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Tuesday 30 April 2019

आज श्रमिक दिवस है..


आज श्रमिक दिवस है
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ये दोस्त सुन लो तुम भी
यह दुनिया नहीं रहम की
करते रहो श्रम , मगर
अधिकार के लिये लड़ों भी

तक़दीर से लड़ो तुम
 तस्वीर को बदल दो
उन्नत है भाल तेरा
है भुजाओं में  दम भी

मज़दूरी नहीं शरम है
कृष्ण ने कहा ये कर्म है
 श्रम का करो अभिनंदन
 पुरुषार्थ है तेरा वंदन

परिश्रम से तेरे निर्मित
यह  पथ  और  महल है
टिकी है ये जो धरती
श्रमिकों का ही बल है

क़िस्मत में जिनके धन है
वे करते है तुझसे छल भी
 स्वामी नहीं  वे तेरे
 न सेवक हो तुमभी उनके

कर्म ही तेरी  पूजा और
संघर्ष  ये  तेरा धर्म है
खुशियाँ  हैं  इनमें  तेरी
न पीछे  हटे कदम फिर

मृगतृष्णा में न  फंसना
श्रमधार में बहते रहना
श्रमिकों की है ये दुनिया
सागर और  अम्बर भी

हैं  पकवान  ये उनके
पर रोटी  में तेरे दम है
ईमान  है इसमें  तेरा
बेइमान  हैं वे  वतन के

न काले गोरे का फ़र्क़ है
न आडम्बरों का भ्रम है
तेरी पीड़ा हो या आँसू 
दुख-अभाव सब सम है

हो रात स्याह जितनी
दीपक सा जलते रहना
रहबर बनो जगत में
तुम श्रम के प्रतिबिंब हो

फुटपाथ हो घर तेरा
और उनके लिये महल है
मेहनतकश हो तुम भी
ले कर रहो जो हक़ है

अधिकार के लिये जिसने
  खायी है गोली तन पे
नमन करो तुम उनको
आज श्रमिक दिवस है

न भूलों  हे क्रांतिवीरों
 यह जो जनतंत्र है
बलिदान पर टिका है
 इसमें भी तेरा रक्त है
 
    - व्याकुल पथिक



Friday 26 April 2019

वेदना से हो अंतिम मिलन


वेदना से हो अंतिम मिलन

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प्रीत का पुष्प  बन न सका

तू कांटों का ताज मुझे दे दो

खुशियों की नहीं  चाह मगर

वो दर्द का साज़ मुझे दे दो

न सपनों का  संसार मिला

तन्हाई हो वो रात मुझे दे दो

न प्यार मिला न इक़रार मिला

वो ज़ख्म जहां का मुझे दे दो

आंचल का तेरे  न छांव मिला

वेदना और संताप मुझे दे दो

 न  स्नेह की चाहत है तुझसे

   वो वैराग्य हमारा मुझे दे दो

यादों में अब ना आया करों

 एक और आघात मुझे दे दो

 वे न कहें इक भूल हैंं हम

  तिरस्कार तुम्हारा मुझे दे दो

कोमल न हो ये हृदय अपना

 यह वज्राघात मुझे दे दो

उपहास सहा,अब उपवास सहूं

तृप्त रहूँ, ये स्वांग मुझे दे दो

लूटे हुये अरमानों की कसम

  तुलसी-गंगा जल मुझे दे दो

जहाँ  फिर न कोई मीत मिले

  मरघट सा पावन तीर्थ दे दो

जलती हुई एक चिता हूँ मैं

 और भस्म हमारा उसे दे दो

वेदना  से हो  ये अंतिम मिलन

अब अनंत की राह मुझे दे दो

                - व्याकुल पथिक


Wednesday 24 April 2019

वेदना


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        वेदना जीवन की वह पाठशाला है , जिसके माध्यम से आत्मदर्शन प्राप्त होता है और हम अपने कर्मपथ, धर्मपथ यहाँ तक कि वैराग्य भाव के साथ मुक्ति पथ (निर्वाण) को प्राप्त कर सकते हैं।
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     इस बार का हमारा विषय है वेदना ।  यह वह मानसिक कष्ट, संताप है, जिससे मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही कभी- कभी बिखर जाता है। जब कभी स्नेह आहत होता है, किसी प्रियजन से वियोग होता है अथवा कटु वचन से स्वाभिमान को ठेस पहुँँचता है, तब हृदय में इसकी अनुभूति होती है।
      मेरा मानना है कि जिस भी मनुष्य में संवेदना है , उसमें वेदना निश्चित होगी। जब सिद्धार्थ ( महात्मा बुद्ध) को वृद्ध मनुष्य और शवयात्रा ने , वर्द्धमान (महावीर स्वामी ) को जातीय भेद, पशु बलि और अन्य सामाजिक कुरीतियों ने , महर्षि दयानंद सरस्वती को सतीप्रथा ने तथा मोहनदास कर्मचंद गांधी  को रेलयात्रा के दौरान अंग्रेजों की रंगभेद मानसिकता ने विकल कर दिया , तब इनके हृदय की इसी वेदना ने, इन्हें धर्म प्रवर्तक एवं महात्मा बना दिया।
  विवाह के पश्चात मूर्ख कालीदास को विदुषी पत्नी विद्योत्तमा के व्यंग्य वचन तथा तुलसीदास को  पत्नी रत्नावली के तिरस्कार ने इस तरह से वेदना दी कि इनका अन्तर्मन जागृति हो उठा। ध्रुव के साथ भी यही हुआ, सौतेली माँ के व्यंग्य वचन से उन्हें जो मानसिक कष्ट पहुँचा, उसका ही परिणाम रहा कि एक नन्हा बालक तप कर सर्वश्रेष्ठ नक्षत्र बन गया। एक वेदना वह भी है,जो भृतहरि को जन्म देती है। राग से विराग की उनकी यात्रा वेदना से मुक्ति के लिये एक प्रकाश स्तम्भ है।
   अतः वेदना हमें अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सकती है। वह हमें शीर्ष पर पहुँचाने का सामर्थ्य रखती है। जबकि हँसी- ठिठोली में लिप्त मनुष्य जनप्रिय हो सकता है, फिर भी विदूषक की श्रेणी में ही उसकी गिनती होगी, क्यों कि मानव के सर्वश्रेष्ठ गुण करुणा से वह वंचित है।
अतः यह संवेदना होनी चाहिए, हम मनुष्यों में-

 किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वासते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है..।

  इस तरह से देखें , तो मनुष्य में वेदना  मानवीय गुणों का विकास करती है।
   वेदना तब भी होती है, जब किसी अप्रत्याशित घटना में हम  अपने किसी प्रियजन को खो देते हैं। हमारे निर्मल स्नेह अथवा प्रेम के साथ छल, विश्वासघात और उपहास होता है, तब भी अत्यधिक कष्टदायी मानसिक पीड़ा होती है।
   यदि विरह वेदन की बात करूँ, तो इसे सूरदास ने  कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों  के माध्यम से कुछ इस तरह से परिभाषित किया है -

      उधौ मन नाहिं दस बीस ,
एकहु  तो सो गयो श्याम संग ,
को अराध तू ईस। (अब काहू राधे ईस )..
भई अति शिथिल  सबै माधव बिनु ,
यथा देह बिन सीस ,
स्वासा अटक रहे ,आसा लगि ,
जीव ही कोटि बरीस (वर्षों ).
तुम तो सखा श्याम सुन्दर के
सकल जोग के ईस !
सूरजदास (सूर श्याम )रसिक की बतियाँ ,
पुरबो (पूरा करो )  मन जगदीस।

    वेदना की यह शीर्ष स्थिति है। बिना अनुभूति के इसे समझना अत्यधिक कठिन है। उद्धव जैसे ज्ञानी पुरुष भी इसके समक्ष नतमस्तक हैं।
         मेरा मानना है कि वेदना जीवन की वह पाठशाला है , जिसके माध्यम से आत्मदर्शन प्राप्त होता है और हम अपने कर्मपथ, धर्मपथ यहाँ तक कि वैराग्य भाव के साथ मुक्ति पथ (निर्वाण) को प्राप्त कर सकते हैं। अपनी अनुभूतियों के आलोक में वेदना में वैराग्य का वह पथ दिख रहा है , जिसपर से गुजरने पर मग में क्या खोया और क्या पाया का बोध नहीं होगा।  आदि शंकराचार्य के निर्वाण-षटकम का यह श्लोक-

नमे मृत्युशंका नमे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म
 न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम |

      सदैव मेरा मार्गदर्शन करता है।  21वर्ष पूर्व जब मैं अत्यधिक अस्वस्थ था। अभिभावक के रूप में कोई नहीं था। अस्वस्थ्य शरीर के बावजूद कठोर श्रम करना पड़ता था। मेरी मनोस्थिति को समझ पत्रकारिता जगत में मुझे स्थापित करने वाले मेरे गुरु स्व० रामचंद्र तिवारी  ने कैसेट आदि शंकराचार्य का यह "अद्वैत दर्शन , जिसको पंडित जसराज ने रागों के राजा राग दरबारी में गाया है, मुझे लाकर दिया था।
    फिर भी मित्रों यह कहना चाहूँगा कि विरह वेदन का  उपचार इससे भी सम्भव तब तक नहीं है, जब तक हम वेदना के शीर्ष तक नहीं पहुँच जाएँ।  विचित्र मनोदशा है यह, जिस पीड़ा को कम करने के लिये रुदन आवश्यक प्रतीत होता है मुझे। रुदन ही हमें ऐसी वेदना में घुटन से बाहर निकालता है।
     वियोग अथवा स्नेह का तिरस्कार दोनों ही परिस्थितियों में  रुदन चित को शांति प्रदान करता है।
  " गबन " में प्रेमचंद  की लेखनी विस्मित कर देती है मुझे  , उन्होंने लिखा है -

" रुदन में कितना उल्लास, कितनी शांति, कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठ कर किसी की स्मृति में, किसी के वियोग में, सिसकसिसक और बिलखबिलख कर नहीं रोया, वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हँसिया न्योछावर है। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है। हँसी के बाद मन खिन्न हो जाता है। आत्मा क्षुब्ध हो जाती है। मानो हम थक गये हों। पराभूत हो गये हो। रुदन के पश्चात एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन , एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है।"
   
   इसलिये मैंने सदैव रुदन का समर्थन किया है। यह हर वेदना के लिये अचूक औषधि है। रुदन के पश्चात जो शांति और विरक्ति है। उसे वैराग्य की ओर ले जाना चाहता हूँ।
      अपनों के स्नेह से वंचित व्यक्ति अकसर देखा गया है कि दूसरों से प्रीति कर बैठता है। परंतु स्मरण रहे कि जो अपने नहीं है, हम यदि उनसे स्नेह करेंगे, तो  वे अपनी सुविधानुसार हमारे प्रति अपनत्व का प्रदर्शन कर भी दें, तब भी हम उनकी प्राथमिकता नहीं हैं। जैसा कि अकसर ही हम समझ लेते हैं। यही से एक वेदना जन्म लेती है। इस उपेक्षित स्नेह का उपचार रुदन के पश्चात विरक्ति ही है।
      पिछले कुछ दिनों यह विरक्त भाव मुझे कुछ इस तरह से मानसिक शांति प्रदान कर रहा है कि मानस पटल पर स्नेह एवं वेदना के वे पल चलचित्र की तरह छाये हुये हैं, फिर भी हृदय उसे ग्रहण नहीं कर रहा है। मन में यदि कुछ है,तो वह अपने आश्रम का सुखद स्मरण एवं गुरु की वाणी-
          माया महा ठगनी हम जानी...
    यदि सचमुच ऐसा ही है,तो मैं यह कहना चाहूँगा कि वेदना हमारे लिये वैराग्य पथ है। यही शांति पथ है।

.                               
- व्याकुल पथिक

Sunday 21 April 2019

हाँ , मैंने देखा श्रवण कुमार

 हाँ , मैंने देखा श्रवण कुमार
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     पढ़े लिखे सभ्य समाज में  हम पति-पत्नी और हमारे एक या दो बच्चे यह भावना , सयुंक्त परिवार पर भारी पड़ रही है। सो, उसके बिखरते ही  इस छोटे कथित खुशहाल परिवार की संवेदनाओं में कमी आती जा रही है।
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     आज सुबह मैंने श्रवण कुमार को देखा। उस युवक की मातृभक्ति देख कर मेरा पांव अचानक तेलियागंज तिराहे पर ठिठक गया। मेरे जैसे यतीमों के लिये उस खुशी की अनुभूति कर पाना फिलहाल सम्भव नहीं है और कल्पनाओं में जाकर कुछ लिखने की अपनी आदत नहीं है। पत्रकारिता धर्म ही कुछ ऐसा है कि हम सभी को अमूमन आँखों देखा हाल बताना पड़ता है। फिर भी जब कभी ऐसे दृश्य राह चलते देखने को मिल जाते हैं ,  तो अपने विरक्त हृदय से कहता हूँ कि मित्र कुछ पल के लिये ही सही दूसरों की खुशियों के साक्षी तुम भी बन जाओ।
    इस अर्थ युग में संयुक्त परिवार का बिखराव जिस तरह से हुआ है। उसमें हम दोनों और हमारे बच्चे ,यह सोच विकसित हो गयी है। माता- पिता और भाई- भतीजे के लिये स्थान इस तथाकथित सुखी परिवार के दायरे में नहीं है।
  कभी पति की नौकरी, तो कभी बच्चों की पढ़ाई , कारण जो भी हो ,लेकिन वृद्ध सास-ससुरा अपनी पुत्रवधू के हाथों से निर्मित भोजन से अंततः वंचित तो हो ही जाते हैं , जबकि हर सास की जो पहली इच्छा रहती है, वह यही न कि बहू आएगी तो उसकी सेवा करेगी। सास- बहू के लड़ाई- झगड़े अलग बात है।
    लेकिन, आज मैंने जिस श्रवण कुमार को देखा वह अपनी वृद्ध माँ को व्हील चेयर पर बैठा कर प्रातः भ्रमण करवा रहा था नगर की सड़कों पर। मैं कभी उस माँ को , तो कभी उस लायक पुत्र को अपलक निहार रहा था, जब तक वे रतनगंज की ओर बढ़ न गये। सोचता हूँ कि उसकी माँ के आशीष की वर्षा होती होगी उसपर ? वृद्ध माता- पिता के लिये थोड़ा समय निश्चित ही होना चाहिए उनके बच्चों के पास । प्रतिदिन एक और दृश्य संकटमोचन मार्ग पर देखता हूँ, वह यह कि एक वृद्ध व्यक्ति का हाथ पकड़ सम्भवतः उसकी पुत्री  प्रातः भ्रमण पर निकलती है। वह बहुत ही सावधानी के साथ इस वृद्ध को उस क्षेत्र का भ्रमण कराती है।
 मानों यह संदेश दे रही हो कि बेटा नहीं तो क्या बेटी भी किसी से कम नहीं है।  कभी- कभी मन होता है कि ऐसे दृश्यों को कैमरे में कैद कर , उसे समाचार पत्र में प्रकाशित करूँ, परंतु न जाने क्यों , किस संकोच में पांव ठिठक जाते हैं। परंतु अधिकांश अखबारों में भी ऐसी भावनात्मक खबरों को कहाँ स्थान मिलता है। वहाँ तो फुलझड़ी- पटाखे चाहिए, इलेक्शन है न, तो राजनीति के ऐसे मसाले हम जैसे पत्रकारों को ढ़ूंढने पड़ते हैं। अन्यथा पाठक कहेंगे की मजा नहीं आया , आज तुम्हारे मीरजापुर पेज वाले कालम को पढ़ कर।
      परंतु आज मेरा मन सुबह जहाँ इन वृद्ध जनों के "श्रवण कुमार" को देख आह्लादित रहा, वहीं शाम होते होते वह अपने बचपन , अपने अभिभावकों की स्मृतियों में डूबने लगा। माँ के प्रति तो मैंने अपने सारे कर्तव्य पूरे किये, परंतु बाबा और दादी के लिये कुछ नहीं कर सका था मैं । यहाँ तक की मैं उनके अंतिम संस्कार के समय मौजूद भी नहीं रहा । वैसे तो मैं अपने मौसा जी , पिता जी और छोटी बहन का भी अंतिम दर्शन नहीं कर पाया था । परंतु दादी और बाबा के प्रति मेरा विशेष कर्तव्य था और उस दायित्व का निर्वहन तब मैं नहीं कर सका , जब लगभग 20-21 वर्ष का एक बेरोजगार युवक था । मान- सम्मान भरे जीवन की तलाश मैं कालिम्पोंग और मुजफ्फरपुर चला गया था।

  अतः मुझे यह आशीष अब देने वाला कोई नहीं है -

तुझे सूरज कहूं या चंदा, तुझे दीप कहूं या तारा
मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राज दुलारा
मैं कब से तरस रहा था, मेरे आँगन में कोई खेले
नन्ही सी हँसी के बदले, मेरी सारी दुनिया ले ले
 तेरे संग झूल रहा है, मेरी बाहों में जग सारा
आज उँगली थाम के तेरी, तुझे मैं चलना सिखलाऊँ
कल हाथ पकड़ना मेरा, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ
तू मिला तो मैंने पाया, जीने का नया सहारा
मेरे बाद भी इस दुनिया में, ज़िंदा मेरा नाम रहेगा
जो भी तुझ को देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा
तेरे रूप में मिल जायेगा, मुझको जीवन दोबारा
मेरा नाम करेगा रौशन...

      मेरा अस्तित्व, मेरी पहचान, मेरी मृत्यु के साथ समाप्त हो जाएगी। अकसर हास्य परिहास में मित्रगण कहते हैं कि तुम्हारा अंतिम संस्कार कौन करेगा ? तो मैं मुस्कुराते हुये जवाब देता हूँ कि जब मैं  अपनी माँ की मृत्यु के बाद किसी की शवयात्रा में सम्मिलित ही नहीं हुआ, तो मेरा भी कोई मत करना। जल प्रदूषण के लिहाज से माँ गंगा के गोद में  लवारिस शवों को अब फेंका नहीं जाता । हाँ , इच्छा तो है कि पारसी जनों की तरह ही मेरे शव को मांसाहारी पशु- पक्षियों को सौंप दिया जाए, परंतु यह भी कौन करेगा। अतः नेत्रदान के पश्चात बिजली वाले शवदाह गृह में उसे दे दिया जाए। मृत्यु के पश्चात दावत भोज मुझे पसंद नहीं है। मेरा मानना है कि यह उत्सव उसके लिये हो, जो महावीर और बुद्ध की तरह महानिर्वाण को प्राप्त करता है। जिसने जन कल्याण के लिये कुछ किया ?
      मैं अभी तक वैराग्य के पथ पर अग्रसर नहीं हो सका हूँ। इस जीवन में रह-रह कर न जाने क्यों भ्रमित हो जाता हूँ कि कोई मुझसे भी स्नेह करता है, जबकि ऐसा है नहीं । मैं किसी की जिम्मेदारी नहीं हूँ। मैंने कितनी ही रातें बिना भोजन के गुजार दिये। उस तन्हाई में किसी की आवाज नहीं सुनाई दी। मैं भलिभांति जानता हूँ कि मेरे स्नेह का कोई महत्व नहीं है, किसी व्यक्ति विशेष के लिये। जब भी कभी मैं यह सोच लेता हूँँ कि कोई मेरा भी ध्यान रख रहा है,एक नयी वेदना हृदय में जन्म लेती है, क्यों कि औरों के लिये मैं एक भूल से अधिक कुछ भी नहीं हूँ।
     इधर, कुछ दिनों से मुझमें पुनः वैराग्य का भाव जागृत हो रहा है। मानो वह कह रहा हो, अब मत भटको।
  लेकिन, इस मोहजाल से मुक्ति मुझे किसी आश्रम में जाकर ही मिल सकती है। परंतु गुरु की कृपा बार- बार नहीं होती। मैंने यह अवसर खो दिया है। हर व्यक्ति को उसकी नियति एक अवसर अवश्य देती है ,ताकि लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
   पत्रकारिता में भी मुझे एक अवसर मिला था, जब मैं लखनऊ अथवा दिल्ली जैसे महानगरों में जा अपनी प्रतिभा  परखता। तब मुझे अपने उस अखबार से मोह हो गया था,जिसने मुझे बेरोजगार कहलाने के कलंक से मुक्त किया था।  यह सब उल्लेख मैं इसलिये करता हूँ कि मेरी अनुभूति किसी का मार्गदर्शन कर सके, तो यही मेरा मुक्ति पथ होगा ?

       आज सुबह जब कलयुग में श्रवण कुमार का दर्शन किया, तब संयुक्त परिवार की भी याद हो आई। वह एक - डेढ़ वर्ष जो मुजफ्फरपुर में मैंने बिताया था। मौसा जी चार भाई थें और सभी का काम-धंधा और चूल्हे अलग होने के बावजूद भी संयुक्त परिवार सा ही वातावरण था। मैं हाईस्कूल के बाद अपनी मौसी के यहाँ चला गया था। कितने ढेर सारे बच्चे थें हमलोग वहाँ,  बबलू भैया, पप्पू, गुड़िया, राजेश , अमित, राखी, वंदन, रंजना, गोलू, रिक्की और सोनी और स्वीट , सभी के नाम आज भी मुझे याद है। छत पर हम खूब खेला करते थें । गुड़िया से मेरी अधिक पटती थी। मैं किसी भी मौसी के कमरे में निःसंकोच चला जाया करता था। और मौसी जी के सास- ससुर का भी अच्छा दबदबा था। छठ, होली और दीपावली जैसे पर्व- त्योहार पर तो पूछे ही नहीं कि एक साथ रहने के कारण वे कितने आनंद के दिन थें।
     परंतु पढ़े लिखे सभ्य समाज में  हम पति- पत्नी और हमारे एक या दो बच्चे यह भावना , सयुंक्त परिवार पर भारी पड़ रही है । सो, उसके बिखरते ही  इस छोटे कथित खुशहाल परिवार की संवेदनाओं में  कमी आती जा रही है। ऐसे जेंटलमैनों से मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि सुखी जीवन के इस नये फार्मूले से वह खुशियाँ नहीं मिलेगी, जिससे लगे कि मानव जीवन एक उत्सव है ?
    अन्यथा तो फिर-

मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा
धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा ..

        उस स्त्री की तरह जिसे मैं पुरानी अंजही में प्रतिदिन सुबह घर के समीप टहलते देखता हूँ। उसकी उदासी ने उसे समय से पूर्व वृद्धावस्था में ला खड़ा किया है। वह अविवाहित है ।भाई-भाभी और उनके बच्चे सभी हैं, फिर भी मनमीत के बिना जीवन उसका उत्सव पर्व नहीं बन सका है। बिल्कुल गुमशुम रहती है वह।

                         - व्याकुल पथिक

Friday 19 April 2019

याद आई एक कहानी भूली बिसरी



आम ,टिकोरा और गुरम्मा में छिपा वो स्नेह
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"आम का गुरम्मा बनाएँ न आप , देखें तो बाजार में कच्चा आम आ गया है।"
      बनारस में था तो जैसे ही घर के समीप सब्जी मंडी में आम का टिकोरा दिखता था। घर पर मेरी यह जिद्द शुरु हो जाती थी। भले ही टिकोरा गुरम्मा ( गुड़म्बा ) बनाने के उपयुक्त न हो तब भी।
     माँ, मम्मी और मौसी  तीनों को ही पता था कि मुझे मिठाइयों से भी अधिक प्रिय गुरम्मा लगता है। हाँ,नियति का यह भी एक उपहास है कि उसी गुरम्मा के स्वाद को अब लगभग भूल ही चुका हूँ। अपनी स्मृति को टटोल रहा हूँ , जिह्वा  से पूछ रहा हूँ  कि मित्र याद आया कुछ, उस गुरम्मे की मिठास तो तुझे बहुत पसंद था न ?
   मैं भी न .. इस बेचारे को किस धर्मसंकट में डाल रखा हूँ। घर- परिवार है कहाँ , जो उसे गुरम्मा का स्वाद याद रहे। इसे यही समझाने में पिछले वर्ष से लगा हूँ -

रूखी सूखी खाय कै ठंडा पानी पीव ।
देख पराई चूपरी मत ललचावे जीव  ॥

  और समझता हूँ कि परिस्थितिजन्य कारणों से ऊपर उठ कर मेरी स्वाद इंद्री ने इसे स्वीकार कर ली है । किसी तरह के स्वादिष्ट व्यंजन  की कोई अभिलाषा नहीं है मुझे। दो वक्त की रोटी न हो, तो भी दूध- ब्रेड से काम चल जाता है।

   लेकिन,  टिकोरे पर रचना मांगी गयी, तो यह पाजी मन फिर से बचपन की मधुर स्मृतियों को छेड़ने लगा। टिकोरे से लेकर आम  तक की अनेक दास्तान चेहरे पर क्षणिक मुस्कान के साथ गहरी उदासी ले आयी। वह भूली बिसरी जीवन की कहानी फिर याद हो आई।
    अपनी बात बनारस से ही शुरू कर रहा हूँ , तब हम सभी को घर में घड़े का ठंडा पानी , आम के टिकोरे की चटनी,  गुरम्मा और  पन्ना आदि का सेवन तब तक वर्जित था, जब तक शीतला अष्टमी ( बसौड़ा) का पूजन नहीं हो जाता था। यह पर्व होली के पश्चात पड़ता है। अतः गुरम्मा खाने के लिये मुझे धैर्य रखना पड़ता था। प्रतीक्षा की घड़ी बसौड़ा के दिन जैसे ही समाप्त होती थी, मैं गुलगुले और गुरम्मा पर टूट पड़ता था । इस दिन बासी भोजन की मान्यता है। अतःभोर होने से पूर्व ही  कच्चा- पक्का दोनों ही तरह के विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन तैयार हो जाता था।
    शीतला माता , जो की स्वास्थ्य की देवी हैं , के पूजन तब वैज्ञानिक महत्व था,जब आधुनिक स्वास्थ्य चिकित्सा उपलब्ध नहीं था।  उनके पूजन के लिये  हेतु दो  छोटे -छोटे घड़ों को खूब सुंदर सजाया जाता था। साथ ही उनसे सटाकर दो लोढ़ा भी रखा जाता था।नयी साढ़ी एवं चुंदरी से महिला जैसी दो आकृति तैयार कर हल्दी, सिंदूर , पुष्प सहित अन्य सामग्रियों से इन्हें भी सजाया जाता था। बाद में एक साड़ी मम्मी और दूसरी दादी ले लिया करती थीं। कोलकाता (ननिहाल) से  हम दोनों भाइयों को सोने  की सिकड़ी मिली थी साथ ही शीतला माता की आकृति वाले सोने का लाकेट भी जो लाल डोरे में था। पूजा के बाद जब मैं उसे पहनता था तो खुशी से उछलते हुये कितनी ही बार दरवाजा खोल घर से बाहर जाने का प्रयास करता था। जिसके लिये डांट भी पड़ती थी । अभिभावकों को भय था कि कहीं बाहर इन आभूषणों को कोई छीन न ले मुझसे। जिस दिन हम दोनों भाइयों की और अपनी भी सिकड़ी तुड़वा कर मम्मी ने अपने लिये कंगन बनवा लिये थें, उस दिन मन मेरा कितना उदास था पूछे नहीं, क्यों कि इसमें माँ का प्यार था, यही उनके द्वारा दिया गया आखिरी आभूषण था, परंतु मम्मी की भी अपनी आवश्यकता थी न। यह बात उन दिनों घर पर अपना विद्यालय नहीं खुला था। आर्थिक स्थिति पापा की बहुत अच्छी नहीं थी। एक प्राइवेट स्कूल में वे शिक्षक थें और ट्यूशन पढ़ाया करते थें।
    ऐसे में हम तीनों भाई- बहन को प्रतिदिन आम मिलना कठिन था। सो, छोटे देशी अधपके आम को पापा लाते थें और हम उसे पुआल में रख देते थें। पकने पर बड़े स्वादिष्ट होते थें वे आम।
   हाँ , जब कोलकाता में था, तो आम शुरु से अंत तक प्रतिदिन बाबा भेजा करते थें। बीमार माँ किसी तरह से आधा पराठा और आम के कुछ टुकड़े खा लिया करती थीं। माँ को बहुत पसंद था आम। याद है मुझे अब भी की वहाँ गुलाब खास प्रजाति का आम जैसे ही बाजार में आता था। घर पर उसे आना ही था। लंगड़ा आम से कहीं अधिक हेमसागर आम सभी को पसंद था। बाबा मुझे इसे लगड़े का बाप- दादा कह कर चिढ़ाया करते थें, क्यों कि मैं तो बनारसी लगड़ा आम  का प्रेमी था। यहाँ मीरजापुर में दशहरी आम अधिक पसंद किया जाता है। इसके पश्चात चौसा आम आता है।
   मुजफ्फरपुर में था, तो मौसी जी भी मेरे लिये गुरम्मा बना दिया करती थी। कुछ वर्षों पूर्व जब वे आयी थीं, तो आम का खट्ट मिठा आचार भी लेकर आयी थी। प्यारे ( मेरा उपनाम) के लिये यह उनका विशेष स्नेह रहा।
    खैर, अब गुरम्मा तो नहीं मिलता , लेकिन आम जो उपलब्ध है , उसमें भी मुझे रूचि नहीं है। लगता है कि विपरीत परिस्थितियों में यह सम्वेदनशील हृदय स्वयं के लिये पाषाण सा बन गया है और जीवन का सारा मिठास नियति के पांव तले कुचलते चला गया।
वह गीत है न-
 एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है
मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने
और बरबाद किया क़ौम के अय्याशों ने
तेरे दामन में बता मौत से ज़्यादा क्या है
जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है
देखते-देखते दुनिया ही उजड़ जाती है
मेरी कश्ती तेरा तूफ़ान से वादा क्या है
 तूने जो दर्द दिया उसकी क़सम खाता हूँ
इतना ज़्यादा है कि एहसाँ से दबा जाता हूँ
मेरी तक़दीर बता और तक़ाज़ा क्या है
मैने जज़्बात के संग खेलते दौलत देखी
अपनी आँखों से मोहब्बत की तिजारत देखी
ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रखा क्या है...

         मुकेश द्वारा गाये इस गाने को बार- बार सुनने की इच्छा,मानो मेरी कभी समाप्त  ही नहीं होती है।

       लेकिन , इस दर्द से ऊपर अपना पत्रकारिता धर्म है। आमजन से जुड़े मुद्दे को अपनी लेखनी के माध्यम से उठाता रहूँ । हमारा कर्म पथ चाहे कितना भी कठोर हो, समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुये , जब हम अग्निपथ से होकर गुजरेंगे , तभी धर्मपथ की प्राप्ति होगी। इस सृष्टि में जो जीवधारी हैं, उनके प्रति  हृदय में संवेदना हो। यह मानवीय धर्म कायम रहे। नियति से इतनी ही प्रार्थना है ।

   फिर भी जब अपनों के लिये यह मन बावलों की तरह छटपटाहट है,तो उसे याद दिलाना पड़ता है, कुछ इस तरह -

वहाँ कौन है तेरा,मुसाफ़िर, जायेगा कहाँ
दम लेले घड़ी भर, येछैयां, पायेगा कहाँ
बीत गये दिन, प्यार के पलछिन,सपना बनी वो रातें
भूल गये वो, तू भी भुला दे, प्यार की वो मुलाक़ातें
सब दूर अन्धेरा ,मुसाफ़िर जायेगा कहाँ
कोई भी तेरी, राह ने देखे, नैन बिछाए न कोई
दर्द से तेरे, कोई ना तड़पा, आँख किसी की ना रोई
कहे किसको तू मेरा, मुसाफिर जाएगा कहाँ
कहते हैं ज्ञानी,दुनिया है फ़ानी, पानी पे लिखी लिखायी
है सबकी देखी, है सबकी जानी, हाथ किसी के न आयी
कुछ तेरा ना मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ..

    स्नेह, अपनत्व एवं समर्पण की भावना से वंचित मनुष्य के नेत्रों में छिपी अश्रुधारा को हंसी- ठिठोली करने वाले भद्रजन कभी नहीं देख सकेंगे । उनकी मित्रता आपके लिए चार दिनों की चांदनी वाली साबित होगी और फिर जब आपको यह आभास होगा कि उनमें आपके प्रति किसी तरह की संवेदना नहीं थी। आप उनके लिए एक मनोरंजन के साधन मात्र थें। तब  जो अंधकार आपके हृदय पर छा जाएगा, वह
रात की इस तन्हाई में और भी भयावह होता जाएगा, कुछ इस तरह-

रौशनी हो न सकी लाख जलाया हमने
तुझको भूला ही नहीं लाख भुलाया हमने
 मैं परेशां हूँ मुझे और परेशां न करो
  किस कदर जल्द किया मुझसे कनारा तुमने
 कोई भटकेगा अकेला ये न सोचा तुमने
 छुप गए हो तो कभी याद ही आया न करो
 मुझ को इस रात की तनहाई में आवाज़ न दो
 जिसकी आवाज़ रुला दे मुझे वो साज़ न दो
 आवाज़ न दो...

   जीवन में जो खुशियाँ हैं,वह अपने परिवार के सदस्यों संग ही मिलती हैं। अन्यथा आप किसी अन्य की जिम्मेदारी नहीं हैं । गुरम्मा की बात तो छोड़े , कोई आपसे यह भी नहीं पूछेगा कि आज दो वक्त रोटी मिली या नहीं , चाहे आप उससे कितना भी स्नेह करते हो , फिर भी वो गीत है न-

वो औरत है मैं महबूबा
वो सब कुछ है मैं कुछ भी नहीं..।

 शुभ रात्रि,फिर मिलेंगे।

                 - व्याकुल पथिक

Tuesday 16 April 2019

जियो और ​जीने दो

 
जियो और ​जीने दो
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  भगवान महावीर स्वामी की जयंती को दृष्टिगत कर  यह लेख मैंने पिछले तीन दिनों से लिख रखा है । आज ब्लॉग पर इसे पोस्ट कर रहा हूँ। यह मेरे मन का एक भाव है। कृपया इसे किसी धर्म अथवा व्यक्ति विशेष पर कटाक्ष न समझें  ।
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      नगर के संकटमोचन मंदिर मार्ग पर पिछले दिनों सुबह पुनः वध से पूर्व किसी मुर्गे की आखिरी पुकार सुन मेरा हृदय कुछ पसीज सा गया। यह जानते हुये भी कि नियति ने हर प्राणी के लिये मृत्यु दण्ड तय कर रखा है। वह उसी तरह से निष्ठुर है , जिस तरह से कोई वधिक जो कि बकरे का पालन पोषण तो करता है, परंतु अपने हित में उसके गर्दन पर छूरा भी चलाता है, तब उसके हृदय में तनिक भी संवेदना नहीं जगती।  बेचारे बकरे को पता भी नहीं चल पाता कि उसके पीठ को सहलाने वाले हाथ कब उसके मुख को जकड़ लेते हैं । मौत का खूंखार पंजा भी ऐसा ही होता है ? इन अबोध जानवरों की तरह हम मनुष्य भी उसे देख - समझ नहीं पाते हैं।
      नवरात्र पर्व समाप्त होते ही ,मांस- मछली की दुकानों पर ग्राहकों की पुनः बढ़ी चहल-पहल को देख, वहीं  एक प्रश्न फिर से मेरे मन में उठा कि यह कैसे देवी भक्त हैं ।  यदि वे अपने अधिकांश आराध्य देवों को निरामिष भोज्य सामग्री प्रसाद के रुप में अर्पित करते हैं , स्वयं भी विशेष पर्व और प्रमुख दिनों जैसे मंगलवार, वृहस्पतिवार अथवा शनिवार मांस- मदिरा से दूर रहते हैं, सात्विक आचरण का प्रदर्शन करते हैं। तो सामान्य  दिनों में वे ऐसे पदार्थों को ग्रहण कैसे करते हैं। वे जीव हत्या के निमित्त क्यों बनते हैं। उन्हें मांस - मछली खरीदते समय वध के दौरान क्या कभी इन निरीह प्राणियों की करार और छटपटाहट का एहसास नहीं होता है ? अन्य बहुत से धर्मों की बात इसलिये मैं नहीं करता ,क्यों कि वहाँ किसी उपासना पर्व अथवा दिन मांसाहारी भोजन सम्भवतः वर्जित नहीं है। साथ ही कुछ धर्म का मानना है कि मनुष्य को छोड़ अन्य प्राणी में रूह नहीं रहता। लेकिन, हिन्दू धर्म तो चौरासी लाख योनियों की बात करता है। जीवात्मा इनमें भटकती है, फिर  पशु वध क्यों ?
      मुझे ऐसे लोगों से चिढ़न सी होती है, जो पूजा- पाठ तो खूब करते हैं और विशेष दिनों को छोड़ मांस-  मदिरा का सेवन करते हैं।
   कालिम्पोंग में था, तब वहाँ एक कश्मीरी पंडित पड़ोस में रहा करते थें। महाराष्ट्र की उनकी पत्नी अत्यंत धार्मिक थीं । लेकिन पति परमेश्वर के लिये मुर्गा पकाया करती थीं। मैं अकसर कहता था उनसे कि क्या अंकल आप भी कितने विचित्र हैं, कभी तो सोचा करें कि आंटी जी को कैसा महसूस होता है। वे चम्मच ,कांटे और चिमटे से किसी तरह से मांस को पकड़ कर उसे पकाया करती थीं। मांस के टुकड़े को हाथ लगाने में उन्हें मानसिक कष्ट पहुंचता था। लेकिन शाम को जब अंकल मस्ती में होते थें, तो कहते थें कि तुम दोनों बिल्कुल पागल हो , कभी टेस्ट कर के देखों इसकी यह टांग , बढ़िया से बढ़िया भोजन भूल जाओगे।
     अपनी ही पत्नी की भावनाओं के प्रति उनमें मानो कोई संवेदना थी ही नहीं। बड़े- बुजुर्गों से मैंने भी यही सुना है कि मांसाहारी लोगों के हृदय में वैसी कोमलता, दूसरों के प्रति संवेदना और   अन्य प्राणियों के प्रति दया का भाव नहीं रहता है। दूसरों के दर्द और उसके रूदन का वे यह कह उपहास उड़ाते हैं कि खाओ पियो ऐश करो । मुझे नहीं पता ऐसी धारणा में कितनी सच्चाई है।

वहीं , "  जीवो जीवस्य भोजनम् " की बात कह  मांसभक्षी लोग अकसर ही यह कुतर्क कर बैठते हैं कि इसके लिये तो शास्त्र भी अनुमति देता है।
     खैर , मैं भी चुटकी लेता था कि अंकल जी क्यों नहीं फिर इसे प्रसाद के रुप में ठाकुर बाड़ी में चढ़ा आते हैं। आपके भी देवी- देवता प्रसन्न हो जाएँगें न ? और अंकल जी का गुस्सा फिर देखते ही बनता था ।
    आज भी मैं अपने ऐसे कुछ मांसाहारी मित्रों से, जो मंगलवार , शनिवार अथवा नवरात्र का नाम लेते हैं, से कहता हूँ कि सत्तर चूहे खा कर बिल्ली बनी भक्तिन ।
    हममें यह हँसी- ठिठोली होती रहती है आपस में ।

  अपने विंध्यक्षेत्र  की बात करूँ, तो जब मानव सभ्यता विकसित नहीं हुई थी। मांसाहार पर ही जीवन निर्वहन करना पड़ता था ,तब पशुओं का वध कर स्थानीय कोल- भील उसे अपने स्थानीय देवी- देवता को अर्पित करने लगे थें। लेकिन, जब मानव सभ्यता- संस्कृति का विकास हुआ और धर्म ग्रंथों की रचना हुई ,तो सात्विक गुणों को मानव जीवन में प्रमुखता दी गयी ।
 पशुओं की बलि काली और भैरव को दी जाती है। यह वाममार्गी पूजन बिल्कुल अलग है । इससे जुड़े साधक  नवरात्र में महानिशा पूजन  करते हैं। वे पंच मकार विधि (मांस , मदिरा, मत्स्य ,मुद्रा, मैथुन) से अपनी अधिष्ठात्री देवी को प्रसन्न करते हैं । वैसे, वाममार्गी उपासना स्थल प्रमुख रूप से 4 हैं . जिन्हें चार सिद्ध पीठ कहा जाता है। जिनमें  से राम गया घाट ,विंध्याचल के शिवराम में है। महिवग्राम  बिहार में , श्रीरामपुर  बंगाल में और  मणिकर्णिका घाट वाराणसी का उल्लेख है। यहां रामगया घाट के समीप ही दक्षिणाभिमुख भगवती तारा देवी का मंदिर है ।यह तंत्र साधना स्थल है । यहां गंगा नदी का किनारा , श्मशान भगवती शिवलिंग और बिल्वपत्र भी है एकांत स्थान है। कामरूप कामाख्या माया बंगाल नगरी के बाद विंध्याचल स्थित तारा देवी पीठ , भैरव कुंड एवं काली खोह तंत्र साधना के अद्भुत एवं फलप्रद स्थल हैं । ऐसी मान्यता है कि तारा देवी महालक्ष्मी रूपा विंध्यवासिनी देवी की सेवा करती हुई उनके भक्तों को आकर्षण एवं विकर्षण जैसे अलौकिक एवं तांत्रिक भव बाधाओ से मुक्ति दिलवाती हैं। वाममार्ग में सर्वोत्तम तंत्र श्रीयंत्र को माना जाता है। साधक श्री यंत्र की ज्यामिति रचना करके उसकी विधिवत पूजन करते हैं । वैसे तो प्राचीन काल में निशा पूजन में नरबलि तक की मान्यता थी परंतु अब बकरा, मुर्गा, कबूतर ,नारियल, जायफल, कोहरा आदि की बलि दी जाती है। वैसे , यहाँ विंध्यवासिनी धाम में भी प्रतिदिन एक पशु की बलि आज भी दी जाती है।
    बचपन में हम सभी ने सिद्धार्थ( महात्मा बुद्ध ) उनके चचेरे भाई देवदत्त ,जिसके तीर से घायल हंस की कथा पढ़ी ही है। हंस पर जब अधिकार की बात हुई ,तो न्याय मंच पर बैठे राजा ने बालक सिद्धार्थ के इस कथन को स्वीकृति दे दी कि मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता है।
   आज भी मुझे याद है कि अपने पाठ्य पुस्तक में इस कहानी को पढ़ते समय और उसके चित्र देख मेरी आँखें नम हो आयी थीं। पशुवध चाहे , वह बलि के रूप में ही क्यों न हो मुझे स्वीकार नहीं है। गंभीर रुप से जब अस्वस्थ हुआ तो , यहाँ के सीएमओ  जो कि मुझसे स्नेह करते थें , उन्होंने अनेक बार मछली के सेवन को कहा। हमारे मध्य एक अधिकारी और पत्रकार का संबंध नहीं था। अतः वे मुझे स्वस्थ देखना चाहते थें। उनके बहुत कहने पर मैंने अण्डे का सेवन किया ,परंतु अंतरात्मा ने उसे स्वीकार नहीं किया और मैंने निश्चय कर लिया कि अब अण्डा नहीं खाना है। वैसे , तो कोलकाता में जब था,वहाँ  लहसुन- प्याज भी वर्जित था। वापस बनारस लौटने पर पिताजी की पिटाई के भय से इनसे निर्मित सब्जी का सेवन करना पड़ा।
    मांसाहारी तो वाराणसी में भी मेरे परिवार में कोई नहीं था।  मेरा स्पष्ट रुप से मत है कि जब क्षुधापूर्ति के लिये अन्य भोज्य सामग्री उपलब्ध हैं ,तो फिर किसी जीव की हत्या क्यों ?

   बचपन  में मुझे याद है कि घर में बरसात के मौसम में बड़ी- बड़ी काली चींटियाँ खूब निकला करती थीं। वे हम सभी को कांट लेती थीं। तो दादी उन्हें लकड़ी के एक तख्त से रगड़ - रगड़ कर मार देती थीं। देखा देखी मैं भी तब चीटियों , तितलियों और चूहों को सताने लगा। लेकिन, बचपना समाप्त होते ही मुझे आभास होने लगा कि मैंने इन प्राणियों के साथ उचित नहीं किया। वैसे बाद में भी मैं भयवश कनखजूरे को मार दिया करता था। मुझे लगता है कि भय अथवा क्षुधा के कारण किसी पशु की हत्या और अपने जिह्वा के स्वाद के लिये उसे मारने में अंतर है , फिर भी किसी की हत्या करते समय मन में कठोरता का भाव आना निश्चित है।
     प्राचीन काल में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर की 17 अप्रैल को जयन्ती है। भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया। उन्होंने तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको एक समान मानने पर बल दिया ।उन्होंने " जियो और ​जीने दो "के सिद्धान्त पर जोर दिया। सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थें । वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थें।
  भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया। उन्होंने यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु-पक्षी एवं नर की बाली का विरोध किया । सभी जाती और धर्म के लोगों  को धर्म पालन का अधिकार बतलाया। उन्होंने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये।
        वैसे तो  " अहिंसा परमो धर्मः " इस नीति वचन पर महाभारत  के वन पर्व में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध के बाद महात्मा गांधी को अहिंसा का पुजारी कहा गया। संयुक्त राष्ट्र संघ  ने तो बापू के सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर रखा है। यह  "अहिंसा" पशु वध  तक सीमित नहीं है , यह एक आदर्श है।
    व्यवहार में मानव इसका कितना पालन करता है, इसके लिये उसे परिस्थितियाँ भी जिम्मेदार है, क्यों कि अन्याय का उन्मूलन कर के सत्य पर आधारित धर्म की स्थापना के लिए क्रांति, रक्तपात तथा प्रतिशोध शास्त्र विहित साधन माने गए हैं। इसीलिए बूट्स की तलवार पवित्र है, शिवाजी का बाघनख वंद्य  है, इटली की क्रांति का रक्तपात मंगलमय है, विलियम टेल का बाण दिव्य है और चार्ल्स शिरच्छेद सत्कर्म है।
     फिर भी ,दया ही धर्म का मूल तत्व है। इससे करुणा और प्रेम का भाव विकसित होता है। जब-तब हम अपनी हंसी ठहाके वाली दुनिया से बाहर निकल दूसरों की पीड़ा को नहीं समझते हैं। इसकी अनुभूति सम्भव नहीं है।

                                  - व्याकुल पथिक



Monday 15 April 2019

ललकी की पाती सीएम के नाम



75 दिनों में ही 80 गौवंश की हो चुकी है यहाँ मृत्यु
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    मीरजापुर । प्रदेश सरकार के फरमान पर यहाँ नगर में जब गौशाला खुला तो हमने सोचा था कि सड़कों और गलियों में भटकने वाले छुट्टा पशु कहलाने से हमें मुक्ति मिलेगी। इससे पूर्व वर्षों से हम जब कभी पेट की अग्नि को शांत करने की विवशता में मुकेरी बाजार, गुड़हट्टी, गनेशगंज और घंटाघर की सब्जी और गल्ला मंडी में किसी की दुकान अथवा ठेले से कोई खाद्य सामग्री ग्रहण करते थें, तो हमें भोजन चोर बता कर पिटाई होती थी। कभी - कभी इंसानों का जूठन भी नहीं मिलता था, ऐसे में हमारे लिये यह नया शरणस्थल मनभावन होगा, कुछ ऐसे ही कल्पना लोक में खोये हुये थें हम।
        पर  तब यह नहीं समझ सके थें कि नियति ने इस नये घर ( गौशाला)  का निर्माण हम जैसे निरपराध प्राणियों को मृत्यु दंड देने के लिये निर्मित करवाया है। मानो यह किसी हिटलर का गैस चैम्बर हो ,जहाँ जीवन की उम्मीद बेमानी है। अब आंकड़ों में आपको बताऊँ, तो इस गौशाला के खुले 75 दिन में  80 गौवंश की मौत  हो चुकी है । इतने संगी-साथियों को खोकर मेरा दिल मर्माहत भी है । पता नहीं कल मैं भी रहूँ ना रहूँ ?  स्वास्थ्य यहाँ मेरा निरंतर बिगड़ते जा रहा है। पेट की आग से कहीं अधिक इस भीषण गर्मी में पानी के लिये हम छटपटा रहे हैं। हमारी पुकार पर कुछ गोभक्त, मीडिया कर्मी और बाद में गौपालक नगर विधायक रत्नाकर मिश्र भी यहाँ आये। जिन्होंने सख्त चेतावनी दी थी कि भविष्य में एक भी गौवंश की मृत्यु हुई तो समझना गौहत्या का पाप लगेगा। हमारी देखभाल करने वाले इंसानों से उन्होंने और भी बहुत कुछ कठोर शब्दों में कहा था। पुआल की जगह भूंसे की व्यवस्था भी हमारे लिये करवाई गयी थी। लेकिन, आपने यह उक्ति सुनी है न कि चार दिनों की चाँदनी , फिर अंधेरी रात..?
  इसी बीच हमारे कई साथी मर गये। सच तो यह है कि वे मरे नहीं यहाँ की दुर्व्यवस्था के शिकार हो गये। लेकिन, फिर कोई गौवंश रक्षक यहाँ नहीं आया ,जो उनके विरुद्ध सजा तय करता ,जिनकी जिम्मेदारी बनती है। भविष्य में भी स्थानीय किसी रहनुमा से हमें उम्मीद नहीं है। अतः सोचा आपको अपनी पाती लिख दूँ । जिससे प्रदेश के मेरे वंशजो का भला हो सके । अतः आँखों में आँसू लिये पत्र लिख रहा हूँ।  हम बेजुबान हैं। अतः स्थानीय पत्रकार साथियों के सहयोग से यह   आखिरी पत्र आप तक भेज रहा हूँ, क्यों कि जानता हूँ कि इस पत्र के पहुँचते - पहुँचते मैं भी  आपके इस गौशाला में दम तोड़ दूँगा। पर मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ मेरे ये आँसू गवाह हैं, जिससे इन पत्रकारों ने अपने कैमरे में प्रमाण के तौर पर रख लिया है। इंसानों का जो कानून है, वह साक्ष्य मांगता है न , तो  ये रहें मृत्युदंड से पूर्व हमें मिलने वाली यातनाओं का प्रमाण मुख्यमंत्री जी । अब तनिक मेरी पीड़ा सुनिए।
    " परम प्रिय गौ रक्षक भक्त योगी जी आप अपने सद्कर्मों और पूर्व जन्म के प्रताप से इस वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हैं । आपकी मंशा गंगाजल की तरह पवित्र है पर आपके नुमाइंदे आड़ा - खापा से बाज नहीं आ रहे हैं  । जिनकी करनी से जिला मुख्यालय के गैबीघाट में गौशाला मौतशाला बन गया है । नवरात्रि बीतते ही रविवार को पांच गौवंश की मौत हो गयी । सोमवार को भी मेरा एक साथी गौलोक चला गया जबकि दूसरा प्रभु श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए जाने की तैयारी में है । जबतक मेरी पाती आप तक पहुंचेगी तबतक वह भी अनन्त यात्रा की ओर प्रस्थान कर जायेगा । मेरी आँखों से बह रहे आंसू मेरे सीने में अपनों की उदासीनता का परिणाम है ।आप मेरी आँखों से निकल रहे आंसुओं को पढ़ना और हो सके तो ऐसा करना जिससे गौशाला में दाना - पानी और बीमारी के चलते अब और अकाल मौत न हो ।
        मुझे ललकी के नाम से जाना जाता है । मुझे सड़क पर घूमते वक्त आपके नुमाइंदों ने पकड़ कर नगर के गैबीघाट में बने सरकारी गौशाला में डाल दिया गया । उस दौरान की गयी रस्सा कस्सी से मेरे कई साथियों के सींग तक उखड़ कर लटक गये । जख्मी होकर कई परलोक सिधार गये । जब से आपने गौशाला खोला है 75 दिन में 80 साथी इस मायावी दुनिया से चले गये । इसमें आपके मातहतों का भरपूर योगदान रहा । आप ही बतायें केवल पुआल खाकर कोई जिंदा रह सकता है ।गौपालक विधायक रत्नाकर मिश्र की फटकार के बाद पुआल को बोरा में भर दिया गया । जो आज भी गौशाला में है । उसके बाद से अब भूंसा मिल रहा है । डीएम के कहने पर खाने और पीने के लिए बर्तन मंगाया गया । उस वक्त नगर पालिका परिषद अध्यक्ष मनोज जायसवाल, नगर मजिस्ट्रेट सुशील श्रीवास्तव आकर निरीक्षण करते और निर्देश भी देते रहे ।
     जिलाधिकारी अनुराग पटेल जब औचक निरीक्षण पर आये थे तो गौशाला में उन्हें हम सब की कुल संख्या 215 बताया गया था । अब मात्र 164 रह गया है । गौशाला को 28 जनवरी 2019 को खोला गया । आज की तारीख यानि 75 दिन में 80 गौवंश की मौत हो चुकी है ।
         वर्षो पूर्व हुई बोरिंग का बदबूदार गंदा पानी मोहल्ले के लोग नहीं पीना चाहते उसे हम सबको पिलाया जा रहा है । जिसे आप छूना भी नहीं चाहेंगे उसे हम कैसे पीते है वह हम सबका दिल ही जानता है । खूंटे से बंधे होने के कारण विवशता है । हम तो बोतल के पानी की आस नही करते पर वह दूषित भी न हो की बीमार करके मौत ही दे जाये । जिस प्रकार भगवान सूर्य नारायण के पौ फटते ही कितना भी घना अंधेरा क्यों न हो मिट जाता है
 दिन अपनी उपस्थिति का आभास कराता है ।  आशा है कि उसी प्रकार व्यवस्था के नाम पर चल रहे अव्यवस्था का खात्मा होगा । तभी आपकी नेक नियति के साथ खोला गया गौशाला सफल होगा । जिसके रोम रोम में देवताओं का वास हो उनकी प्रसन्नता और खिन्नता धर्म के अनुसार कामी अहमियत रखती है । वैसे आप खुद समझदार है ।
       गौशाला की दुर्व्यवस्था की कहानी सुनकर जिलाधिकारी गौशाला में आये थें  । उस दौरान नगर विधायक रत्नाकर मिश्र भी आये और घूम घूमकर निरीक्षण किया था । भला हो विधायक का उस वक्त हम सबके पास खाने और पीने के लिए कोई पात्र नहीं था । मुझे और अन्य साथियों को खूंटे से बांध दिया गया था । दूर पानी नजर आता पर सूख रहे गले को तर करने की मंशा समय के साथ और बढ़ती जाती । कई साथी तो पानी न मिलने से प्यासे ही इस दुनिया से चले गये । उस वक्त हम सबको पुआल खाने को दिया जाता था । आपको तो मालूम है कि सर्दी के मौसम में कई जगह पुआल खिलाया जाता है वह भी भूंसा में मिला कर । लेकिन यहाँ पुआल मिला पर पानी नदारद था । खाली पुआल भी कई साथियों के लिए जहर बन गया । पुआल तो जो शरीर को गर्मी प्रदान करता है । शहर की सड़कों पर फेंके गए जूठन वगैरह खाकर जहा पानी मिला पीकर टंच रहते थें । आपके बनाये गौशाला में दूसरों के भरोसे दाना पानी वह भी आधा अधूरा रह गया है । उन दिनों जिलाधिकारी के आने पर कुल आंकड़ा 215 बताया गया था । अब मात्र 164 गौवंश बचे हैं  । गौशाला इसी वर्ष 28 जनवरी को खोला गया । 75 दिन में हममें से 80 की मौत हो चुकी है ।
      धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो''  के साथ ही गौमाता की जय हो और गंगा मैया की जय हो भी बोला जाता है।
   आज भी यह जय घोष भारतीय संस्कृति का उद्घोष बन  हुआ है। फिर भी क्यों  गंगा और गौमाता का दर्द इसी जयघोष में घुटकर रह जा रहा है ?
   उम्मीद है कि आप स्वयं अपने इन गौशालाओं का औचक निरीक्षण कर  इस पत्र की सत्यता को परखेंगे।






Saturday 13 April 2019

धर्म

      धर्म
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तुझसे  सीखा हे पुरुषोत्तम
 है  संघर्ष  ही  जीवन- धर्म ।

विमाता को दे कर सम्मान
पुत्र धर्म का किया  निर्वहन ।

सिंहासन की चाह न की
कह, वन भी है अपना स्वर्ग।

अनुज केलिये छोड़ा अयोध्या
दिया विभिषण को स्वर्णमहल।

पुष्पक कुबेर को लौटा के
कहा पर सम्पत्ति का लोभ न कर।

छल से पाषाण बनी अहिल्या
रखा तब  तूने उसका भी धर्म ।

बैर भीलनी के खाकर जूठे
 तुमने,समरसता का दिया संदेश।

द्वापर में कृष्ण बन कर तूने ही
 रोका कृष्णा का चीरहरण  ।

मान  बढ़ाया नारी का तब
बोला ,छोड़ दुर्योधन ये अधर्म ।

फिर बोलो  हे  पुरूषोत्तम
क्यों अग्निपरीक्षा है नारी -धर्म ?

सती सीता का परित्याग
क्या यही था , तेरा राज- धर्म  ?

राम के तुलसी थें फिर भी
ठहर गयी,क्यों उनकी कलम ?

पत्नी के  निर्वासन को कहते
  कैसे  वे  राम का धर्म ?

                 -व्याकुल पथिक

Friday 12 April 2019

अटल सत्य

अटल सत्य
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ए नादान परिंदे  तू
इंसानों की फ़ितरत को समझ

ये तुझे देते हैं दाना-पानी,पर
 इसे अपनी क़िस्मत ना समझ

अरे ! मुर्ख नासमझ पक्षी
  ये  तेरी खुशियों पर नहीं

ये  तेरी  कराह पर नहीं
  तेरे  क़त्ल  पर भी नहीं

 वे तो तेरे गोश्त की चाह में
 खिलखिलाते और मुस्कुराते हैं

 नहीं है उनमें भी  रहम
कह मछली जल की रानी

जो लिखते हैं तुझ पे कविता
   वे तुझे सहलाते हैं, मगर

 है  तू आखेट उनका  भी
   आज नहीं  तो कल

नौ दिन ये,उनके उपवास के
पगले ,इसे जीवनदान न समझ

टूट पड़ेंगे भूखे भेड़िये से तुझपे
 अभी बने हैं जो बगुला भगत

और बात राजनीति की करूँ
 तो चुनावी मौसम है रंगीन

 जन सेवक के पोशाक में
 आज जो तुझे दिख रहे हैं दोस्त

पहचान इन नक़ाबपोशों को
  कल  वे ही होंगे तेरे हिटलर

  नियति की  निष्ठुरता को
तू भी पथिक तनिक तो समझ

  मत  पूज तू  इसको कभी
मृत्यु दण्ड तेरा भी है अटल सत्य

          -व्याकुल पथिक

Wednesday 10 April 2019

मज़हब

   

 मज़हब
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खेलो ना दिल से किसी के
ये खिलौना तो नहीं

ताउम्र  तड़पता है जिस्म
जब छलता है कोई

ख़्वाबों को राह दिखला के
 मुकर जाते हैं जो लोग

 दर्द  तन्हाई  का  दे
 फिर ना नज़र आते है क्यों?

जो  चमकते थें कभी
 इश्क़  में आईना  बन के

 टूटे  कांच से बिखरे हैं
अब   इक कराह  है  लिये

जख़्म  ऐसा भी  न दो
जिसका  मरहम  ही न हो

बुझती  शमा  की
 रोशनी  की है तुझको कसम

सांसों की धड़कनें बन
ना बढ़ा फिर फ़ासले दिल के

मासुमियत का नक़ाब तेरा
  जला  देगा किसी  का  घर

हो ऐब कितने भी तुझमें
  पर  फ़रेब  तो ना कर

इंसानियत को बना मज़हब
 धर्म के मर्म को समझ

 किताबों में ना ढूंढ इसे
है मोहब्बत ही इक मज़हब

             - व्याकुल पथिक

Sunday 7 April 2019

है तू इक भूल और ...


है तू इक भूल और  ...
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आज  की  रात  तुझे
नींद न  फिर  आई

  यादों   की   राह  में
वो   दर्द  जो ले  आई

चादर की  इन सिलवटों में
वो खुशियाँ तो नहीं

ये तेरे करवटों की कराह है
और  कुछ भी  नहीं

खुली  जुल्फ़ों में बिखरी
  ये वो मोहब्बत भी नहीं

उन मचलते हुये बाँहों में
तेरी  ख़्वाहिश तो नहीं

खिलखिलाते उन होंठों पे
तेरा नाम तो नहीं

खनखनाती पायलों में
ना  तेरी  हँसी  है छुपी

ज़ख्म जो तेरे जिगर में
 क्यों ना भर पाता  कभी ?

बिखरे हुये कुछ कांच वहाँ
तेरी किस्मत तो नहीं

ख़्वाबों में आते हो क्यों
जब दिल पे दस्तक ही नहीं

 तू  है गुनाहों  का देवता
  और   एक भूल  ये  सही

मत कोस जमाने को
ये  तेरी  दुनिया  ही नहीं

है   तू  इक  भूल
  और   कुछ  भी  नहीं..!

     -व्याकुल पथिक

Friday 5 April 2019

चलो मन विंध्याचल धाम-1






शक्ति की अराधना से करें नववर्ष का स्वागत
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विन्ध्य- क्षेत्रं परं दिव्यम् पावनं मंगल - प्रदम्।
यत्र  सिद्धयः  प्रसिद्धन्ति  तमा  प्रलयं  त्राम्।।
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विंध्य क्षेत्र परम दिव्य, पवित्र ,मंगल देने वाला है। जहां पर तप करने से कामना सिद्ध होती है।  भारत में यह पर्वत मध्य से उत्तर दक्षिण स्थित है।

          
    


   यहीं पर आदिशक्ति माँ विंध्यवासिनी का पावन मंदिर है। वर्ष 1994 में जब आजीविका की तलाश में भटकते हुये सांध्यकालीन गांडीव समाचार पत्र लेकर काशी से मीरजापुर आया था। तो उस वर्ष वासंतिक नवरात्र से पूर्व ताऊजी ने मुझसे कहा था कि जब प्रतिदिन तुम्हें मीरजापुर जाना ही है, तो विंध्याचल मंदिर भी चले जाना और दूसरी हिदायत उनकी यह थी कि सदैव मखाने का सेवन करते रहो। वह मेरे संघर्ष का सबसे कठिन दौर रहा। वाराणसी से बस से औराई आना पुनः जीप से मीरजापुर और यहाँ सायं 6 बजे से 9 बजे तक इस अनजान शहर में पैदल ही अखबार का वितरण। इसके पश्चात रात्रि बस पकड़ कर 12 बजे वापस वाराणसी। पांव जमीन पर अगले दिन सुबह पड़ते नहीं थें। लेकिन, यह जो पेट की आग है न , वह भला माने तब तो। मास्टर साहब का अयोग्य सुपुत्र था। भले ही कक्षा में सदैव अव्वल रहा और अपने गुरुजनों का प्रिय भी, परंतु नियति के समक्ष नतमस्तक    एक भूल, एक अभिश्राप एवं जिन्हें भी स्नेह किया , उनके द्वारा तिरस्कृत  कुछ ऐसा ही है , इस पथिक का जीवन । जिसे भी वह अपना समझता है, वह एक नया दर्द दे जाता है। इसलिये हृदय का बंद कपाट कभी नहीं खोलना चाहता था तब भी और अब भी, फिर भी मार्ग में जो लोग मिले , उनमें से कुछ ऐसे भी रहें, जिन्होंने अत्यधिक स्नेह प्रदर्शन किया और फिर बेगाना बता के चल दिये।
   बात ताऊ जी के निर्देश की कर रहा था। मैं विंध्याचल गया भी, तब वरिष्ठ तीर्थ पुरोहित मणिशंकर मिश्र ने अत्यधिक स्नेह दिया। विंध्यवासिनी देवी के महात्म्य के विषय में जानकारी दी। परंतु देवी धाम में जिस तरह का व्यवहार आम दर्शनार्थियों संग होता था, वह देख मन कुछ खिन्न हो गया  और वीआईपी दर्शन मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था, अतः झांकी से दर्शन करने का निश्चय कर लिया । वैसे , आम दर्शनार्थियों के साथ अच्छा व्यवहार हो, इसके लिये तीर्थ पुरोहित, प्रशासन और पुलिस तीनों ही सजग रहते हैं, परंतु विशिष्ट भक्त के आते ही उनका यह संकल्प भंग हो जाता है।  इस बार भी विंध्य पण्डा समाज ने आम सभा कर सभी दर्शनार्थियों को उत्तम दर्शन करवाने का संकल्प लिया है।
  इसी विंध्य क्षेत्र में तप कर मैं एक पत्रकार बन गया और जहाँ तक मेरे एकाकी जीवन का प्रश्न है, तो तपोस्थल पर भला कौन साथ निभाता है। यह सफर तो अकेले ही तय करना होता है। यहाँ कोई स्नेह का संबंध नहीं है और यदि आपका वैराग्य डगमगाया, तो उपहास के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा आपकों।  विचित्र विरोधाभास है मनुष्य जीवन भी।

     भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं
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     देखें न भारतीय संस्कृति में नववर्ष का स्वागत जनमानस शक्ति की आराधना से करता है । देवों के देव महादेव यानि शिव भी शक्ति बिना शव अर्थात शून्य हैं  । सती के यज्ञ कुण्ड में समाहित होने के बाद सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोहराम मचा था । तब भगवान विष्णु ने शिव के कंधे पर सती के शव को काट - काट कर अलग करना आरम्भ किया था । सती के अंग जहाँ -जहाँ  गिरे वह शक्ति पीठ के नाम से विख्यात हुआ । शक्ति स्वरूपा के बिना जीवन पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता यह सन्देश अर्धनारीश्वर के स्वरूप के साथ शिव ने दिया है । देश के विभिन्न स्थानों पर शक्ति पीठ है, जबकि विन्ध्य क्षेत्र सिद्धपीठ के नाम से विख्यात है । आदिशक्ति ब्रह्मांड के केंद्र बिंदू पर बिन्दुवासिनी नाम से अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ स्वयं विराजमान है ।
     'भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्। अर्थात-हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण  में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है- विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्देवीभागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ। त्रेता युग में भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचल आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापरयुग में मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचण्डी का अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई। मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी । श्रीमद्भागवत महापुराण के श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
  मन्त्रशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है, उसका स्वरूप यह है कि जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादि सभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुन्दर मुखवाली इन विंध्यवासिनी के समीप सदा शिव विराजित हैं। धर्मग्रंथों का निरंतर अध्यन करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार सलिल पांडेय का कहना रहा कि सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है। धर्मग्रन्थ इस धाम की महत्ता से भरे पड़े हैं ।
         तीर्थ राज प्रयाग के संगम के बाद विंध्याचल में एक और संगम होता है । वह है विन्ध्य पर्वत के साथ दो बहनों का मिलन । हजारों मील का सफर करने वाली पतित पावनी गंगा धरती पर आकर विंध्य क्षेत्र में आदिशक्ति माता विंध्यवासिनी का पांव पखारती है । इसके बाद वह त्रैलोक्य न्यारी शिव नगरी काशी में प्रवेश करती है । हजारों मील लम्बे विंध्य पर्वत एवं गंगा नदी मिलन माता के धाम विंध्याचल में ही होता है । आगे जाकर गंगा उत्तरवाहिनी हो जाती है जबकि विंध्य पर्वत दक्षिण दिशा की ओर घुम जाता है । त्रिकोण पथ पर केंद्र में स्थापित सदाशिव के तीनों कोण में विराजमान मातालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती अपने भक्तों को दर्शन देकर उनकी समस्त मनोकामना पूरी कर रही है ।
   मीरजापुर में पूर्व वाहिनी गंगा नदी के तट पर विन्ध्य पर्वत के ऐशान्य कोण में विराजमान आदिशक्ति माता विंध्यवासिनी का दर्शन और त्रिकोण करने से भक्तों  की सारी मनोकामनायें पूरी होती है । संगम स्थल पर आदिशक्ति अपने तीनों  स्वरूप महाकाली , महालक्ष्मी व महासरस्वती के रूप में विराजमान होकर भक्तों की सारी मनोकामनाए पूर्ण कर रही हैं  | आदिशक्ति माता विंध्यवासिनी अपने भक्तों को लक्ष्मी के रूप में दर्शन देती हैं  । रक्तासुर का वध करने के बाद माता काली एवं कंस के हाँथ से छूटकर महामाया अष्टभुजा सरस्वती के रूप में त्रिकोण पथ पर विंध्याचलविराजमान हैं

 आदिवासियों की पूजित वन देवी कालान्तर में सर्वजन देवी बन गयी
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विंध्यवासिनी की पूजन सामग्री तथा फल फूल जो है उनमें अभिजन्य संस्कृति में स्वीकार सेव, अनार तथा अंगूर नहीं है,  बल्कि रोरी, रक्षा, बतासा और लाची दाना है । जो आम जन के लिए उपलब्ध हैं ।
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देवकी मथुरायां तु पताले परमेश्वरी।
चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्यवासिनी।।
ऊँ विन्दुस्था विन्ध्यनिलया विन्ध्यपर्वतवासिनी ।
योगिनी योगजननी चण्डिका प्रणमाम्यहम्।।

    घने पेड़ों से आच्छादित विंध्य पर्वत पर विराजमान जगत जननी माता  विंध्यवासिनी देवी सतयुग में वन देवी थीं फिर जन देवी हुई और अब सर्वजन देवी विंध्यवासिनी के रूप में पूजित है । पुराणों में वर्णित हैं कि विंध्य पर्वत पर विराजमान आदिशक्ति जगत जननी माता विंध्यवासिनी आदि अनादि काल से विन्ध्य पर्वत पर विराजमान हैं । हर रोज माता के दर पर हाजिरी लगाने भक्त आते हैं । नवरात्र पर माता के दरबार में आने वाले भक्तों की तादात प्रतिदिन लाखों में पहुँच जाती है । उत्तर में पूर्ववाहिनी गंगा तो दक्षिण में विशाल विंध्य पर्वत भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है । आज भी आदिवासी एवं भील अष्टमी तिथि पर माँ का पूजन अर्चन करने आते है । मीरजापुर आदिवासी संस्कृति और दस्यु संस्कृति का प्रधान केंद्र था । यहा आदिवासी राजा होते थे । सबरों का भी विंध्याचल के जंगल में निवास होता था । यह आदिवासी टोना, टोटका, ओझयती तथा सोखयती के साथ - साथ शक्ति के पूजक थे । उन्होंने शक्ति स्वरूपा माता विंध्यवासिनी आराधना करना स्वीकार किया । माँ विंध्यवासिनी की पूजन सामग्री तथा फल फूल जो है उनमें अभिजन्य संस्कृति में स्वीकार सेव, अनार तथा अंगूर नहीं है,  बल्कि रोरी, रक्षा, बतासा और लाची दाना है । जो आम जन के लिए उपलब्ध हैं ।
साहित्यकार बृजदेव पाण्डेय ने बताया कि शिव और शक्ति द्रविणों और आदिवासियों के देवता थें । शिव का सांप लपेटना और मंदार की माला , धतूरा तथा बेलपत्र से प्रसन्न होना । शक्ति का नगाड़ा, धुधुका तथा  तासा आदि बाजाओ से प्रसन्न होना इस बात का प्रतीक है कि यह दोनों देवता वन वासियों के देवता थें । जिनके पराक्रम को देख बाद में इन्हे आर्यो ने स्वीकार किया ।
   पतित पावनी गंगा तट के दक्षिण भाग में विंध्य पर्वत पर विराजमान माता विंध्यवासिनी का चरण पखारने के लिए गंगा ने इसी स्थान पर पूर्व वाहिनी होकर काशी के लिए उतर वाहिनी होकर निकल जाती है । आदिशक्ति विंध्यवासिनी से मिलने के लिए गंगा आतुर रहती थी । इसलिए आदिशक्ति और गंगा का संगम धरा पर इसी स्थान पर होता है । विंध्याचल देवी के संदर्भ में पुराणों में अनेक मत है । वामन और मार्कण्डेय पुराण आदि मानते है कि देवी की स्थापना देवराज इंद्र ने की थी । इंद्र ने देवी की स्थापना विंध्य पर्वत पर क्यों किया इसके पीछे यह अवधारणा है कि देवी विंध्यवासिनी की बहन गंगा हैं । उनकी तीव्र उत्सुकता गंगा से मिलने की थी । इसलिए इंद्र ने इस पर्वत पर आदिशक्ति की स्थापना की । एक और मत है कि समूचा विंध्य पर्वत शैव और शाक्य संस्कृति से प्रभावित है । शिव और शक्ति अभिन्न है । यह क्षेत्र पहले वैष्णव प्रधान संस्कृति का नहीं था । इसलिए उपयुक्त स्थान मानकर देवी की स्थापना की गयी । देवी भागवत और दूसरे शाक्य पुराण यह मानते हैं कि दानव संस्कृति के अंत के लिए त्रिदेवों के साथ- साथ अन्य देवताओं ने अपने तेज को एक आकार दिया जिससे तेजस्विनी माता विंध्यवासिनी का अवतरण हुआ । उन्होंने महिषासुर सहित अनेक दुर्दांत दानवों का अंत किया ।     कुछ विद्वान ऐसा मानते है कि विंध्याचल के जंगलों में रहने वाले भैंसे बहुत शक्तिशाली होते थे । उनसे सिंह भी भयभीत होते थे । वह इतने हिंसक और घातक होते थें  कि वन्य जातियां भी घबड़ाती थी । इसलिए वन्य जातियों ने शक्ति स्वरूपा माता विंध्यवासिनी का आहवान किया और शक्ति ने भैंसों का वध किया । उन्हीं भैंसों को प्रतीकात्मक रूप में महिषासुर कहा जाता हैं । भैंसों का वध कर भक्तों को भयमुक्त करने वाली देवी को महिषासुर मर्दिनी कहा जाता है । नवरात्र में प्राचीन काल में अष्टमी तथा नवमी को सबरोत्सव होता था । सबर बाजा - गाजा के साथ माता विंध्यवासिनी की अर्चना के लिए आते थें  । जबतक इनकी पूजा नहीं होती थी तबतक नवरात्र का भी पूजन विधान पूरा नहीं होता था ।
   मान्यता हैं कि शिव - शक्ति द्रविणो और आदिवासियों के देवता थे । इनकी पूजा आराधना जंगलों में सरलता से मिलने वाले फल फूल से की जाती थी । जंगलों में कशेरु, फालसा, कमलगट्टा आदि बहुतायत थें  । प्राचीन काल में इन्ही पदार्थो से देवी की अर्चना करते थे । इसलिए भी लगता हैं कि माता विंध्यवासिनी वन देवी थी जो जन देवी बनी । आज यह सर्वजन देवी के रूप में पूजित हैं । वाममार्गियों ने देवी विंध्यवासिनी को भी अपना इष्ट माना और पूजा तांत्रिक विधि से करते हैं ।

गुरु और माता के चरण पड़ने से विंध्याचल हुआ पावनधाम
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     मां विंध्यवासिनी धाम की महत्ता जहां पौराणिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है वही वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसकी महत्ता बहुत ही अधिक है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार पवित्र क्षेत्र विंध्याचल के शक्तिमान होने के पीछे महादेव की आराधना भी है और विंध्याचल पर प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने उसको सर्वश्रेष्ठ होने का वरदान दिया था । विंध्याचल द्वारा स्थापित शिवलिंग भी द्वादश ज्योतिर्लिंगों में शामिल है । विंध्याचल परिक्षेत्र महादेव की अनुकम्पा से आज भी ऐश्वर्ययुक्त है ।
  विंध्याचल धाम की महिमा बताते हुए आध्यात्मिक साहित्यकार सलिल पांडेय ने बताया कि शिवपुराण के कोटि रूद्र संहिता के अध्याय 18 के अनुसार ऋषि नारद मर्त्यलोक में भ्रमण करते जब इस पर्वत पर आए तो विंध्यपर्वत यद्यपि नारद के सम्मान में सेवा के लिए दौड़ पड़ा लेकिन उसकी बातों में नारद को अहंकार दिखाई पड़ा । विंध्यपर्वत ने कहा था- हे मुनिश्रेष्ठ, मेरे यहां रहिए । यहां सब कुछ है । किसी चीज की कमी नहीं है । नारद को विंध्याचल की बातों में अभिमान झलकता नजर आया । वे बोले- तुम्हारे पास सब कुछ है लेकिन देवमंडल में सुमेरु पर्वत का महत्त्व ज्यादा है । इससे दुःखी होकर विंध्याचल ने नर्मदा नदी (मध्यप्रदेश के खंडवा) के तट पर पार्थिवशिवलिंग की स्थापना की ।यद्यपि एक ही ज्योतिर्पीठ है लेकिन जो मन्त्र पढ़े गए वह ओंकारेश्वर एवं पार्थिव शिव को अमलेश्वर की मान्यता महादेव ने दी । इस प्रकार विंध्याचल पर्वत इतना श्रेष्ठ हुआ कि सूर्य का मार्ग भी अवरुद्ध करने में सफल हुआ था । सलिल पांडेय ने कहा कि महादेव के आशीर्वाद से वह उच्चता प्राप्त करने में समर्थ हो गया । वह सूर्य के तेज से भी अधिक तेज अर्जित करने में समर्थ हुआ । पुराणों के अनुसार एक रात जब विंध्याचल अनन्त ऊँचाई को प्राप्त हो गया और प्रातः सूर्यदेव उदित हुए और उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया तब धरती के उत्तर के भाग भीषण गर्मी से जीव-जंतु झुलसने लगे तथा दक्षिण भाग में अँधेरा ही अंधेरा छा गया । देवमण्डल में खलबली मच गयी । सारे देवता असहाय हो गए । भगवान विष्णु के पास गए । उन्होंने भी  विंध्याचल को महादेव द्वारा दिए गए आशीर्वाद के चलते कहा कि वे कुछ नहीं कर सकते । अलबत्ता उन्होंने कहा कि इसके लिए विंध्याचल के गुरु अगस्त्य के पास जाना होगा । देवता गुरु अगस्त्य के पास आए ।  गुरु अगस्त्य जब विंध्याचल के पास आए तो वह विनम्र हो कर झुक गया ।
     सलिल पांडेय ने बताया कि शक्तिमान होने के बावजूद जो श्रेष्ठ जनों के समक्ष विनम्र होता है, उसको प्रसिद्धि मिलती है । देवी भागवतपुराण के अनुसार विंध्याचल की ब्रह्मांड में इसी प्रसिद्धि के चलते सृष्टि के आरंभ में मनु-सतरूपा की आराधना से प्रकट हुई त्रिपुर सुंदरी शक्तिस्वरूपा मां ने उन्हें आशीर्वाद देकर कहा कि अब मैं विंध्याचल जा रही हूं । जहां मैं  विंध्यवासिनी के नाम से जानी जाऊंगी । जब मां यहां आयीं तो उसके बाद से अन्य देवी-देवताओं का भी यहां आगमन शुरू हो गया ।
    सलिल पांडेय ने बताया कि जिसके सिर पर ज्ञान देने वाले गुरु स्वयं आ जाएं तथा प्रेम-स्नेह देने वाली मां के चरण पड़ जाएं है, वह तो भाग्यशाली हो ही जाता है । फिर तो उसका डंका चहुंओर बजने लगता है । गुरु और माता के आगमन से विंध्यपर्वत जो जंगली जीव-जंतुओं से घिरा था, वह पावन हो गया । इस धाम में मां विंध्यवासिनी गरीब-अमीर, पावन-अपावन सबको आशीर्वाद देती हैं। इसीलिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था नहीं भी इस क्षेत्र में मिलती है  तो भी हर वर्ग के लोग नवरात्र के अलावा भी मातारानी का दर्शन कर स्वयं को धन्य मानते हैं ।

     महात्रिकोण क्षेत्र *******************
     त्रिदेवियों के मंदिरों का जहां अपना पौराणिक महत्व है। वहीं यहाँ नवरात्र में महात्रिकोण क्षेत्र में अद्भुत नजार देखने को मिलता है। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी नंगे पांव त्रिकोण परिक्रमा करते हैं। पूरी रात देवी भक्त त्रिकोण साधना में जुटे रहते हैं। दिन में तप रही भूमि भी उनके पथ को विचलित नहीं कर रही है। विंध्याचल क्षेत्र में स्थित महा त्रिकोण परिक्रमा का भी विशेष महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है। नवरात्र पर्व पर यहां आने वाले प्रमुख संत नरहरि बाबा का कथन रहा है कि भगवान शंकर के तीन नेत्र से ही त्रिकोण  बनता है । तीनों गुणों की अधिष्ठात्री शक्तियां इसका निर्माण करती हैं। त्रिकोण क्षेत्र में आदि शक्ति जगदंबा  तीन स्वरूप महालक्ष्मी (विंध्यवासिनी) ,मां सरस्वती(माता अष्टभुजी )और महाकाली( काली खोह) का मंदिर स्थित है। अन्य देवी देवताओं के मंदिर भी त्रिकोण मार्ग में पड़ते हैं। विंध्य क्षेत्र जिसे  गंगा  स्पर्श करती है । इस कारण इसका सर्वाधिक महत्व है । विंध्याचल के त्रिकोण का मध्य रामेश्वर मंदिर है। इसके अलावा  इस क्षेत्र में शिव, राम, हनुमान आदि देवी देवताओं तथा शिव शक्ति के गण भी अधिष्ठापित हैं।  विंध्य क्षेत्र के बाबा भैरवनाथ , लाल भैरव, काल भैरव कोतवाल के रूप में विराजमान हैं । त्रिकोण यात्रा प्रारंभ करने के लिए यात्री को शुद्ध, सात्विक एवं एकाग्र होकर गंगा स्नान करना पड़ता है।  त्रिकोण यात्रा मार्ग में गंगा स्नान के पश्चात मां विंध्यवासिनी देवी, शीतला मंदिर पकरीतर ,भैरव भैरवी (थाना कोतवाली), श्री हनुमान जी बरतर, ग्राम देवी सायरी देवी, वनखंडी महादेव, बंधवा महावीर, पातालपुरी हनुमान जी, करणगिरी की बावली,  काली खोह , भैरव जी भूतनाथ, कामाख्या देवी, गणेश जी , गेरुआ तालाब ,भगवान श्री कृष्ण जी, मुक्तेश्वर( मोतिया तालाब),  मां अष्टभुजा देवी मंदिर ,, भैरव कुंड,  मत्स्येंद्र स्थली, मंगला गौरी , रामेश्वर नाथ, तारा देवी , राम शिला ,संकटा देवी,  शीतला माता , प्रत्यगीरा माता, निहुत महावीर,  चामुंडा देवी, बिंदेश्वर महादेव मंदिर होते हुए पुनः मां  विंध्यवासिनी के साथ ही पताका दर्शन भी करना होता है। नंगे पांव चिलचिलाती धूप में कंकड़ युक्त सड़कों पर बिना विचलित त्रिकोण साधक अपना परिक्रमा पूरा कर रहे हैं वृद्ध ,महिलाएं ,बच्चे भी रात्रि में समूह में त्रिकोण परिक्रमा करते देखे जा रहे हैं । संतों के अनुसार एक त्रिकोण परिक्रमा करने मात्र से सहस्त्र चंडी यज्ञ का फल प्राप्त होता है  वैसे अधिकांश साधक जो त्रिकोण परिक्रमा करने में असमर्थ हैं। वे विंध्यवासिनी मंदिर के गर्भगृह परिसर में ही स्थित देवी देवताओं का दर्शन पूजन करते हैं।  इन्हीं से उन्हें त्रिकोण का फल प्राप्त होता है । गर्भ गृह परिसर में दक्षिण दिशा में महाकाली, पश्चिम में महासरस्वती एवं सदाशिव विराजमान हैं । इस तरह से जो त्रिकोण पूरा होता है, उसे लघु त्रिकोण  कहा जाता है। वैसे, विंध्य क्षेत्र में वृहद त्रिकोण (पंचकोशी) यात्रा का वर्णन है।  इसके अंतर्गत कई दर्शनीय स्थल हैं। तारकेश्वर नाथ महादेव मंदिर , संकटमोचन महावीर मंदिर , बूढ़े नाथ महादेव मंदिर, नारघाट काली मंदिर, लोहंदी महावीर , लाल भैरव, विंध्येशवर महादेव, भगवान वामन मंदिर ओझला, लाल भैरव, दुग्धेश्वर महादेव,  नाग कुंड, सप्त सागर,  कंकाल काली, इत्यादि प्रमुख मंदिर इस पंचकोशी यात्रा क्षेत्र में पड़ते हैं।
   वैसे, नियति से पथिक को नारी शक्ति के माध्यम से उपहास ही मिला है, फिर भी उसे नमन है, इस शक्ति पर्व पर..।

       ---शशि गुप्ता

Thursday 4 April 2019

सवाल जिंदगी से !


सवाल जिंदगी से !
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चलो  जिंदगी  से
 एक  सवाल पूछता हूँ
कौन  अपना कौन पराया ?
 ये राज पूछता  हूँ

खूबसूरत कैनवास तेरा
जब  भी होता बदरंग
  रिश्ते  जिंदगी  के
कैक्टस से देते क्यों चुभन ?

गेंदा,गुलाब,चम्पा,चमेली
है फूल तेरी बगिया में अनेक
 फिर किसी को दे "पलाश"
उसकी प्यास का उपहास क्यों?

प्रीति, स्नेह , वात्सल्य
 तेरे मधुशाला में हैं सब रंग
खो गये  कहाँ स्वपन मेरे
 बोल क्यों दिये तूने ये दण्ड?

ये ज्ञान ,वैराग्य ,दर्शन, धर्म
  ना समझाओं तू मुझको
हुआ क्यों  कोई न अपना ?
आ धैर्य बंधा जाता मुझको

थें हीरे,जवाहरात,मोती,मूंगा
 ना मिले प्रेम के दो शब्द
क्यों भिक्षुक सा पात्र लिये  ?
  बन बटोही भटक रहें हम

फूलों का  हार बन के
  जो न  महके थें कभी
भूलों की  बात  कह
वे  फिर उड़ाते  क्यों  हँसी ?

जिंदगी कर एक उपकार तू
  जब मृत्यु सेज पर हो ये तन
कोई आये यह कह जाए
 दर्द जीवन में क्यों तूने पाये ?

               -व्याकुल पथिक

Tuesday 2 April 2019

स्वांग

स्वांग
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हैं रातें रंगीन जिनकी
  वे  वाह-वाह किया करते हैं
किसी की उदासी पर क्यों ?
 वे  मुस्कुराया  करते हैं

सम्वेदनाओं की झोली उनकी 
 फिर भी है  क्यों खाली  ?
   शब्दों  की   चाशनी में
   जो जहर पिलाया करते हैं

नियति ने  दे रखी  है
  जिन्हें  अपनों  का  साथ
  यतीमों  के दर्द पर क्यों ?
 वे  खिलखिलाया  करते हैं

बनते  तो हैं  वे सभी
  सकारात्मकता के पुतले
 फिर अपने ग़म में यूँ
क्यों  छटपटाया करते हैं ?

खुशियों का मुखौटा जिन्होंने   
  लगा  रखा  है  सुहाना
दिल के आईने में चेहरा उनका
  क्यों  बुझा- बुझा होता है ?

 दर्द छुपा बैठें हैं वे भी कई
   उजालों का मगर स्वांग रचते हैं
 सच से मिलती जब भी निगाहें
   वे क्यों तिलमिलाया करते हैं ?

ठहर पथिक तू तनिक  ठहर
   इन मीठी बोलियों को तौल
 मौसम चुनाव का है गंभीर
  नेताओं सा ढ़ोग ये किया करते हैं
         - व्याकुल पथिक