सचमुच हम पत्रकार बुझदिल हैं, जो अपने हक की आवाज भी नहीं उठा पाते हैं
"अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
कलम के सिपाही अगर सो गये तो,
वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे"
पत्रकारिता से जुड़े कार्यक्रमों में अकसर यह जुमला सुनने को मिल ही जाता है और हमारी बिरादरी 56 इंच सीना फुलाये बल्लियों उछल पड़ती है। भले ही भोजन भर के लिये भी जेब में ईमानदारी का पैसा , जो संस्थान की ओर से दिया जाता है, किसी भी जनपद स्तरीय पत्रकार के पास न हो। यदि हम जुगाड़ तंत्र में माहिर न हो, ठेकेदार, कोटेदार, दुकानदार, मास्टर, वकील न हो और दलाल भी न हो, तो बताएं ये उपदेशक फिर हमारा पेट कैसे भरेगा। अखबार के मालिकान की ओर से मिलने वाले 5- 8 हजार रुपये में महीने भर का खर्च, जिसमें पूरे परिवार का भोजन, कमरे का भाड़ा,बच्चों की शिक्षा, दवा और अपनों की खुशी के लिये कुछ खरीदारी हम कर सकते हैं ?अखबार के दफ्तर जाने के लिये अपनी बाइक का खर्च, स्मार्ट फोन(मोबाइल) रख सकते हैं? कड़ुवी सच्चाई यही है कि इस सभ्य समाज के सबसे शोषित- पीड़ित प्राणी हम पत्रकार ही हैं। और इस समाज का सबसे कायर व्यक्ति मैं स्वयं को समझता हूं। जो अपने अथक परिश्रम के बदले रोटी, कपड़ा और मकान भर के भी पैसे की मांग कभी संस्थान से नहीं कर सका। इतनी महंगाई में एक वर्ष पूर्व तक साढ़े चार हजार रुपया वेतन मिलता था। अब उसका भी कुछ पता नहीं कि कब मिलेगा, क्या मिलेगा। मित्र कहते हैं कि कैसे रहते हो , क्या खाते हो और क्या पहनते हो। तकलीफ नहीं होती तुम्हें ऐसे काम से। अपने को इन पच्चीस वर्षों में बर्बाद कर के क्या मिला। एक छोटी सी पहचान यही न कि एक ईमानदार पत्रकार हो और जो अकेलेपन का दर्द सह रहे हो, अब कैसे झेल लोगोंं शेष जीवन का भार। सो, मुझे लगता है कि मैं सचमुच में कायर हूं। अपने हक- अधिकार की लड़ाई तक नहीं लड़ सका और दूसरों का दर्द अखबार में छापता रहा। सोच रहा हूं कि हमारी बिरादरी भी ऐसी ही क्या,हालांकि किसी पर दोषारोपण करने की तनिक भी मंशा मेरी नहीं है। पर आप ही बताएं की कभी अखबार अथवा चैनलों में पत्रकार संगठनों को भी अपने अधिकार के लिये दमदारी से आवाज उठाते आपने देखा है।अभी लेखपालों.का आठ दिनों तक धरना- प्रदर्शन समाचार पत्रों में छाया रहा। और भी कितने ही संगठनों की बात मोटे हेडिंग में हम छापते हैं । परंतु हम अपनी मांग अपने समाचार पत्र में नहीं छाप सकते। प्रेस के मालिकान और सम्पादक से पहले डेक्स इंचार्ज जो भी एक पत्रकार है, डपट देगा हमें। बागी बता संस्थान से बाहर निकाल देगा हमें। कितने भी वरिष्ठ पत्रकार क्यों न हो हम। एक बात और कहूं, चैनलों पर जो ऊंचे नाम वाले पत्रकार देखते हैं न , जो आम आदमी की समस्याओं को बखूबी उछालते हैं। टेलिविजन के स्क्रीन पर उनके आते ही फलां कुमार... हैं कह हम और आप सभी वाह! वाह भाई! कहने लगते हैं। मैं जानना चाहता हूं कि क्या कभी इन पहचान वाले पत्रकारों ने हम जैसे जिलास्तरीय किसी ईमानदार पत्रकारों का भी इंटरव्यू लिया कि चार- पांच हजार रुपये महीने में से कितना कमरे का किराया देते हो, कितना भोजन पर खर्च करते हो और बाकी की जरुरत के लिये पैसे कहां से लाते हो। हंसी आती है ऐसे तोप समझे जाने वाले पत्रकारों पर मुझे कि दूसरों का दर्द तो उन्हें नजर आता है, परन्तु अपने पत्रकार परिवार की पीड़ा नहीं दिखती और यदि दिखती है,तो उसे छोटे पर्दे पर दिखलाने की हिम्मत नहीं पड़ती है। कहीं मालिकान ऐसा करने पर उन्हें भी उनकी औकात न बता दें।
एक और बात कहनी है, पत्रकारिता के संदर्भ में शासन- प्रशासन के किसी भी अप्रिय निर्णय पर अकसर शोर मचता है कि यह तो प्रेस की स्वतंत्रता पर यह कुठाराघात है, पत्रकार एकता जिन्दाबाद- जिन्दाबाद। अरे भाई यह क्या पागलपन है ! हम पत्रकार स्वतंत्र कहां है, हमारी लेखनी स्वतंत्र है क्या ? हम तो अपने संस्थान के स्वामी की कठपुतली है साहब , बुरा न माने हमारे वरिष्ठ साथी। यही सच्चाई है इस पत्रकारिता जगत की कि हम पत्रकारों की कलम पूरी तरह से संस्थान की गिरफ्त में है। हमारे जनहित की खबरों से संस्थान का तनिक भी व्यवसाय फंसा कि उस पर कैंची लगी नहीं, हमारी क्लास लगनी शुरु हो जाती है। मैं तो मझोले समाचार पत्र से जुड़ा हूं, इसीलिये इस संदर्भ में बहुत नहीं झेलना पड़ा , परंतु बड़े अखबारों में कहीं अधिक पाबंदी है , मालिकान की तरफ से । सो, पत्रकार नहीं, मालिक जो चाहता है, वह छपता है । किस मुगालते में हैं हम। पत्रकारों (स्थायी, संविदाकर्मी, अंशकालिक) के संघर्ष की खबरें हम नहीं छाप सकते, तो भी कैसी आजादी है हमारी। कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत करके कच्चा माल हम जुटाते हैं और उसे तराशते हैं। लेकिन , हमारे इस पका पकाया भोजन को अखबार वाले हड़प लेते हैं। बदले में हमें पेट भरने जितना पैसा भी नहीं देते हैं।
पुरानी कहावत है न "कमाएगा लंगोटी वाला, खाएगा धोती वाला " , यही नियति है हम पत्रकारों का। हृदयहीन पूंजीपतियों के हाथों हम पत्रकारों की ऐसी स्थिति के बावजूद अपना पत्रकार बिरादरी ऐसा कोई बड़ा संघर्ष नहीं कर सका , जिससे हमारे जैसे जनपद स्तरीय पत्रकारों को भी कोई सुरक्षा छतरी मिल सके। वैसे, तो मजीठिया आयोग की डुगडुगी खूब बजी थी, इस मोदी सरकार में भी। पर लगता है कि सारा मामला ठंडे बस्ते में हैं। सच तो यही है कि हमहीं बुझदिल हैं। हमारे में ही वह साहस ही नहीं है कि एक दिन के लिये सामुहिक रुप से कलम न उठाने का संकल्प लें। ऐसा इसलिए कि बिन वेतन मुफ्त में जनपद स्तर पर पत्रकारिता करने के लिये धन सम्पन्न और जुगाड़ तंत्र में माहिर लोग तैयार बैठें हैं। फिर हमारे जैसे ईमानदार पत्रकार क्या करें पांच हजार की नौकरी में अपनी सारी इच्छाओं का गलाघोंट कर अंततः अवसादग्रस्त हो जाए, या फिर बेईमानी के दलदल में प्रवेश कर अपना स्वाभिमान गंवा दें। मैं इस समाज के पहरुओं से बस इतना ही जानना चाहता हूं।
यदि थोड़ी अपनी बात कहूं, तो वर्ष 1994 में पत्रकारिता से जुड़ा हूं। दिन भर के कड़े परिश्रम के बावजूद वेतन साढ़े चार हजार मात्र रहा। यह मीरजापुर जानता है कि समाचार संकलन करना, फिर उसे लिखना ,अखबार का बंडल लाना और साइकिल से फिर उसका वितरण इन सभी कार्यों को करने में सुबह 5 से रात 10-11 बजे तक श्रम करता रहा। परंतु जेब में इतना पैसा नहीं रहा कि कोई मेरा भी हमसफर होता। और अब अवस्था करीब 50 के आसपास है। संस्थान से जो साढ़े चार हजार रुपया मिलता था। वह भी कोई निश्चित नहीं रहा। सो, मेरे एक उदार हृदय वाले मित्र का यह बड़ा स्नेह है कि मैं उनके होटल में शरणार्थी सा पड़ा हूं। परन्तु मेरा मन मुझे धिक्कारता निश्चित ही है कि किस पेशे का चयन मैंने किया कि ठीक से रोटी ,कपड़ा और मकान भी नहीं मिला। और अब जब अत्यधिक श्रम के कारण शरीर असमर्थ होने लगा है, बुखार ने जबरन मित्रता कर ली है, तो जीवनयापन के लिये कोई आर्थिक सहारा नहीं। हां ,खुशकिस्मत बस इतना हूं कि उसी वेतन का एक हिस्सा मैंने इन 24 वर्ष में बचा लिया और बैंक से मिलने वाले उसी के ब्याज के पैसे से दो जून की रोटी की व्यवस्था कर पा रहा हूं।फिर भी रहने के लिये किराये के कमरे का बंदोबस्त इस धन से नहीं कर सकता। क्या यहीं ईमानदार पत्रकारों की दुनिया है ? मैं इस पहेली को तो नहीं समझ सका, परंतु जो भी नये लड़के मेरे सम्पर्क में आते हैं और मुझे ईमानदार पत्रकार कह मुझसे कुछ सिखना चाहते हैं। उनसे बस मैं इतना ही कहता हूं-
सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी।
वरिष्ठ ब्लॉग लेखिका श्वेता जी ने मुझसे कहा था कि थोड़ी तो उम्मीद की किरण होगी न कि जिसका डोर पकड़ मैं अपना जन जागरण जारी रख सकूं। मेरा विनम्र निवेदन है कि अखबार की दुनिया में यदि अपने परिजनों के आर्थिक सहयोग के बल पर हम पत्रकार मजबूत नहीं हैं, तो हमारी यही ईमानदारी हमें उस अवसाद रुपी दलदल में ले जाएगी। जहां फंसे हम जैसे पत्रकार भी " झूठे का बोलबाला , सच्चे का मुंह काला " की पुकार लगाते दिखेंगे।
यही चौथे स्तंभ का सच है साहब।
"अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे
जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे
कलम के सिपाही अगर सो गये तो,
वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे"
पत्रकारिता से जुड़े कार्यक्रमों में अकसर यह जुमला सुनने को मिल ही जाता है और हमारी बिरादरी 56 इंच सीना फुलाये बल्लियों उछल पड़ती है। भले ही भोजन भर के लिये भी जेब में ईमानदारी का पैसा , जो संस्थान की ओर से दिया जाता है, किसी भी जनपद स्तरीय पत्रकार के पास न हो। यदि हम जुगाड़ तंत्र में माहिर न हो, ठेकेदार, कोटेदार, दुकानदार, मास्टर, वकील न हो और दलाल भी न हो, तो बताएं ये उपदेशक फिर हमारा पेट कैसे भरेगा। अखबार के मालिकान की ओर से मिलने वाले 5- 8 हजार रुपये में महीने भर का खर्च, जिसमें पूरे परिवार का भोजन, कमरे का भाड़ा,बच्चों की शिक्षा, दवा और अपनों की खुशी के लिये कुछ खरीदारी हम कर सकते हैं ?अखबार के दफ्तर जाने के लिये अपनी बाइक का खर्च, स्मार्ट फोन(मोबाइल) रख सकते हैं? कड़ुवी सच्चाई यही है कि इस सभ्य समाज के सबसे शोषित- पीड़ित प्राणी हम पत्रकार ही हैं। और इस समाज का सबसे कायर व्यक्ति मैं स्वयं को समझता हूं। जो अपने अथक परिश्रम के बदले रोटी, कपड़ा और मकान भर के भी पैसे की मांग कभी संस्थान से नहीं कर सका। इतनी महंगाई में एक वर्ष पूर्व तक साढ़े चार हजार रुपया वेतन मिलता था। अब उसका भी कुछ पता नहीं कि कब मिलेगा, क्या मिलेगा। मित्र कहते हैं कि कैसे रहते हो , क्या खाते हो और क्या पहनते हो। तकलीफ नहीं होती तुम्हें ऐसे काम से। अपने को इन पच्चीस वर्षों में बर्बाद कर के क्या मिला। एक छोटी सी पहचान यही न कि एक ईमानदार पत्रकार हो और जो अकेलेपन का दर्द सह रहे हो, अब कैसे झेल लोगोंं शेष जीवन का भार। सो, मुझे लगता है कि मैं सचमुच में कायर हूं। अपने हक- अधिकार की लड़ाई तक नहीं लड़ सका और दूसरों का दर्द अखबार में छापता रहा। सोच रहा हूं कि हमारी बिरादरी भी ऐसी ही क्या,हालांकि किसी पर दोषारोपण करने की तनिक भी मंशा मेरी नहीं है। पर आप ही बताएं की कभी अखबार अथवा चैनलों में पत्रकार संगठनों को भी अपने अधिकार के लिये दमदारी से आवाज उठाते आपने देखा है।अभी लेखपालों.का आठ दिनों तक धरना- प्रदर्शन समाचार पत्रों में छाया रहा। और भी कितने ही संगठनों की बात मोटे हेडिंग में हम छापते हैं । परंतु हम अपनी मांग अपने समाचार पत्र में नहीं छाप सकते। प्रेस के मालिकान और सम्पादक से पहले डेक्स इंचार्ज जो भी एक पत्रकार है, डपट देगा हमें। बागी बता संस्थान से बाहर निकाल देगा हमें। कितने भी वरिष्ठ पत्रकार क्यों न हो हम। एक बात और कहूं, चैनलों पर जो ऊंचे नाम वाले पत्रकार देखते हैं न , जो आम आदमी की समस्याओं को बखूबी उछालते हैं। टेलिविजन के स्क्रीन पर उनके आते ही फलां कुमार... हैं कह हम और आप सभी वाह! वाह भाई! कहने लगते हैं। मैं जानना चाहता हूं कि क्या कभी इन पहचान वाले पत्रकारों ने हम जैसे जिलास्तरीय किसी ईमानदार पत्रकारों का भी इंटरव्यू लिया कि चार- पांच हजार रुपये महीने में से कितना कमरे का किराया देते हो, कितना भोजन पर खर्च करते हो और बाकी की जरुरत के लिये पैसे कहां से लाते हो। हंसी आती है ऐसे तोप समझे जाने वाले पत्रकारों पर मुझे कि दूसरों का दर्द तो उन्हें नजर आता है, परन्तु अपने पत्रकार परिवार की पीड़ा नहीं दिखती और यदि दिखती है,तो उसे छोटे पर्दे पर दिखलाने की हिम्मत नहीं पड़ती है। कहीं मालिकान ऐसा करने पर उन्हें भी उनकी औकात न बता दें।
एक और बात कहनी है, पत्रकारिता के संदर्भ में शासन- प्रशासन के किसी भी अप्रिय निर्णय पर अकसर शोर मचता है कि यह तो प्रेस की स्वतंत्रता पर यह कुठाराघात है, पत्रकार एकता जिन्दाबाद- जिन्दाबाद। अरे भाई यह क्या पागलपन है ! हम पत्रकार स्वतंत्र कहां है, हमारी लेखनी स्वतंत्र है क्या ? हम तो अपने संस्थान के स्वामी की कठपुतली है साहब , बुरा न माने हमारे वरिष्ठ साथी। यही सच्चाई है इस पत्रकारिता जगत की कि हम पत्रकारों की कलम पूरी तरह से संस्थान की गिरफ्त में है। हमारे जनहित की खबरों से संस्थान का तनिक भी व्यवसाय फंसा कि उस पर कैंची लगी नहीं, हमारी क्लास लगनी शुरु हो जाती है। मैं तो मझोले समाचार पत्र से जुड़ा हूं, इसीलिये इस संदर्भ में बहुत नहीं झेलना पड़ा , परंतु बड़े अखबारों में कहीं अधिक पाबंदी है , मालिकान की तरफ से । सो, पत्रकार नहीं, मालिक जो चाहता है, वह छपता है । किस मुगालते में हैं हम। पत्रकारों (स्थायी, संविदाकर्मी, अंशकालिक) के संघर्ष की खबरें हम नहीं छाप सकते, तो भी कैसी आजादी है हमारी। कड़ी मेहनत, दिमागी कसरत करके कच्चा माल हम जुटाते हैं और उसे तराशते हैं। लेकिन , हमारे इस पका पकाया भोजन को अखबार वाले हड़प लेते हैं। बदले में हमें पेट भरने जितना पैसा भी नहीं देते हैं।
पुरानी कहावत है न "कमाएगा लंगोटी वाला, खाएगा धोती वाला " , यही नियति है हम पत्रकारों का। हृदयहीन पूंजीपतियों के हाथों हम पत्रकारों की ऐसी स्थिति के बावजूद अपना पत्रकार बिरादरी ऐसा कोई बड़ा संघर्ष नहीं कर सका , जिससे हमारे जैसे जनपद स्तरीय पत्रकारों को भी कोई सुरक्षा छतरी मिल सके। वैसे, तो मजीठिया आयोग की डुगडुगी खूब बजी थी, इस मोदी सरकार में भी। पर लगता है कि सारा मामला ठंडे बस्ते में हैं। सच तो यही है कि हमहीं बुझदिल हैं। हमारे में ही वह साहस ही नहीं है कि एक दिन के लिये सामुहिक रुप से कलम न उठाने का संकल्प लें। ऐसा इसलिए कि बिन वेतन मुफ्त में जनपद स्तर पर पत्रकारिता करने के लिये धन सम्पन्न और जुगाड़ तंत्र में माहिर लोग तैयार बैठें हैं। फिर हमारे जैसे ईमानदार पत्रकार क्या करें पांच हजार की नौकरी में अपनी सारी इच्छाओं का गलाघोंट कर अंततः अवसादग्रस्त हो जाए, या फिर बेईमानी के दलदल में प्रवेश कर अपना स्वाभिमान गंवा दें। मैं इस समाज के पहरुओं से बस इतना ही जानना चाहता हूं।
यदि थोड़ी अपनी बात कहूं, तो वर्ष 1994 में पत्रकारिता से जुड़ा हूं। दिन भर के कड़े परिश्रम के बावजूद वेतन साढ़े चार हजार मात्र रहा। यह मीरजापुर जानता है कि समाचार संकलन करना, फिर उसे लिखना ,अखबार का बंडल लाना और साइकिल से फिर उसका वितरण इन सभी कार्यों को करने में सुबह 5 से रात 10-11 बजे तक श्रम करता रहा। परंतु जेब में इतना पैसा नहीं रहा कि कोई मेरा भी हमसफर होता। और अब अवस्था करीब 50 के आसपास है। संस्थान से जो साढ़े चार हजार रुपया मिलता था। वह भी कोई निश्चित नहीं रहा। सो, मेरे एक उदार हृदय वाले मित्र का यह बड़ा स्नेह है कि मैं उनके होटल में शरणार्थी सा पड़ा हूं। परन्तु मेरा मन मुझे धिक्कारता निश्चित ही है कि किस पेशे का चयन मैंने किया कि ठीक से रोटी ,कपड़ा और मकान भी नहीं मिला। और अब जब अत्यधिक श्रम के कारण शरीर असमर्थ होने लगा है, बुखार ने जबरन मित्रता कर ली है, तो जीवनयापन के लिये कोई आर्थिक सहारा नहीं। हां ,खुशकिस्मत बस इतना हूं कि उसी वेतन का एक हिस्सा मैंने इन 24 वर्ष में बचा लिया और बैंक से मिलने वाले उसी के ब्याज के पैसे से दो जून की रोटी की व्यवस्था कर पा रहा हूं।फिर भी रहने के लिये किराये के कमरे का बंदोबस्त इस धन से नहीं कर सकता। क्या यहीं ईमानदार पत्रकारों की दुनिया है ? मैं इस पहेली को तो नहीं समझ सका, परंतु जो भी नये लड़के मेरे सम्पर्क में आते हैं और मुझे ईमानदार पत्रकार कह मुझसे कुछ सिखना चाहते हैं। उनसे बस मैं इतना ही कहता हूं-
सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी।
वरिष्ठ ब्लॉग लेखिका श्वेता जी ने मुझसे कहा था कि थोड़ी तो उम्मीद की किरण होगी न कि जिसका डोर पकड़ मैं अपना जन जागरण जारी रख सकूं। मेरा विनम्र निवेदन है कि अखबार की दुनिया में यदि अपने परिजनों के आर्थिक सहयोग के बल पर हम पत्रकार मजबूत नहीं हैं, तो हमारी यही ईमानदारी हमें उस अवसाद रुपी दलदल में ले जाएगी। जहां फंसे हम जैसे पत्रकार भी " झूठे का बोलबाला , सच्चे का मुंह काला " की पुकार लगाते दिखेंगे।
यही चौथे स्तंभ का सच है साहब।
भीतर के सच को सतह पर लाने के लिए सादर आभार
ReplyDeleteआदरणीय शशि जी,
ReplyDeleteआपके बेबाक लेखन को नमन,आपकी कठिन साधना को सच्चे मन से मेरा प्रणाम है।
बहुत सम्मान के साथ कहना है कि पत्रकारिता का कड़ुआ सच उजागरकर आपने मेरी आँखों पर पड़ा परदे खींच दिया उसके लिए तहेदिल से शुक्रिया आपका।
पर जानते है आप कोई भी तपस्या कभी व्यर्थ नहीं जाती है, आपके अभावग्रस्त जीवन में जो ईमानदारी का लेबल है वो सम्मान आज आप जैसे खुशनसीब के पास ही है।
जी आप भी पत्रकार हैंं, आपकों भी लगता होगा कि हमारी कैसी यह चाकरी है। आप ब्लॉग पर आये। स्वागत है।
ReplyDeleteपत्रकारों के जीवन पर बेबाक लिखा है आपने, दरअसल आम जनता समझती नहीं है कि पत्रकारिता में कितनी कठिनाइयाँ हैं | इतनी मेहनत करने के बाद भी छपता वही है जो मालिक चाहता है | आँखे खोलने वाली पोस्ट
ReplyDeleteजी श्वेता जी धन्यवाद। सचमुच आपने सही कहा कि ईमानदारी का लेबल कभी व्यर्थ नहीं जाता, सो वह मेरे पास निश्चित ही है।
ReplyDeleteपर मेरा संघर्ष संस्थान और समाज से इस मुद्दे पर है कि या तो हमें ईमानदार रहने दो अथवा बेईमानी के मार्ग पर चलने दो।
पर दो नाव की सवारी के लिये विवश मत करों।
जी बिल्कुल जो मालिक चाहते हैं वही छपता है। लेकिन जनता समझती है कि हम पत्रकारों ने लेन देन खबर दबा दी है। धन्यवाद
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २० जुलाई २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जी श्वेता जी धन्यवाद, हमारे जैसे पत्रकारों का दर्द समाज के समक्ष अपने लोकप्रिय ब्लॉग के माध्यम से रखने के लिये।
ReplyDeleteआपके जज्बे को सलाम! दलाली कर तेल मलाई खाने वाले जितने भी आये सब अपनी अंतिम गति के बाद वक़्त के अंधियारे में वैसे ही बिला गए जैसे बच्चे के मुंह मे कागज की मिठाई। समय ने उसे ही याद रखा जिसने समाज को मूल्य दिए और उन्ही मूल्यों से यह संसार पोषित हो रहा है। ऐसे लोग संख्या में भले ही अत्यल्प हैं लेकिन इस समाज की दीर्घजीविता बस उन्ही महान आत्माओं का संकलन है और उसी संकल्प शक्ति से प्रदीप्त है आपके आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति! जबतक आप जैसे पत्रकार हैं तबतक प्रेमचंद की परंपरा जीवित है और तभी तक पत्रकारिता का वजूद है। नमन!!! ईश्वर से प्रार्थना कि यह भूमि आप जैसे कलमकारों से पट जाए।
ReplyDeleteधन्यवाद भाई साहब सच की राह पर चलने में एक आत्मसुख निश्चित ही हैं। आपने उचित कहा कि पहचान उसी की होती है, नाम उसी का लिया जाता है, जिसने आमजन को कुछ दिया। जैसे चहुंओर महाकवि नीरज जी की गूंज सुनाई पड़ रही है।
ReplyDeleteआजकल हर प्रोफेशन ऐसा हो गया है ... जिम्मेदारी तो डाक्टर. वकील टीचर सभी की है ... फिर पत्रकार की भी है ... पर हर कोई आज ढल रहा है आज के माहोल में ... ये सच है सच की राह में आत्मसुख है ...पर हाँ वाही है बस ... और कुछ नहीं ऐसे में ...
ReplyDeleteमन को लिख दिया आपने ...
जी भाई साहब सच की राह में आत्मसुख निश्चित है। पर पेट की भुख के समक्ष हर सुख बेमानी है। हम श्रमिक पत्रकारों का भी यही हाल है। आप ब्लॉग पर आये , यह देख हर्षित हूं।
ReplyDeleteकडवे सत्य को उजागर करता बेबाक लेख लेखक का कब से संचित दर्द जैसे बहने लगा । अद्भुत नमन।
ReplyDeleteजी शुक्रिया यह दर्द मेरे जैसे अनेक पत्रकारों का है, जो अपनी ईमानदारी को जुगाड़ तंत्र के समक्ष कमजोर पड़ते नहीं देख सकते, लेकिन, पेट की आग व्याकुल किये हुये है, जबकि सामने ही स्वादिष्ट पकवानों की थाली पड़ी। मन को बार बार समझाना पड़ता है कि ऐसे पकवान खा कर क्या करोगे, पेट खराब हो जाएगा ।
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई ब्लॉग जगत की सभी हस्तियों को यहाँ पाकर बहुत ख़ुशी हुई | हार्दिक बधाई आपको |
ReplyDeleteजी रेणु दी, मुझे भी बहुत अच्छा लगा कि एक नई पहचान इन ढ़ाई दशकों के संघर्ष में मिली है। इसका बहुत कुछ श्रेय आपको भी है। जिस कारण मैं मीरजापुर से बाहर की दुनिया देख पाया पुनः जिसके लिये बनारस से यहां आने के बाद एक छटपटाहट सी थी। सो, ट्रेन से न सही पर लेखनी के माध्यम से मीरजापुर से बाहर अब थोड़ा झांक- ताक कर ले रहा हूं। हां आप सभी के इन उत्साहवर्धन शब्दों से मेरी चुनौतियां भी बढ़ी है कि समाज के लिये कुछ तो लिखता रहूं। सच कहूं तो यदि ब्लॉग नहीं होता, तो पत्रकारिता जगत के इस संघर्ष को मैं उजागर भी न कर पाता।
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