिन आपकों भी इसी राह से गुजरना है, यदि कुछ करके मरना है।

Friday 20 July 2018

चलते चलते मेरी ये बात याद रखना

भीख मांंगों या कलम को असलहा बना डाका डालो


ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
 कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
 है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर
 कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं

अब जब इस जिंदगी के सफर की पहेलियों से उभर कर अपनी इस कठिन जीवन यात्रा को विश्राम देने के प्रयास में जुटा हूं, तो स्मृतियों की घेराबंदी कुछ बढ़ती जा रही है। मन में सवाल उठ रहा है कि किन्हें खोया और क्या पा लिया।  साथ ही एक कोशिश अभी और भी शेष है कि कर्म पथ से मुक्ति पथ की ओर बढ़ते हुये, वह है-

रोते रोते ज़माने में आये मगर
हँसते हँसते ज़माने से जायेँगे हम

 चाहत यही हूं कि ऐसा ही कुछ कर सकूं। ईमानदारी का जो लेबल मुझ पर चस्पा है। वह तो निश्चित ही साथ लेकर जाऊंगा। पर अफसोस थोड़ा है कि इस ईमानदारी को यह जुगाड़ तंत्र बेवकूफी समझता है और मुझे अनाड़ी। मेरे एक मित्र,जो निश्चित ही मेरा सम्मान करते हैं, ने कल ही बातों ही बातों में कहा था कि पत्रकारिता में आपने थोड़ी सी चूक कर दी, जो समय के साथ चलना नहीं सीखा। वे काफी सम्पन्न पत्रकार हो गये हैं, मेरी तरह श्रमजीवी पत्रकार बनना उन्हें भी पसंद नहीं हैं।  वे तो हमारे जैसे कितने लोगों का पेट भरने में समर्थ है। हर तरह का जुगाड़ उनके पास है,लेकिन पेशा वही बिचौलिये का ही है। वहीं अपना हाल यह है कि ईमानदार और अनुशासन की घुट्टी बचपन से ही अभिभावकों ने ऐसा पिला रखी है कि सामने से लक्ष्मी न मालूम कितनी ही बार गुजर गई, परंतु धन अर्जन के लिये अनुचित मार्ग का चयन करते न बना। इन ढ़ाई दशकों में मुझे इस बात का बिल्कुल भी अफसोस नहीं है कि मैं भी जुगाड़ कर चार पहिये की सवारी करने वाला पत्रकार क्यों नहीं बना। लाल रंग में मोटे अक्षरों में प्रेस लिखा कार भला किसे पसंद नहीं है। जब मैं यहां आया था , तो एक एम्बेसडर दैनिक जागरण के तब प्रतिनिधि रहें दिनेश चंद्र सर्राफा के पास थी। वे काफी सम्पन्न पहले से ही थें, नेता थें और वकील भी । परंतु अब तो दर्जन भर से अधिक प्रेस लिखे हुये लग्जरी वाहन इस छोटे से शहर में मिल जाएंगे। माना की एक- दो ने जुगाड़ से व्यवस्था की, शेष सभी धन सम्पन्न लोग हैं। यहां तो अपनी साइकिल ही जिन्दाबाद है। तेल का खर्च यदि संस्थान देती तब न बाइक लेने पर विचार करता। यहां तो मोबाइल रिचार्ज करना भी अपने जेब से ही है। दरअसल, जब से इलेक्ट्रॉनिक चैनल का उदय हुआ है। धनवर्षा शुरू हो गयी है। धन सम्पन्न लोग भी जनपद स्तर पर इसमें प्रवेश कर रहे हैं। हां , पहचान उनकी होती है और काम उनका कैमरा मैन करता है, जिसे कुछ हजार रुपया वेतन देकर वे रख लेते हैं । प्रिंट मीडिया के लोगों के पास जनपद स्तर पर इतना पैसा नहीं है, सो बहुत से नये लड़के जुगाड़ और शिकार तलाशने को विवश हैं। वे ठीक से पत्रकारिता के लिये प्रशिक्षित भी तो नहीं हैं। लिहाजा, हमारे जैसे पत्रकार भी इस भीड़ तंत्र में फंसे हुये हैं। पुराने लोग तो हमें पहचानते हैं। पर नयी पीढ़ी के लिये हमारी ईमानदारी से भरी पत्रकारिता की कीमत बंद लिफाफे में चंद रुपये जितनी है। कुछ वर्षों से ऐसे लिफाफे का प्रचलन पत्रकारिता मे भी बढ़ा है। किसी कार्यक्रम में जब ऐसे बंद लिफाफे सामने होते हैं, तो हमारी बिरादरी के बहुत से बेरोजगार लड़कों के चेहरे की चमक देखते ही बनती है। अभी हाल में ही एक पत्रकार वार्ता में गया था। प्रेस नोट और एक सफेद लिफाफा था। मैंने सोचा कि निमंत्रण पत्र होगा। परंतु बाद में जब उसे खोला तो दौ सौ रुपये का नोट था। तो साहब यह है हमारी औकात, पर क्या कीजिएगा । यहां साधारण सरकारी कर्मचारी 30-40 हजार रुपया वेतन पाकर भी मुहर्रमी सूरत बनाये रहता है और हम पत्रकारों जनपद स्तर पर 5 - 7 हजार रुपये में निपटा दिया जाता है।  हां, अब मेरा ब्लॉग पढ़ बहुतों की आंखें खुल गयी हैं।कितने ही स्नेही जन कहते हैं शशि भाई एक बार हमें भी तो पुकार लिया होता। पर क्या करुं साथियों मुझे भीख नहीं , सहानुभूति भी नहीं,अपना अधिकार चाहिए। चौथा स्तंभ कह इतना बड़ा तमगा हम पत्रकारों को दे दिया गया है और जेब खाली। भीख मांंगों या कलम को असलहा बना डाका डालो। प्रेस मालिक क्या यही कराना चाहते हैं हमसे ? फिर हमें बेईमानी का लाइसेंस ही दे दिया जाए और मंच से हमारी नैतिकता का बखान कर हमें शर्मिंदा न किया जाए।
    एक ईनामदार व्यक्ति रोटी, कपड़ा और रहने के लिये स्थान से अधिक कुछ कहां मांगता है। क्या हमारे परिश्रम और ईमानदारी की इतनी कीमत भी यह समाज देना नहीं पसंद करता , फिर हमारी नैतिकता पर सवाल करने का उसे अधिकार किसने दिया। आज जहां भी जाओं यही सुनने को मिलता है कि शशि भैया आपकी बात नहीं कर रहा हूं, परंतु आपकी बिरादरी में बड़ी गंदगी है। तो साहब मेरा भी जवाब सुन लें कि घर फूंक तमाशा कौन देखता है। जितना वेतन ( 3 से साढ़े 4 हजार ) मुझे रोटी, कपड़ा और मकान के लिये मिलता था, क्या वह मेरे श्रम, मेरी ईमानदारी और संस्थान के प्रति मेरी वफादारी का उपहास नहीं है। जरा विचार करें।
     मैं रहूं ना रहूं , परंतु मेरे जैसे और भी पत्रकारों को इस घुटन से बाहर निकलने की जिम्मेदारी किसी को तो निभाना होगा ? मैं तो जीवन की इन विडंबनाओं से करीब -करीब ऊपर उठ गया हूं। भोजन और धन की तरह इस बीमार तन का भी अब तो लोभ नहीं रहा। जब तक डोल रहा है ठीक है। नहीं तो फिर -

चलते चलते, मेरे ये गीत याद रखना
कभी अलविदा ना कहना कभी अलविदा ना कहना
 रोते हँसते, बस यूँही तुम गुनगुनाते रहना
कभी अलविदा ...

Wednesday 18 July 2018

सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी

सचमुच हम पत्रकार बुझदिल हैं, जो अपने हक की आवाज भी नहीं उठा पाते हैं



"अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
कलम के सिपाही अगर सो गये तो,
वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे"

    पत्रकारिता से जुड़े कार्यक्रमों में अकसर यह जुमला सुनने को मिल ही जाता है और हमारी बिरादरी 56 इंच सीना फुलाये बल्लियों उछल पड़ती है। भले ही भोजन भर के लिये भी जेब में ईमानदारी का पैसा , जो संस्थान की ओर से दिया जाता है, किसी भी जनपद स्तरीय पत्रकार के पास न हो। यदि हम जुगाड़ तंत्र में माहिर न हो, ठेकेदार, कोटेदार, दुकानदार, मास्टर, वकील न हो और दलाल भी न हो, तो बताएं ये उपदेशक  फिर हमारा पेट कैसे भरेगा। अखबार के मालिकान की ओर से मिलने वाले 5- 8 हजार रुपये में महीने भर का खर्च, जिसमें पूरे परिवार का भोजन, कमरे का भाड़ा,बच्चों की शिक्षा, दवा और अपनों की खुशी के लिये कुछ खरीदारी हम कर सकते हैं ?अखबार के दफ्तर जाने के लिये अपनी बाइक का खर्च, स्मार्ट फोन(मोबाइल) रख सकते हैं? कड़ुवी सच्चाई यही है कि इस सभ्य समाज के  सबसे शोषित- पीड़ित प्राणी हम पत्रकार ही हैं। और इस समाज का सबसे कायर व्यक्ति मैं स्वयं को समझता हूं। जो अपने अथक परिश्रम के बदले रोटी, कपड़ा और मकान भर के भी पैसे की मांग कभी संस्थान से नहीं कर सका। इतनी महंगाई में एक वर्ष  पूर्व तक साढ़े चार हजार रुपया वेतन मिलता था। अब उसका  भी कुछ पता नहीं कि कब मिलेगा, क्या मिलेगा। मित्र कहते हैं कि कैसे रहते हो , क्या खाते हो और क्या पहनते हो। तकलीफ नहीं होती तुम्हें ऐसे काम से। अपने को इन पच्चीस वर्षों में बर्बाद कर के क्या मिला। एक छोटी सी पहचान यही न कि एक ईमानदार पत्रकार हो और जो अकेलेपन का दर्द सह रहे हो, अब कैसे झेल लोगोंं शेष जीवन का भार। सो, मुझे लगता है कि मैं सचमुच में कायर हूं। अपने हक- अधिकार की लड़ाई तक नहीं लड़ सका और दूसरों का दर्द अखबार में छापता रहा। सोच रहा हूं कि हमारी बिरादरी भी ऐसी ही क्या,हालांकि किसी पर दोषारोपण करने की तनिक भी मंशा मेरी नहीं है। पर आप ही बताएं की कभी अखबार अथवा चैनलों में पत्रकार संगठनों को भी अपने अधिकार के लिये दमदारी से आवाज उठाते आपने देखा है।अभी लेखपालों.का आठ दिनों तक धरना- प्रदर्शन समाचार पत्रों में छाया रहा। और भी कितने ही संगठनों की बात मोटे हेडिंग में हम छापते हैं । परंतु हम अपनी मांग अपने समाचार पत्र में नहीं छाप सकते। प्रेस के मालिकान और सम्पादक से पहले डेक्स इंचार्ज जो भी एक पत्रकार है, डपट देगा हमें। बागी बता संस्थान से बाहर निकाल देगा हमें। कितने भी वरिष्ठ पत्रकार क्यों न हो हम। एक बात और कहूं, चैनलों पर जो ऊंचे नाम वाले पत्रकार देखते हैं न , जो आम आदमी की समस्याओं को बखूबी उछालते हैं। टेलिविजन के स्क्रीन पर उनके आते ही फलां कुमार... हैं कह हम और आप सभी वाह! वाह भाई! कहने लगते हैं। मैं जानना चाहता हूं कि क्या कभी इन पहचान वाले पत्रकारों ने हम जैसे जिलास्तरीय किसी ईमानदार पत्रकारों का भी इंटरव्यू लिया कि चार- पांच हजार रुपये महीने में से कितना कमरे का किराया देते हो, कितना भोजन पर खर्च करते हो और बाकी की जरुरत के लिये पैसे कहां से लाते हो। हंसी आती है ऐसे तोप समझे जाने वाले पत्रकारों पर मुझे कि दूसरों का दर्द तो उन्हें नजर आता है, परन्तु अपने  पत्रकार परिवार की पीड़ा नहीं दिखती और यदि दिखती है,तो उसे छोटे पर्दे पर दिखलाने की हिम्मत नहीं पड़ती है। कहीं मालिकान ऐसा करने पर उन्हें भी उनकी औकात न बता दें।         
 
       एक और बात कहनी है, पत्रकारिता के संदर्भ में शासन- प्रशासन के किसी भी अप्रिय निर्णय पर अकसर शोर मचता है कि यह तो प्रेस की स्वतंत्रता पर यह कुठाराघात है, पत्रकार एकता जिन्दाबाद- जिन्दाबाद। अरे भाई यह क्या पागलपन है ! हम पत्रकार स्वतंत्र कहां है, हमारी लेखनी स्वतंत्र है क्या ? हम तो अपने संस्थान के स्वामी की कठपुतली है साहब , बुरा न माने हमारे वरिष्ठ साथी। यही सच्चाई है इस पत्रकारिता जगत की कि हम पत्रकारों की कलम पूरी तरह से संस्थान की गिरफ्त में है। हमारे जनहित की खबरों से संस्थान का तनिक भी व्यवसाय फंसा कि उस पर कैंची लगी नहीं, हमारी क्लास लगनी शुरु हो जाती है। मैं तो मझोले समाचार पत्र से जुड़ा हूं, इसीलिये इस संदर्भ में बहुत नहीं झेलना पड़ा , परंतु बड़े अखबारों में कहीं अधिक पाबंदी है , मालिकान की तरफ से । सो, पत्रकार नहीं, मालिक जो चाहता है, वह छपता है । किस मुगालते में हैं हम। पत्रकारों (स्थायी, संविदाकर्मी, अंशकालिक) के संघर्ष की खबरें हम नहीं छाप सकते, तो भी कैसी आजादी है हमारी। कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत करके कच्चा माल हम जुटाते हैं और उसे तराशते हैं। लेकिन , हमारे इस पका पकाया भोजन को अखबार वाले हड़प लेते हैं। बदले में हमें पेट भरने जितना पैसा भी नहीं देते हैं।
 
    पुरानी कहावत है न "कमाएगा लंगोटी वाला, खाएगा धोती वाला " , यही नियति है हम पत्रकारों का। हृदयहीन पूंजीपतियों के हाथों हम पत्रकारों की ऐसी स्थिति के बावजूद अपना पत्रकार बिरादरी ऐसा कोई बड़ा संघर्ष नहीं कर सका , जिससे हमारे जैसे जनपद स्तरीय पत्रकारों को भी कोई सुरक्षा छतरी मिल सके। वैसे, तो मजीठिया आयोग की डुगडुगी खूब बजी थी, इस मोदी सरकार में भी। पर लगता है कि सारा मामला ठंडे बस्ते में हैं। सच तो यही है कि हमहीं बुझदिल हैं। हमारे में ही वह साहस ही नहीं है कि एक दिन के लिये सामुहिक रुप से कलम न उठाने का संकल्प लें। ऐसा इसलिए कि बिन वेतन मुफ्त में जनपद स्तर पर पत्रकारिता करने के लिये धन सम्पन्न और जुगाड़ तंत्र में माहिर लोग तैयार बैठें हैं।  फिर हमारे जैसे ईमानदार पत्रकार क्या करें पांच हजार की नौकरी में अपनी सारी इच्छाओं का गलाघोंट कर अंततः अवसादग्रस्त हो जाए, या फिर बेईमानी के दलदल में प्रवेश कर अपना स्वाभिमान गंवा दें। मैं इस समाज  के पहरुओं से बस इतना ही जानना चाहता हूं।
  यदि थोड़ी अपनी बात कहूं, तो वर्ष 1994 में पत्रकारिता से जुड़ा हूं। दिन भर के कड़े परिश्रम के बावजूद वेतन साढ़े चार हजार मात्र रहा। यह मीरजापुर जानता है कि समाचार संकलन करना, फिर उसे लिखना ,अखबार का बंडल लाना और साइकिल से फिर उसका वितरण इन सभी कार्यों को करने में  सुबह 5 से रात 10-11 बजे तक श्रम करता रहा। परंतु जेब में इतना पैसा नहीं रहा कि कोई मेरा भी हमसफर होता। और अब अवस्था करीब 50 के आसपास है। संस्थान से जो साढ़े चार हजार रुपया मिलता था। वह भी कोई निश्चित नहीं रहा। सो, मेरे एक उदार हृदय वाले मित्र का यह बड़ा स्नेह है कि मैं उनके होटल में शरणार्थी सा पड़ा हूं। परन्तु मेरा मन मुझे धिक्कारता निश्चित ही है कि  किस पेशे का चयन मैंने किया कि ठीक से रोटी ,कपड़ा और मकान भी नहीं मिला। और अब जब  अत्यधिक श्रम के कारण शरीर असमर्थ होने लगा है, बुखार ने जबरन मित्रता कर ली है, तो जीवनयापन के लिये कोई आर्थिक सहारा नहीं। हां ,खुशकिस्मत बस इतना हूं कि उसी वेतन का एक हिस्सा मैंने इन 24 वर्ष में बचा लिया और बैंक से मिलने वाले उसी के ब्याज के पैसे से दो जून की रोटी की व्यवस्था  कर पा रहा हूं।फिर भी रहने के लिये किराये के कमरे का बंदोबस्त इस धन से नहीं कर सकता। क्या यहीं ईमानदार पत्रकारों की दुनिया है ? मैं इस पहेली को तो नहीं समझ सका, परंतु जो भी नये लड़के मेरे सम्पर्क में आते हैं और मुझे ईमानदार पत्रकार कह मुझसे कुछ सिखना चाहते हैं। उनसे बस मैं इतना ही कहता हूं-
  सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी
   सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी।

वरिष्ठ ब्लॉग लेखिका श्वेता जी ने  मुझसे कहा था कि थोड़ी तो उम्मीद की किरण होगी न कि जिसका डोर पकड़ मैं अपना जन जागरण जारी रख सकूं। मेरा विनम्र निवेदन है कि अखबार की दुनिया में यदि अपने परिजनों के आर्थिक सहयोग के बल पर हम पत्रकार मजबूत नहीं हैं, तो हमारी यही ईमानदारी हमें उस अवसाद रुपी दलदल में ले जाएगी। जहां फंसे हम जैसे पत्रकार भी " झूठे का बोलबाला , सच्चे का मुंह काला " की पुकार लगाते दिखेंगे।
   यही चौथे स्तंभ का सच है साहब।

Monday 16 July 2018

मन पछितैहै अवसर बीते

जुमले से मिली सत्ता की कुर्सी की सुरक्षा कर्म से ही सम्भव है


       इस बार रविवार की छुट्टी मुझे नहीं मिल पाई, क्यों कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभा का कवरेज जो करना था।  सो, न कपड़े धुल सका और ना ही उनमें प्रेस ही कर पाया हूं। आराम करने की जगह इस उमस भरी गर्मी में शहर से कुछ दूर स्थित सभास्थल पर जाना पड़ा। इससे पहले वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में मोदी इसी मैदान पर जनता से वोट मांगने आये थें और अबकि कुछ देने के लिये उनका आगमन हुआ । वैसे, तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सुनने में जो रुचि थी मेरी उसके बाद किसी राजनेता का भाषण मुझे तो रास नहीं आया। फिर भी अखबार का काम है, तो करना ही है। सो, बड़े भाई प्रभात मिश्र, ब्यूरोचीफ राष्ट्रीय सहारा के संग जब सभा स्थल पर पहुंच ही गया तो ,वर्तमान राजनीति में शब्दों के सबसे बड़े जादूगर के संबोधन को कान लगा कर सुनता ही गया। समझने की एक बार पुनः कोशिश की कि नरेंद्र मोदी में वह कौन सा गुण है कि वे देश के तागतवर प्रधानमंत्री कहे जाने लगें। अब देखें न उन्होंने कितनी सुन्दर तुकबंदी कर कहा कि पिछली सरकारों ने सिर्फ बातें-वादे किये, जबकि वे(मोदी) उनकी ही अटकी हुई, लटकी हुई और भटकी हुई परियोजनाओं को खंगाल कर पूरा करा रहे हैं। सो, घड़ियाली आंसू बहाने वालों से उनके इस गुनाह का हिसाब जनता मांगे। अपने भाषण के माध्यम से मोदी ने एक ऐसा शब्द चित्र उपस्थित कर दिया कि मेरे जैसा पत्रकार भी क्षणिक अचम्भित सा हो गया। इसी कारण विपक्ष के पास कोई काट नहीं है , पीएम मोदी की बातों का। माना कि बाण सागर परियोजना पर होमवर्क चार दशक से चल रहा था। लेकिन , फिर भी पूर्व की सरकारों ने साढ़े तीन हजार  करोड़ की लागत पर पहुंच गयी, इस परियोजना को पूरी तो नहीं करवाई न। उनमे इच्छाशक्ति का अभाव जो था। सो, डेढ़ लाख हेक्टेयर किसानों की भूमि को अमृत जल देने का कार्य अब हुआ। वहीं, माना की चुनार पक्का पुल का शिलान्यास 2007 में तब मुख्यमंत्री , उत्तर प्रदेश रहें मुलायम सिंह ने किया।  परंतु उसे वर्ष 2012 से 17 तक सीएम रह कर भी उन्हीं के पुत्र अखिलेश यादव पूरा नहीं करवा सकें और अब 11 वर्षों बाद बीजेपी सरकार ने इसमें रुचि ली और मोदी ने रविवार को इसका भी लोकार्पण कर दिया। लेकिन , समाजवादी पार्टी इसे लेकर अब नौटंकी कर रही है, तो अवसर गंवाने के बाद यह झेप मिटाने से अधिक कुछ भी नहीं है। क्यों कि राजनीति भी एक क्रिकेट मैच की तरह ही है कि आखिरी ओवर में जिसने गेंद को बाउंड्री पार करवा दिया, वही सिकंदर है। बसपा और सपा के पास उनकी सरकार में भरपूर अवसर था कि वह इस लक्ष्मी की नगरी में विकास का दीपक जला जनता संग अपनी भी दीपावली मनाती। सांसद, विधायक और मंत्री तो यहां से भी अखिलेश सरकार में रहें। लेकिन , इच्छाशक्ति इनमें वर्तमान सांसद व केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल जैसी नहीं थी। सो, सत्ता चली गयी, वे चुनाव हार गये। अब जब कोई पूछेगा कि पावर में रह कर आपने अपने जिले को क्या दिया, तो है कोई जवाब मान्यवर आपके पास ? सांसद अनुप्रिया पटेल ने तो ढ़ाई सौ करोड़ के मेडिकल कालेज का शिलान्यास भी प्रधानमंत्री से करवा लिया है।
     लेकिन, याद यह भी रखे कि जनता जुमलों  की सच्चाई को भी परखती है। स्मरण करें कि 1971 में गरीबी हटाओ- देश बचाओ का नारा लगा कांग्रेस सत्ता में आयी थी और आज इस पार्टी की हालात कैसी है। इसी तरह  से कहां हैं हमारे अच्छे दिन, आम आदमी यह प्रश्न करने लगा है। जिसका प्रत्यक्ष परिणाम यह है कि  पीएम बनने से पूर्व मोदी की जनसभा में जो भीड़ पुतलीघर में जुटी थी,उसकी आधी भी अबकि चंदईपुर जनसभा में नहीं दिखी। इससे काफी अधिक भीड़ तो 2017 के विधानसभा चुनाव में इसी मैदान पर मोदी के आगमन पर दिखी थी। ऐसा इसलिये कि यहां जिस बुझी चिमनी में धुआं करने का वादा 2014  में मोदी कर गये थें। प्रधानमंत्री बनने पर उसे निभा कहां सके हैं अब तक । सो, देखें 2019 में जनता क्या कहती है , क्यों कि  जुमले सत्ता की कुर्सी पर बैठा तो देता है। लेकिन, उस पर काबिज रहने के लिये अपनी बातों पर खरा उतरने की चुनौती भी रहती है।

Saturday 14 July 2018

स्नेह बिन जीवन कैसा


कर्म हमें महान बनाता है पर स्नेह इंसान

तस्वीर तेरी दिल में
जिस दिन से उतारी है
फिरूँ तुझे संग ले के
नए-नए रंग ले के
सपनों की महफ़िल में
तस्वीर तेरी दिल में...
 
     सचमुच तस्वीर दिल में उतारनी हो या फिर कागज पर , यह काम इतना आसान है नहीं । समर्पण, सम्वेदना एवं स्नेह से ही इसे आकर मिलता है। और जब यह सजीव हो उठता है, तो हमारे ही सपनों की महफिल पर अपना अधिकार जताने लगता है। दिल में जो भावनाओं का उफान है,वही हमें लेखक बना देता है। यहां कर्म का बंधन नहीं स्नेह की प्रबलता होती है। कर्मयोगी सब कुछ पा सकता है, पर स्नेह से वंचित रह जाता है।  सोचे जरा ग्वाल- बाल, गोपियों और बछड़ों संग यह नटखट नंदकिशोर का स्नेह ही तो रहा कि ब्रजमंडल को इंद्र की मेघ वर्षा से बचाने के लिये गोवर्धन उठा लिया, लेकिन जब वे द्वारिकाधीश बन गये तो उसी द्वारिका नगरी को समुद्र में डूब जाने दिया। यहां कर्म ने राह रोक लिया, वहां स्नेह ने विवश कर दिया। और इस पर भी विचार करें कि जिस नन्हे ग्वाले ने स्नेह में अनेकों बार संकट में अपने बाल सखाओं की प्राणरक्षा की, वही जब योगेश्वर कृष्ण हो गया तो इसी कर्म के बंधन के कारण ही अपने प्रिय भांजे अभिमन्यु को चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकाल सका। सो, कर्म पर चाहे जितने भी उपदेश कोई दे लें, मुझे तो स्नेह के दो बोल ही भाते हैं। हां, प्रशंसा की भूख बिल्कुल भी नहीं है। वस्तुतः प्रशंसा करके किसी को जितना ठगा जा सकता है, उतना और किसी तरह से भी नहीं। यह हमारे व्यक्तित्व विकास में जहर की मीठी गोली ही तो है। जबकि स्नेह पवित्र है, सरल है और बुझे मन को फिर से रौशन कर देता है। यदि अपनी बात करूं, तो स्नेह की खोज में भटकता रहा, फिसलता रहा और सम्हलता रहा। बनारस में था, तो पढ़ाई के दबाव में बचपन छीन गया। कोलकाता में शिशु कक्षा का विद्यार्थी था, पर जब बनारस लाकर पिता जी ने सीधे कक्षा दो में ठूंस दिया। कुछ -कुछ याद है कि अलका  मुझसे तीन-चार नंबर अधिक पाकर फस्ट हो गयी थी। लेकिन, इसके बाद अपनी सभी कक्षाओं में अव्वल मैं ही रहा, चाहे प्रतिद्वंद्वी कोई रहा। भाई - बहन में बड़ा होने के कारण कुछ भी अप्रिय कार्य हो जाए, तो डांट तो मुझे ही पड़ती थी कि तुम्हें समझ होनी चाहिए वे दोनों तो छोटे हैं। दादी के पास भी तो हम तीनों को कम ही जाने दिया जाता था। वे अनपढ़ थीं, पुराने ख्यालों की इसलिये हमारे सभ्य परिवार का हिस्सा कैसे हो सकती थीं। पर थीं बड़ी ही स्वाभिमानी , अपना भोजन स्वयं बनाती थीं। स्नेह की बोल बच्चे तो क्या पशु-पक्षी भी पहचानते हैं और कर्म का बोझ भी। गरीब तो थें ही , सो दादी कहीं से कुछ बढ़िया खाने का सामना लाती, तो ले रे पप्पी ! कह आवाज जरुर लगाती थी। यह उनका हम बच्चों के प्रति स्नेह ही था। नहीं, तो जब तक घर में स्कूल नहीं खुला था, उन्हें खाना कौन पूछता था। मम्मी और दादी में सम्वाद अंत तक मैंने नहीं देखा। फिर भी दादी हम बच्चों का ख्याल रखती थीं। जब मैं इंटर में पढ़ता था और घर से गिनती कर चार रोटी सुबह और उतना ही शाम को मिलता था,तो दादी किस तरह से सुबह के नाश्ते की व्यवस्था मेरे लिये करती थीं, उसे याद कर आंखें अब भी नम हो जाती हैं। घर पर जब तक कक्षाएं चलती थीं। वे मुझे पढ़ने के लिये कम्पनी गार्डेन और एकांत में स्थित मंदिरों में ले जाया करती थीं। घर से एक दिन में एक ही पुस्तक पढ़ने को मिलता था, वह भी छोटे भाई साहब की इजाजत के बाद। तब दादी ही दिलासा दिलाती थी कि काहे मन मारे है, फस्ट(प्रथम श्रेणी) तो तू ही आएगा। कारण हम दोनों ही भाई इंटर में थें। हाई स्कूल के बाद मैं घर छोड़ कर मौसी के यहां चला गया था। सो, एक वर्ष की पढ़ाई फिर चौपट हो गई थी। दुर्भाग्य से मेरा परीक्षा केंद्र भी विशेश्वरगंज से काफी दूर चौकाघाट पड़ गया था। इतना दूर पैदल चल के जाता और आता था। जिस दिन सुबह शाम दोनों पाली में परीक्षा होती थीं, पांव जबाब देने लगता था। बस मन को दिलासा दिये जाता था कि थोड़ी दूर तो और चलना है। वापस लौटूंगा ,तो दादी जरुर पैर के तलुओं में तेल लगा देगी और सिर पर भी ठंडे तेल से मालिश करेगी। इससे भी कहीं अधिक दादी तो मुझे वापस लौटने पर कुछ खाने को भी देती थी। विधवा पेंशन का पैसा जो उन्हें मिलता था , वह सारा मेरे पर ही तो वे खर्च कर देती थीं। कैसी विडंबना थी मेरे परिवार में भी जिसके घर में अपना विद्यालय चल रहा ही। उस घर की मुखिया को विधवा पेंशन का सहारा लेना पड़ता था, अपने खर्च के लिये। अच्छी तरह से याद है मुझे कि जब घर में स्कूल खुला, तो उनसे उनका कमरा, जो आगे की ओर था, यह कह कर खाली करवाया गया था कि सुबह- शाम की चाय दो जून की रोटी और वर्ष में दो साड़ी मिल जाया करेगी। बाल- बच्चों को दो पैसे की आमदनी होगी , यह सोच कर दादी मान गयी। सो, पिछले कमरे में एक छोटी सी अलमारी में उनका सारा सामान रख दिया गया था। जब मैं इंटर में था, तो घर के चार सदस्य पापा-मम्मी और मेरे भाई- बहन एक परिवार का हिस्सा थें और हम दादी-पोते गैर थें। हम दोनों ही स्वाभिमानी थें, इसलिये जो मिला उसी में गुजारा कर लिये। किसी रिश्तेदार के समक्ष हाथ नहीं फैलाया हम दोनों ने। हां , कभी कभी मां (नानी) को याद कर मेरा मन भर उठता था कि   वे होती तो क्या इस तरह से आधा पेट भोजन कर बाग-बगीचे  मंदिर में बैठ पढ़ना पड़ता। वहां, तो कोलकाता में जरा सा बुखार भी आ जाता था, तो चौधरी( बाबा- मां का आपस में सम्बोधन) डाक्टर को बुलाओ ,का शोर मां मचाने लगती थीं।
वह दिन मुझे याद है कि वे पूरी रात मेरे सिर पर पानी की पट्टी रखती रहीं। वही, स्नेह फिर मुझे इंटर की पढाई के दौरार दादी से मिला। फर्क बस इतना रहा कि कोलकाता में सम्पन्नता थी। लेकिन, यहां दादी अपने उसी विधवा पेंशन से मेरी खुशी के लिये उस अवस्था में क्या - क्या नहीं करती थीं। नमकीन, पेठा, मिठाई जो भी बन पड़ता था, वे करती थीं। वैसा स्नेह बनारस में भला किससे फिर मिला। दादी के कारण हो तो मैं इंटर में एक पुस्तक से पढ़ कर भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ। हां, हाईस्कूल में जहां  गणित में सौ में से 98 अंक मिले थें, वहीं इंटर में यह घट कर 80 हो गया था।  छोटे भाई को द्वितीय श्रेणी से ही संतोष करना पड़ा। मुजफ्फरपुर में था, तो गरीबी के बावजूद मौसी जी ने मां की तरह मुझे स्नेह दिया। लेकिन, एक अच्छे विद्यार्थी की पढ़ाई से नाता यूं टूट जाये, तो इस दर्द का उपचार वक्त के सिवाय और किसके पास है। कहां- कहां नहीं भटका फिर । बिन दादी के अपना कमरा ही डरावना सा लग तब मुझे। मीरजापुर में यह जो मेरी पहचान बनी है न, पत्रकारिता के प्रति मेरे समर्पण, निष्पक्षता और ईमानदारी के कारण है। दूसरे जिले के एक सांध्यकालीन समाचार पत्र को मैंने किस तरह से तप कर चलाया, यह सिर्फ मेरे वे ही पाठक जानते हैं,जिन्होंने देर रात तक अखबार बांटते हुये मुझे संघर्ष करते हुये देखा है,तभी वे मुझसे स्नेह करते हैं। नहीं तो पत्रकारों को अब कौन अपने पास  बैठाता है।वही , स्नेह तो ब्लॉग लेखन में भी मुझे मिल रहा है। पर  यतीम समझ अब कोई स्नेह न करे, मुझे एकांत में ही रहने दें। जहां न कर्म का बंधन है, न ही स्नेह का रिश्ता।

Thursday 12 July 2018

जीने की तुमसे वजह मिल गई है



    "तुम आ गए हो नूर आ गया है
     नहीं तो चराग़ों से लौ जा रही थी
     जीने कि तुमसे वजह मिल गई है
     बड़ी बेवजह ज़िंदगी जा रही थी "

        कितना भावपूर्ण गीत है न यह ? उतनी ही खुबसूरती के साथ इसे लता जी ने किशोर दा के साथ गाया है। परस्पर प्रेम समर्पण है यहां। सो, बार - बार सुनने पर भी मन नहीं भरता है मेरा।  लेकिन, मेरे जिंदगी के सफर में यह काफी पीछे छूट गया है। यहां तो कहाँ से चले कहाँ के लिये मेरी ये खबर लेने वाला भी कोई नहीं है। बोझिल मन से कमरे पर आता और भरे मन से निद्रा रानी को पुकार लगाता। ताकि उन वेदनाओं से सुबह तक के लिये मुक्त हो सकूं। फिर भी कभी- कभी वे रात में भी आकर जगा जाया करती थीं। इस उदास मन को दिलासा देने जाता भी तो किसके पहलू में। ऐसे में नूर बन कर यह ब्लॉग मेरे सामने आ गया है। यह मेरे लिये कोई व्यापार नहीं है। जो हानि लाभ को लेकर सशंकित रहूं। यह मेरे लिये पाठक मंच भी नहीं है कि यह हिसाब रखूं कि पेज व्यूज कितना है। अब तो जिन्दगी और सांस हैं हम दोनों। मेरे उदास मन को जीने की वजह मिल गयी है।  सच कहूं तो ढ़ाई दशक के मेरे व्यस्त पत्रकारिता जीवन में अब जाकर बहार आई है। सो, शाम होते -होते मैं अपने सारे कार्यक्रम छोड़ आशियाने पर लौट आता हूं। कुछ सुनता हूं ,कुछ लिखता हूं और कुछ मुस्कुराता भी हूं। साथी पत्रकारों को लगता है कि मैं बावला हो गया हूं। वे कहते हैं कि कहां तो अखबार में तम्हारी खबरों को हजारों लोग पढ़ते है और कहां इस ब्लॉग पर सौ लोग, फिर भी तुम खुश हो ! तो मित्र एक अंतर है अखबार और ब्लॉग में। वहां मैं पाठकों के रुचि के अनुसार सामग्री परोसता हूं और यहां अपने मन को प्रस्तुत करता हूं, अपनी सुखद स्मृतियों में खो जाता हूं। इसी नये रंगमंच पर मेरा चिन्तन मुझे मुक्ति पथ की ओर ले जा रहा है। जीवन में इन ढ़ाई दशकों में जो सबसे बड़ी भूल मैंने की , वह यह की है कि एक मेढ़क की तरह कुएं को ही सागर समझ बैठा और अब जब यह कुआं सूखने को है, तो इस सत्य का बोध होने पर भी ऊंची छलांग लगा बाहर आने का सामर्थ्य मुझमें नहीं है। माना कि बचपन में घर का त्याग मेरी नियति थी। लेकिन जब युवा था ,तो बड़े अखबरों की नौकरी क्यूं ठुकराई ! यह मोहपाश ही प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध है। एक और भ्रम मेरा टूटा कि दूसरे की वस्तु को सहेजने में हम भले ही अपना बहूमूल्य जीवन दांव पर क्यों न लगा दें। फिर भी परिस्थितियां बदलते ही, उस वस्तु का असली स्वामी यह सवाल निश्चित करेगा कि तुम हमारे हो कौन? चाहे हमने उस वस्तु की पहचान बढ़ाने के लिये  अपना सारा यौवन गंवा दिया हो , सारे रिश्ते बिखर गये हो और धन भी न कमा सका , तो भी। मैं धन्यवाद देना चाहता हूं, अपने उन कुछ पत्रकार मित्रों को जिन्होंने षड़यंत्र के तहत समाचार लेखन को लेकर मुझ पर मुकदमा दर्ज करवाया।जिसके बाद संस्थान से किसी तरह का आर्थिक सहयोग कोर्ट,कचहरी और वकील करने के लिये तो मिलना दूर , बल्कि सहानुभूति के दो शब्द भी मिले वहां तो। आज भी मैं अकेले ही इन मामलों को झेल रहा हूं और अपने- पराये के फर्क को समझ कुछ मुस्कुरा भी रहा हूं । अखबार और ब्लॉग में मेरे लिये यही तो अंतर है। वह गैर है, यह अपना है। हां , एक बात और यह कहनी है कि मैं उन्हें भी शुक्रिया कहना चाहता हूं,जो चंद दिनों के लिये सावन का फुहार बन मेरे विरान जीवन में माधुर्य का एहसास करवाने आये और चले गये। क्यों कि जब मोह का पर्दा गिरता है, तभी सच की राह पर चलना आता है। मेरा प्रयास है कि अपने अतीत से कुछ सबक लूं। गलतियों पर चिन्तन करूँ और संक्षिप्त में उसका वर्णन यूं ही करता रहूं। ताकि मैं भी जागता रहूं और आपको भी जगाता रहूं । भले ही एकांत में यूं  गुनगुना कर आखें नम कर लूं-

   ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मकाम
   वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
   फूल खिलते हैं, लोग मिलते है
   मगर पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं
   वो बहारों के आने से खिलते नहीं
   कुछ लोग जो सफ़र में बिछड़ जाते हैं
   वो हज़ारों के आने से मिलते नहीं
   उम्र भर चाहे कोई पुकारा करे उनका नाम
   वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते...

  फिर भी औरों के लिये मुस्कुराते रहें।
  (शशि)

Tuesday 10 July 2018

इन रस्मों को इन क़समों को इन रिश्ते नातों को



   सुबह दो घंटे अखबार वितरण और फिर पूरे पांच घंटे मोबाइल के स्क्रीन पर नजर टिकाये आज समाचार टाइप करता रहा। वैसे, तो अमूमन चार घंटे में अपना यह न्यूज टाइप वाला काम पूरा कर लेता हूं, परंतु आज घटनाएं अधिक रहीं । ऊपर से प्रधानमंत्री के दौरे पर भी कुछ खास तो लिखना ही था। जब तक अखबार साथ है, उसके लेखन कार्य करना ही होगा। वैसे भी बचपन से ही किसी से पिछड़ने की मेरी आदत है ही नहीं ,चाहे परिणाम कितना भी भारी पड़े मेरे स्वास्थ्य पर ? पर अब कुछ निश्चित स्वास्थ्य को लेकर इसलिए भी रहता हूं कि हमारे राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के ब्यूरोचीफ बड़े भाई प्रभात मिश्र जी हैं, उनके सौजन्य से शुद्ध देशी गाय का सेवन जो कर रहा हूं। सो, दोपहर के भोजन से मुक्ति मिल गई है, इन दिनों। सुबह नौ बजे अपने दरबे से निकल कर सीधे राष्ट्रीय सहारा अखबार के कार्यालय पहुंचता हूं और अपने पेपर गांडीव के लिये समाचार लेखन का कार्य कर अपरान्ह 4 बजे तक वापस अपने आशियाने में लौट आता हूं। थके शरीर को विश्राम करने की इच्छा हुई तो ठीक , नहीं तो एकांत कमरे में पुराने गीतों में पुस्तकों में खो जाना चाहता हूं।  किसी के संग हंसी- ठिठोली मुझे तो बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती है अब और टेलीविजन- अखबार से कोई मतलब ही नहीं रखता । आप भी क्या समझेंगे की यह कैसा पत्रकार है,जब संचार माध्यमों के इन साधनों से दूर रहता है ? पर ऐसा नहीं है साथियों मेरी अनुभवी आंखें स्वयं में ही एक सशक्त संचार माध्यम है।
  वैसे, आज थकान कुछ अधिक ही महसूस कर रहा हूं,शायद भीषण उमस और बुखार का प्रभाव है। मन कुछ डूबने सा लगा था, तभी मेरे सेलफोन ने एक अच्छे दोस्त का फर्ज निभाया और रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म का यह मेरा पसंदीदा गाना, वह लेकर आया-

मैं ना भूलूँगा, मैं ना भूलूँगी
इन रस्मों को इन क़समों को इन रिश्ते नातों को
मैं ना भूलूँगा, मैं ना भूलूँगी
चलो जग को भूलें, खयालों में झूलें
बहारों में डोलें, सितारों को छूलें

  इस गीत के सहारे मैं फिर से सुखद स्मृतियों की सैर कराने लगा।  सोचता हूं कि इन रिश्तों की भी कितनी अजीब दास्तान है। प्रेम, त्याग ,समर्पण एवं वेदना ...इसकी बगिया में में भी तो तरह-तरह के फूल हैं। किसी का रंग सुर्ख है, तो कोई श्वेत ही रह जाता है। जैसे कि मेरा जीवन है ! अब तो कभी- कभी स्वयं से ही प्रश्न किया करता हूं कि क्या रिश्ते भी इंसान के जीवन में होते हैं । कैसे होते होंगे ये रिश्ते ? बड़े- बुजुर्ग तो कहते थें कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, फिर मैं इन सारे रिश्तों से दूर बहुत दूर कैसे होता चला गया। बचपन से लेकर यौवन के इस आखिरी पायदान पर जहां मैं खड़ा हूं एवं वानप्रस्थ आश्रम की तैयारी कर हा हूं। इन करीब साढ़े चार -पांच दशकों में कोई एक रिश्ता भी तो मुझे सहारा देने आगे नहीं आया। या फिर मैं ही इनसे से दूर होता चला गया ! चाहे जो भी बात रही हो,मैं हूं तो यतीम ही न। वैसे भी मुझे किसी रिश्ते में विश्वास नहीं रहा। पता नहीं वह कब अपना रंग बदल ले और सारे रस्मों- कसमों को तोड़ अजनबी बन पलायन कर जाए। बचपन का जो पहला रिश्ता मुझे कुछ -कुछ याद है, वह कोलकाता  में ननीहाल का है। जहां मां- बाबा और मौसी जी मुझे प्यार दुलार मिला। कोलकाता के बड़े ही नामी कानवेंट स्कूल में उन्होंने मेरा दाखिला करवाया। मुझे जबरन पापा द्वारा अपने घर वाराणसी ले जाने के पूर्व मैं कितने दिनों तक कोलकाता में इस प्यार भरे घर- संसार में रहा मुझे बिल्कुल भी याद नहीं। जन्म सिलीगुड़ी में हुआ वह स्थान भी मेरी स्मृति में नहीं है। इसके बाद दार्जिलिंग एवं गैंगटोक में रहा कुछ महीने रहा, जैसा की मम्मी ने बताया था कि हालात सिक्किम के बिल्कुल खराब थें उनदिनों। मां- बाबा और मौसी का साथ छूट गया , वह लंच बाक्स भी टूट गया। फिर अपने ही घर बनारस में मैं सहमा - सहमा सा था मैं। मानों किसी गरीब परन्तु अनुशासित हास्टल में डाल दिया गया था। चेहरे पर कभी मुस्कान मेरे नहीं आयी वहां ,दर्जा दो से छह तक की पढ़ाई के बीच, जब तक बनारस में रहा। अनुशासन के भारी लबादे में दबा हुआ सा , परिवार के सदस्यों को छोटे भाई की तारीफ करते देख अपने बड़े होने का दर्द सीने में दबाये मन मारे  अपने भाई को "खईके पान बनारस वाला छोरा गंगा किनारे वाला " उस समय के प्रचलित इस गाने पर थिरकते और परिजनों को ताली बजाते देख टुकुर- टुकुर  भारी मन से ताकता रहता था। फिर भी मेरी मनोस्थिति को यहां बनारस में किसी ने नहीं समझा। तब भी कक्षा में अव्वल मैं ही रहता। इसी बीच जब कक्षा पांच में था, तो कबीरचौरा अस्पताल में हम भाइयों के हाथ में कुछ चुभा कर न जाने कैसी जांच की गयी कि मुझमें तपेदिक ( क्षयरोग) की सम्भावना जता दी गयी। तब एक तो मेरा बालमन वैसे ही किसी बड़ी बीमारी को लेकर घबड़ा रहा था, वहीं घर में डांट यह पड़ी कि हमेशा कुढ़ते रहते हो न, अब भोगो ! ऐसा नहीं कि घर पर मेरा ख्याल नहीं रखा जाता था। परंतु मुझे सदैव यही महसूस हुआ कि इस परिवार में मेरी भूमिका छोटे भाई के बाद है। शायद ननिहाल में रहना ही मेरा कसूर था।
      खैर यह संयोग ही था कि मम्मी- पापा का सम्बंध मां- बाबा(मेरे नाना- नानी) से फिर से सामान्य हो गया। सो, करीब 12 वर्ष की अवस्था में मैं  कोलकाता आ कर वही मां का प्यारा सा मुनिया और बाबा का प्यारे बन गया। मेरी खुशियों को मानो पर ही लग गये थें । परंतु मेरे इस प्यार भरे रिश्ते पर फिर से दो ही वर्षों में किसी की नजर लग गयी। मां के निधन के बाद मैं जब बनारस लौटा, तो फिर कभी नहीं खिलखिलाकर हंसा। हां, कालिंपोंग के प्राकृतिक सौंदर्य में घर के बिखरे रिश्तों की कड़ुवाहट को भूल अवश्य गया था, इससे पहले मुजफ्फरपुर में मौसी जा का दुलार भी मिला था। लेकिन, यौवन की दहलीज पर फिर से वही दर्द मिला-

एक हसरत थी की  आंचल का मुझे प्यार मिले
 मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाजार मिले
जिन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है  !

 सो, अब हर रिश्त से दूर इसी मुसाफिरखाने के यूं दुबके हुये हूं, ताकि फिर कोई रिश्ता जख्म बन उन घावों को हरा न कर जाए। जिस पर मैंने बड़ी मुश्किल से मरहम लगाया है।
       लेकिन, सच तो यह भी है कि सुख का एक द्वार बंद हो जाने पर दूसरा खुल जाता है। आश्चर्य यह है कि हम बंद द्वार को तो देखते रहते हैं, पर जो नया द्वार हमारे लिये खुला है, उसे नहीं देख पाते ! यदि मैं अपनी कहूं, तो तमाम रिश्ते टूट जाने के बावजूद मैं यहां कितने ही लोगोंं से जुड़ गया हूं। एक श्रमिक, निर्भिक, ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकार के रुप में पहचान बनी मेरी तब और अब तो कुछ स्नेहीजनों को मेरा ब्लॉग भी पसंद आ रहा है। (शशि)

Sunday 8 July 2018

रूठी लक्ष्मी नहीं छीन सकी तब हमारी खुशियां

 

     यदि हमारे पास संस्कार, शिक्षा और अपनों के प्रति समर्पण है ,तो अभावग्रस्त जीवन भी खुशियों से महक उठता है। सो, इसी कारण धन की चाहे कितनी भी कमी क्यों न रही हो , फिर भी परिवार के हम सभी सदस्य काफी खुशहाल थें , उन दिनों। मैं अपने बचपन के उन कुछ वर्षों को कभी नहीं भुला पाया हूं ,जब नौ- दस वर्ष का था। कोलकाता के वैभव युक्त और लाड प्यार भरे जीवन की कुछ स्मृति ही शेष थी। कक्षा दो से 6 तक (पुनःकोलकाता जाने के पूर्व तक) उसी विद्यालय में पढ़ा हूं, जिसमें पिता जी पढ़ाते थें। हम तीन भाई- बहन को लेकर पांच सदस्यों का परिवार था। पिता जी की आय बहुत सीमित थी। फिर भी हम सभी अमूमन रविवार को राजघाट पुल तक यूं ही घुमने जाया करते थें, वहां से समीप स्थित रेलवे स्टेशन पर जाते थें। यह हम लोगोंं का एक छोटा सा पिकनिक टूर  हुआ करता था, उन अभावग्रस्त दिनों में।  रिक्शे से वहां जाने के लिये पैसा नहीं रहता था, तो क्या हुआ। हम सभी पूरे रास्ते वार्तालाप करते हुये पैदल ही घर से कब राजघाट मालवीय पुल पर पहुंच जाते थें पता ही नहीं चलता था। वहीं पुल के किनारे चबूतरे पर बैठ हम जलपान किया करते थें। बाहर किसी प्रतिष्ठान पर जाकर जलपान करने के लिये भी हम सभी के पास पैसा तो बिल्कुल ही नहीं था। ऐसे में मम्मी सुबह उठ कर नमकीन और खुरमा बना लिया करती थींं। हम बच्चों के लिये वहीं मालपुआ से कम नहीं होता था। हम तीनों भाई-बहन कभी भी बाजार में कुछ अच्छी सामग्री देख अपने अभिभावक से यह नहीं कहते थें कि पापा हमें भी दिलवा दें न । जबकि इससे पहले कोलकाता में था, तो बाबा- मां और मौसी जी के सामने कितने नखड़े करता था। नया थर्मस लेने के लिये पुराने वाटर बोतल का ढक्कन ही वहां तो मैं अकसर ही गायब कर देता था। लेकिन, बनारस में उम्र से अधिक समझदार जो हो गया था। हम सभी 25 दिसंबर (बड़ा दिन) को सारनाथ जाते थें। कितनी लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती थी ,इस एक दिन की। भोर में ही उठकर मम्मी पूड़ी- सब्जी आदि बना लिया करती थीं। हम बच्चे दिनभर सारनाथ क्षेत्र में पड़ने वाले सभी स्थानों पर जाया करते थें । इनमें दो तो भगावन बुद्ध का मंदिर ही था,धमेख स्पूत, सम्राट अशोक के समय का चमकता स्तम्भ, सिंह और म्यूजियम में रखा उसका क्षतिग्रस्त चक्र आदि ढे़रों सामग्री हम सभी देखते थें। कुछ दूर पर एक खंडहरनुमा ऊंचा स्थान था। जिसे सीता जी की रसोई के नाम से पुकारा जाता था। दादी कहती थी कि सीता जी के हाथ से बना भोजन करने बुद्ध भगवान अपने मंदिर से आया करते थें। हम बच्चों को भी दादी की बातों का विश्वास था। बाद में जब बड़े हुयें और इतिहास की पुस्तकें पढ़ीं,  दादी से झगड़ा भी कर बैठें कि आप झूठ बोलती हैं। याद तो यह भी है कि दादी अपने समीप हम बच्चों को खटिया पर बैठा कितनी ही कहानियां सुनाया करती थीं। दिन ढलते ढलते हम सभी चढ़ाई पर स्थित सारंगनाथ मंदिर जाते थें। वहां तालाब में खिले कमल को मैं निहारना नहीं भुलता था। वापसी के लिये सारनाथ स्थित रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़ हम राजघाट  स्थित काशी रेलवे स्टेशन उतरते थें, क्यों कि रिक्शा करने के लिये पैसा जो नहीं बचा होता था पापा के पास, वहां से फिर हम सब पैदल ही धीरे-धीरे चलते हुये घर आ पहुंचते थें। ऐसा करने से हम सभी बुरी तरह से थक तो जाते थें, फिर भी बहुत खुश थें।  इसी सावन महीने में हम सभी मानस मंदिर और दुर्गा जी जाया करते थें। सावन माह में मानस मंदिर में राम और कृष्ण लीला पर बढ़िया झांकियां सजती हैं। मार्ग में हम सभी नीबूं लगा भुट्टा ( भूनी मकई) खाया करते थें। मौसम की नयी फसल है, इसलिए महंगा  मिलता था भुट्टा। मानस मंदिर तक का सैर पिता जी के जेब पर भारी था। अतः इसके लिये अन्य बजट से भरपूर कटौती करनी ही पड़ती थी। फिर भी हम खुश थें। लक्ष्मी कुंड पर लगने वाले मेले में हम बच्चों को सिटी बजाने वाले मिट्टी के खिलौने मिलते थें। भले ही सस्ते हो, लेकिन उसमें भी प्यार छुपा रहता था । दुर्गा पूजा पर हम सभी पांचों लोग कहां- कहां नहीं सजावट देखने जाते थें। इसी दौरान हम किसी साधारण परंतु अच्छे प्रतिष्ठान पर मिठाई - समोसा भी खाते थें। और प्रसिद्ध नक्कटैया की लीला देखने का जो उल्लास था ,वह पूछे नहीं। उसी दिन तो हम बच्चों पहली बार रेवड़ी- चिवड़ा खाने को मिलता था साथ ही खिलौने में हनुमान जी का मुखौटा और तीर- धनुष भी। यदि होली- दीपावली पर मम्मी- पापा किस तरह से पैसे का जुगाड़ कर घर पर ही मिलकर  मिठाइयां तैयार करते थें । हम बच्चे बस दूर बैठ उन्हें निहारते रहते थें। हमें चेतावनी दी गयी थी कि यदि भगवान जी को भोग लगे बिना खाया, तो पाप पड़ेगा। सो, हम तीनों हीं.भाई बहन मन को तसल्ली दिया करते थें कि दो - तीन दिन बाद ही तो दीपावली है। शाम को जैसे ही मम्मी गणेश लक्ष्मी का पूजन करेंगी , फिर तो खाने को मिलेगा ही न । करवाचौथ पर  निर्मित चावल का लड्डू को बिना खाये मैं उस रात सोता ही नहीं था। पर मकरसंक्रांति की खिचड़ी मुझे बिल्कुल नहीं पसंद थी। हां , घर पर ही गुड़ से बने लाई के लड्डू छत से नीचे कमरे में जा कनस्तर से निकाल भरपेट खाता था। दादी और मम्मी के संबंध कभी मधुर नहीं रहें। दादी मानों हमारे परिवार की सदस्य ही नहीं थीं, फिर भी हम तीनों भाई बहन को रथयात्रा, मोतिया झील और भी न जाने कितने ही स्थानों की सैर कराया करती थीं। बारिस के मौसम में तो पूछे ही नहीं कितने ही प्रकार के कागज की छोटी-बड़ी नाव गली में बहते पानी में हम चलाते थें। भले ही डांट पड़ते रहती थी। परंतु कोलकाता से जब पुनः बनारस लौटा, तो घर पर अपना विद्यालय हो गया था। वर्षों बाद लक्ष्मी खुश होने को थीं, परंतु अचानक यूं ही सबकुछ बिखरता चला गया, अगले दो -तीन वर्षों में।
 सो, अब तो सचमुच मन तड़प रहा है यह कहने को-

  ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
   भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
   मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
    वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी
शशि

Saturday 7 July 2018

जिसमें बुद्ध, गांधी और शास्त्री जैसी सादगी नहीं , वह कैसा उपदेश !


       यदि उपदेशक, समाज सुधारक और पत्रकार की भूमि में हम  हैं। तो हमें अपनी कथनी, करनी और लेखनी पर ध्यान देना होगा। रह -रह कर इन्हें टटोलना होगा। बड़ा ही संघर्ष भरा काम है यह हम सभी के लिये। मेरा मानना है कि उपदेश बनने से पहले एकांत में स्वयं को भलीभांति परख लेना चाहिए। उन्हीं बातों को कहना चाहिए, जिनके करीब हम स्वयं हैं। ऐसा में न तो हमें आत्मग्लानि की अनुभूति होगी और न ही उस पर से पर्दा गिरने का भय होगा। जहां तक मैं अपनी बात कहूं, तो इन तीन दशक में अकेलेपन के दंश से उभर कर अब जब मैं एकांत चिन्तन का अभ्यास कर रहा हूं, तो जिन प्रलोभन से स्वयं को ऊपर उठा सका हूं,उनमें धन और भोजन के प्रति अनाकर्षक तो है ही साथ ही वाणी को काफी संयमित कर लिया हूं। मेरा एकांत मुझे जीवन के उस चरम सुख की ओर ले जा रहा है,जहां मैं स्वयं के साथ संवाद कर सकता हूं किसी अन्य की आवश्यकता यहां बिल्कुल नहीं है। न किसी हमसफर की , न ही मनोरंजन की वस्तुएं चाहिए। मैं स्वयं को  शून्य में समाहित कर देना चाहता हूं। लम्बे जीवन संघर्ष ने अतंतः इस पथिक को वह राह दिखलाया है, जिसका अनुसरण कर स्वयं की व्याकुलता पर नियंत्रण पाने की स्थिति बनती दिख रही है। यदि आप भी अपने अकेलेपन को एकांत में बदल देंगे, तब कष्टों के बावजूद भी मेरी ही तरह से बदलाव आपमें नजर आएंगा। परंतु अभी भी मेरे लिये मन और नेत्र पर नियंत्रण पाना कठिन है। सो, मैं अपने एकांत को भंग करने के लिये ऐसे स्थानों पर नहीं जाना चाहता,जहां मोह के साधन उपलब्ध हो। किसी समारोह में , विवाह- बारात में और किसी के घर भोजन -जलपान के बुलावे आदि पर बिल्कुल भी नहीं जाना पसंद करता हूं। पत्रकार होने के बावजूद भी नहीं। लेकिन, अकसर यही देखने को मिलता है बड़े से बड़े उपदेशक  धन, मठ-आश्रम और आत्मप्रशंसा ये तीन लोभ नहीं त्याग पाते हैं। बिना बुद्ध , गांधी और लालबहादुर शास्त्री बने ही , वे ज्ञानगंगा बहाते रहते हैं। ऐसे कतिपय उपदेशकों से भी हमें सजग रहने की जरुरत है,जो बड़े- बड़े भव्य दरबार में विराजमान होकर हमें सादगी से रहने की नसीहत देते हैं। जिनके इर्द-गिर्द धनवानों का जमावड़ा ही लगा रहता है। पर जहां के कृष्ण में मित्र सुदामा के प्रति वह प्रेम नहीं दिखाई पड़ता। उस वैभवपूर्ण वातावरण में हम जैसे आमआदमी कहां आनंद की खोज कर सकते हैं। वहां तो हमारी भी इच्छा होगी न कि काश! हम भी लक्ष्मी पुत्र होते, तो प्रवचनकर्ता के करीब होते। हमें भी मंच पर आरती उतारने का अवसर मिलता। मंच पर चढ़ कर उपदेशक का चरण वंदन कर पाता और उनके संग अपना फोटो फेसबुक पर शेयर कर पाता। फिर यहां भी कहां है, समानता का अधिकार बताएं तो जरा ? इसीलिये मैं एकांत को ही सबसे बड़ा उपदेशक, मार्गदर्शन एवं हितैषी मानता हूं। यहां मन को भटकाने वाला कोई साधन नहीं है। व्याकुल मन को यहां विश्राम अवश्य मिलता है। परंतु यह एकांत भी इतनी आसानी से कहां मिलता है। मुझे अब जाकर यह एकांत प्राप्त हुआ है, नहीं तो वर्षों अकेलेपन से संघर्ष किया था। एक बात और इसी एकांत में मुझे आत्मचिंतन का भी अवसर मिला। स्मृतियों को खंगाला तो बचपन से लेकर आज तक की गयीं ढेरों गलतियों का एहसास हुआ। जिन्हें लेकर कष्ट भी हुआ मुझे। 
  परंतु आत्मचिंतन के संदर्भ में माहत्मा गांधी द्वारा 26/12/1938 को जमनालाल बजाज को लिखे पत्र का यह अंश पढ़ कर मन को शांति भी मिली। बापू ने उस पत्र में लिखा है -
 " मनुष्य को अपने दोषों का चिंतन न कर के, अपने गुणों का करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य जैसा चिंतन करता है, वैसा ही बनता है , इसका अर्थ यह नहीं है कि दोष देखे ही नहीं, देखे तो जरूर ,पर उसका विचार कर के पागल न बने "

 ( शशि)

Thursday 5 July 2018

तुम्हारी भक्ति मेरी आस्था से बड़ी क्यों है !



     
 

 हम समानता की बात करते हैं, इसके लिये लड़ते-झगड़ते हैं । लेकिन, मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि फिर मानव द्वारा निर्मित ईश्वर के दरबार में अमीर-गरीब,  खास और आम भक्त को लेकर अमूमन यह भेदभाव क्यों होता है। गोविंद और गुरु के उपासना स्थलों पर जाने से यदि हमारे जैसे आम आदमी को दोयम दर्जे का भक्त (दर्शनार्थी) कहलाने का दंश सहना पड़े।  और यहां माता के दरबार में वीआईपी दर्शनार्थी हमें यह कह मुंह चिढ़ाते दिखें कि देखों पगले तुम घंटे भर से नंगे पांव तपती भूमि पर खड़े हो । आसमान अंगारा उगल रहा है, फिर भी धीर- वीर बने अपनी आस्था की परीक्षा दे रहे हों । वहीं देखों न हम वीआईपी भक्तों की किस्मत, वातानुकूलित लग्ज़री वाहन से यहां आते हैं और तुम आम भक्तों को दूर ही रोक प्रशासन, पुलिस के और पुजारी के सहयोग से हम खास भक्तों को चटपट सीधे गर्भगृह में इंट्री( प्रवेश) मिल जाती है। तुम हो कि बेचारा बने हमें मंदिर परिसर में टुकुर- टुकुर ताकते रहते हो। वैसे , वीआईपी भक्तों से भी ऊपर वी वीआईपी दर्शनार्थी भी होते हैं। जैसे ,राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, सत्ता पक्ष के शीर्ष नेता , बड़े उद्योगपति, बड़े सिने स्टार , जब वे आते हैं तो उनकी सुरक्षा और व्यवस्था का हवाला देकर पूरा मंदिर परिसर ही खाली करवा लिया जाता है। वह भी उनके आगमन के काफी पहले से।
   मैं अपने जनपद के प्रसिद्ध सिद्धपीठ विंध्यवासिनी धाम में वर्षों से कुछ ऐसी ही व्यवस्था दर्शन- पूजन को देख रहा हूं। आम दर्शनार्थी यहां अकसर ही दुर्व्यवहार के शिकार होते हैं। जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, दक्षिण भारत और भी देश के विभिन्न प्रांतों से ये गरीब देवी भक्त यहां शक्तिपीठ पर तमाम आर्थिक, शारीरिक कठिनाइयों को सहते हुये आते हैं, किंतु उन्हें उनकी आस्था की परीक्षा के दौरान जब दोयम दर्ज का भक्त यहां ठहरा दिया जाता है तो असहनीय वेदना पहुंचती है।
    विगत चार जुलाई को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एवं अपने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को विंध्यवासिनी धाम में दर्शन पूजन करना था। सो, अति विशिष्ट दर्शनार्थी होने के कारण उनकी सुरक्षा व्यवस्था के लिहाजा से मंदिर परिसर खाली करवाना लाजिमी भी है। इन्होंने दर्शन- पूजन दोपहर पौने दो बजे के आसपास किया । परंतु सुरक्षा व्यवस्था का हवाला दे प्रातः दस बजे से ही मंदिर जाने का मार्ग तक खाली करवा लिया गया। यह कैसा अन्याय है आम भक्तों के साथ। खैर विंध्य पंडा समाज के अध्यक्ष राजन पाठक ने जब देखा कि इन विशिष्ट जनों को दर्शनार्थ आने में विलंब है , वहीं हजारों आम देवी भक्त मार्ग रोके जाने से इस उमस भरे मौसम में बिलबिला रहे हैं। तो उन्होंने आलाअफसरों की सम्वेदनाओं को झकझोरा, तब जाकर दोपहर पौने बारह बजे मंदिर से दूर खड़े इन दर्शनार्थियों को गर्भगृह में प्रवेश का अवसर मिला।
         यदि मैं अपनी बात कहूं तो इसी विशिष्ट दर्शनार्थी व्यवस्था के कारण जब कभी भी समाचार संकलन के लिये महामाया के दरबार में जाता हूं, तो गर्भगृह में जाने की जगह इच्छा हुई तो माता जी का झांकी से दर्शन कर लेता हूं। यह आम और खास दर्शन व्यवस्था के विरुद्ध मेरी अपनी भावना है कि लम्बी कतार में खड़े आम भक्त की आस्था को पत्रकार होने के नाते वीआईपी दर्शन का लाभ लेकर कुचलने का कार्य मैं कदापि नहीं करूंगा। नहीं तो पंडा समाज के वरिष्ठ पदाधिकारी और पुलिस अधिकारी सभी मेरे पहचान वाले हैं। सो, उनके स्नेह के कारण मैं भी चाहूं, तो व्यवस्था भंग कर इस वीआईपी दर्शन सुविधा का लाभ निश्चित ही ले सकता हूं।
लेकिन, महामाया के दरबार में दर्प से भरा  मानव यदि अपनी माया (धन, प्रभाव एवं जुगाड़) का चमत्कार दिखलाएं, तो उससे बड़ा नादान कौन है। यदि इतनी ही आसानी से सुलभ दर्शन देने की मंशा होती तो फिर पहाड़ों की चोटियों पर धर्मस्थल- उपासना स्थल क्यों स्थापित करते हमारे पूर्वज! जरा विचार करें इसपर भी ।  मैं तो सदैव स्वयं अपने को आम आदमी के आसपास रखने का प्रयत्न करता हूं और हर वीआईपी व्यवस्था का प्रतीक विरोध अपने तरीके से करता रहता हूं। वह भोजन हो, रहन- सहन हो या फिर दर्शन ही क्यों न हो।
शशि

Tuesday 3 July 2018

"पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर




 

     इन दिनों मैं फिर से और ठीक से जीवन जीने की  कला सीख रहा हूं। वैसे, तो वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने की कोई अधिक तैयारी मुझे नहीं करनी है, क्यों कि पहले से ही घर-परिवार से बहुत दूर खूबसूरत मुसाफिरखाने में जो सुकून से रहता हूं। रोटी, कपड़ा और मकान की चिन्ता नहीं है। परंतु पिछले माह से मेरे जीवन में एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि मेरे पास रचनात्मक कार्य करने को पर्याप्त समय है।  सो, लगातार ज्वर की पीड़ा सहने के बावजूद मैं अपनी मुस्कान को आमजन को समर्पित करना चाहता हूं। अपनी कलम से खुलकर उनका समर्थन करना चाहता हूं । उनके दर्द को अपनी पीड़ा समझना चाहता हूं। वैसे, तो मैं कोई ढ़ाई दशक से जनसमस्याओं को ही अपने समाचार पत्र में उठाता आ रहा हूं। पर अब उनके और करीब आना चाहता हूं।
  एक खूबसूरत गीत की यह पंक्ति

"किसी का दर्द मिल सके ले तो उधार "

    इस बंजारे राही से बहुत कुछ कहना चाहती है। यह तभी सम्भव है जब मैं बचपन वाली अपनी मुस्कान को फिर से हासिल कर लूं। ताकि यह पथिक अपनी व्याकुलता से ऊपर उठ सके। अकेलेपन से एकांत की इस यात्रा में मेरे वानप्रस्थ जीवन में फिर किसी के प्रति कोई मोह न हो, यह सुनिश्चित कर रहा हूं । मेरे लोभ मुक्त जीवन का सबसे बड़ा राज क्या है, जानते हैं आप ? बस इतना ही मैं सदैव यह याद रखता हूं कि जब वर्ष 1994 में वाराणसी स्थित अपने घर से निकाल था, तो तन पर कपड़े के सिवाय कुछ भी नहीं लेकर आया था। वहां अटैची और अलमारी में पड़े तमाम समानों में कीड़े लग गये होंगे ही। मेरा छोटा सा कमर मेरी अब भी प्रतीक्षा कर रहा होगा और यदि दादा के मकान में मैंने अपना अधिकार मांगा होता, तो शहर में तीन मंजिला मकान मायने रखता है। जरा सोचे जब मैंने इन सब का त्याग कर दिया तो फिर इस छोटे से मीरजापुर नगर में उस लक्ष्मी के पीछे क्यों भागना , जिसके कारण ही गृहलक्ष्मी नहीं मिली हो मुझे । हां, दूसरों में खुशियां अवश्य बांट सकता हूं, वह भी बिल्कुल मुफ्त में। अपने लम्बे संघर्ष को सार्थक मोड़ देकर  अपनी लेखनी के माध्यम से मित्र- बंधुओं और आमजन का मनोबल निश्चित ही बढ़ा सकता हूंं मैं, क्यों कि इन सब नेक कार्यों के लिये मेरे पास प्राप्त समय है। और मेरा सामाजिक दायरा भी पत्रकार होने के कारण कुछ अधिक बड़ा ही है।मेरे प्रति यहां के तमाम लोगोंं में यह विश्वास है कि मैं सत्य की राह पर हूं। इन सभी ने मेरे लम्बे संघर्ष और प्रलोभन मुक्त जीवनशैली को
करीब से देखा है। फिर भी वर्षों बाद मिले इस खाली समय को मैं विवाह- बारात , मेला और विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के कार्यक्रम में शामिल हो गया अपना समय बिल्कुल भी नष्ट नहीं करना चाहता हूं। आज ही रात एक क्लब के द्वारा बड़ा आयोजन है। भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री अरुण सिंह उसमें मुख्य अतिथि हैं , स्नेही जनों का अनुरोध था कि अब जब सायं मेरा अखबार नहीं आ रहा है, तो मैं भी इस कार्यक्रम में आऊं। पर मैं अपने एकांत को अनावश्यक भंग नहीं कर सकता, अतः ब्लॉग लेखन में जुटा हूं। कल 4 जुलाई को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की महत्वपूर्ण बैठक है। समाचार संकलन के लिये हम पत्रकार  दिनभर वहां विंध्याचल क्षेत्र में ही रहेंगे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदि बड़े नेता आ रहे हैं। वैसे तो साहित्यप्रेमी कहलाने के लिये अलंकारों से सजे बोझिल पुस्तकों को पढ़ने में भी मेरी कोई रुचि नहीं है, न ही धार्मिक ग्रंथों में। हां, रेणु दी की सजीव कहानियां मुझे जरुर पसंद और और ब्लॉग पर कुछ अन्य वरिष्ठ सदस्यों की भावनाओं से भरी कविताएं  मेरे व्यथित मन को शांति प्रदान करती हैं। पर जीवन की इस नयी पाली में मेरी जो बड़ी परीक्षा है वह यह कि मुस्कुराते हुये औरों के व्यथित हृदय को सांत्वना देना अपनी लेखनी, अपने कर्म और पथ के माध्यम से...
गोपालदास" नीरज" की कविता की यह सुंदर पंक्ति देखें-

" पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर"
शशि

Sunday 1 July 2018

पंक्षी पिंजरे से बाहर है




 
तन की दुर्बलता भले ही नहीं दूर कर पा रहा हूं , पर मन इन दिनों प्रफुल्लित है। इसके तीन कारण है। पहला तो यह कि वर्ष 1988 के बाद अब कहीं जा कर निश्चिंतता के साथ अपनी पसंद की पुस्तक पढ़ पा रहा हूं। टेलीविजन और अखबार तो मैं वैसे भी देखता-पढ़ता नहीं हूं,  रंगमंच पर चार शो करने में ही पस्त जो हो जाता था।और अब पत्रकारिता से मोह भंग हो रहा है , तो इन माध्यमों में अपना समय नष्ट क्यों करूं ? इस मामले में मैं सच पूछें तो बसपा सुप्रीमो बहन मायावती के विचारों से सहमत हूं कि निष्पक्षता कितनी है इनमें ? मैं पत्रकार हूं,अतः मुझे पता है कि फलां चैनल अथवा न्यूज पेपर का झुकाव किस ओर है और क्यों,  साथ ही यह भी कि पेडन्यूज का गेम कैसे होता है। संस्थान के मालिकान हम जैसे जिले के पत्रकारों को नादान प्यादे से अधिक कुछ नहीं समझते। वे हमें बस विज्ञापन उगलने वाली मशीन बनाना चाहते हैं। अतः मैं अब अच्छे लेखकों को पढ़ना चाहता हूं।  पुस्तक लेने  बाजार भी नहीं जाना है हमें , न ही जेब टटोलना है। अपना स्मार्ट फोन जो है न ?  दूसरा कारण मैं इस झूठे उपदेश से मुक्त होने को हूं कि पत्रकारिता को पेशा न समझा जाए, बल्कि यह समझे कि जनता की सेवा का माध्यम है। सच कहूं तो नैतिकता के इसी पाठ ने मेरे तन-मन को खोखला बना दिया है। संस्थान हम जिले के पत्रकारों को कितना वेतन देता है , यही माह में 5 से 7 हजार के आसपास। मुझे अधिकतम साढ़े चार हजार मिला करता था। जिसमें से तो डेढ़ हजार रुपया कमरे के किराये में ही चला जाता !  फिर ऐसी भी क्या जनसेवा कि हाड़तोड़ परिश्रम करने के बावजूद जिस कार्य को करने से सम्मानजनक तरीके से जीवकोपार्जन न किया जा सके। यह समाज हमें भी क्रांतिदूत बना कर शहीद तो नहीं करना चाहता है।
      वैसे, इन क्रान्तिकारियों की भी एक छोटी सी ख्वाहिश जरूर थी -
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशां होगा।
       पर यहां आज आजाद भारत में भी दौलतमंदों के चौखट पर मेला लग रहा है।
 हमारे ही कुछ कर्णधार देश का दौलत विदेशी खजानों में जमा कर रहे हैं। अंग्रेज भी तो यही करते थें। राजनीति , शिक्षा, चिकित्सा सब व्यापार हो गया है। परंतु तकलीफ इन सभी को इस बात से है कि पत्रकारिता को पेशा नहीं जनसेवा कहा जाए। आप तरमाल गटकते जाए , हम टुकुर टुकुर ताकते रहें।  यही किया है मैंने वर्षों तक। परंतु अब नहीं, मैं स्पष्ट रुप से पत्रकारिता में आने वाले युवकों से कहना चाहता हूं कि ऐसी झूठी जनसेवा के लिये स्वयं को बलिदान कर देने से कुछ भी नहीं मिलेगा आपको। अतः साथ में कोई और उद्यम करों। जेब में लक्ष्मी होगी, तभी तो घर में गृहलक्ष्मी का प्रवेश होगा और बच्चों की किलकारियों से तुम्हारी बगिया खिलखिलाती नजर आएगी।
    खैर बात मैं अपनी प्रसन्नता की कर रहा था, तो तीसरा बड़ा कारण यह है कि मुझे रंगमंच पर चार की जगह सिर्फ दो शो ही करना पड़ रहा है, विगत एक माह से।  सो , दोपहर ढलते के बाद एक ऐसा फकीर बन जाता हूं , जिसे कोई चिन्ता नहीं बस चिन्तन  करना है ! रोड जाम के कारण जब रात्रि में पेपर लाना और वितरण करना बंद करना पड़ा था, तो पूछे नहीं कितना मानसिक कष्ट हुआ था मुझे, लेकिन संस्थान को तनिक भी नहीं । संघर्ष मेरा ही जो था। ग्राहक कुछ दुकानों पर तो साढ़े 10 -11 बजे रात तक भी मेरा इंतजार करते रहते थें। पूछ भी लिया करते थें कि शशि भैया आज बहुत विलंब, जाम लगा होगा न? इतने सालों से इस सांध्यकालीन दैनिक समाचार पत्र को लेकर मुझे गर्व यह था कि जिले की ताजी खबरों को सबसे पहले मैं पाठकों तक पहुंचा रहा हूं।बाकी के अखबार तो अगले दिन ही देंगे न।परंतु वर्तमान सरकार में ट्रैफिक क्या जाम होने लगा सार काम धंधा मेरा चौपट हो गया। चलो अच्छा हुआ योगी सरकार में मैं भी एक भिक्षुक बन गया हूं।  सो, मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात के पात्र हल्कू की तरह प्रसन्न हूं । जानवर खा गये फसल तो क्या हुआ, अब खेत पर ठंड में रात तो नहीं गुजारनी पड़ेगी न ? मुझे भी तो अखबार का बंडल उतारने के लिये घंटों रोड पर अब नहीं खड़ा रहना होगा। याद है मुझे कि किस तरह से बरसात में औराई चौराहे पर खड़े-खड़े बारिश  से सराबोर हो जाता था या फिर ठंड में बारबार मफलर को कसते रहता था कि उसके झरोखे से बर्फिली हवाएं कानों में न जा घुसे। सड़क किनारे खड़े घड़ी की भागती सूई को निहारता रहता था।  कांटा बढ़ता रहता था, फिर भी बस का पहिया रास्ते में न जाने कहां जाम हो जाया करता था। जब पेपर का बंडल हाथ लगता था ,तो देर रात होने पर औराई से मीरजापुर वापसी के लिये आटो ,बस या ट्रक कोई भी साधन मिल जाए, की तलाश में भटकता था। अब योगी राज में इन सभी तकलीफों से मुक्त हूं। ठीक उसी हल्कू की तरह, जिसे फसल नष्ट होने पर भी यह पीड़ा नहीं हो रही थी कि खेती किसानी की जगह अब मजूरी करनी होगी। सो, साधुवाद देना चाहता हूं वर्तमान सरकार की बेपटरी हुई इस यातायात व्यवस्था को जिसने ढ़ाई दशक की एक बड़ी पीड़ा से यूं ही झटपट मुझे मुक्ति जो दिलवाई है।
         सो," पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोए" , चलो यह कह कर तो कोई उपहास नहीं करेगा, क्यों कि पंक्षी पिंजरे से बाहर है !



 ( शशि)

चित्र गुगल से साभार