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Thursday 29 November 2018

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ..



    हिप्पी कट बाल के कारण तब वह हैप्पी मिट्ठू कहलाता था, अब समय के दर्पण में स्वयं को भी न पहचान पाता है। पता नहीं इस नियति को और क्या मंजूर हो , कल इन्हीं में से एक चेहरा अपना भी न हो।
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ऐ 'आद' और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
 उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने
जुस्तजू जिसकी थी उस को तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ..

      कुछ ऐसे ही गीत जिनमें मेरा अपना भी दर्द बोल रहा है , उसकी दुनिया से निकल जब भोर के अंधकार में ठंड भरे चौराहे पर सिकुड़ते वदन को थोड़ा झटकता हूँ, तो अतृप्त मन की गति पर जीवन का यह संघर्ष फिर से भारी पड़ने लगता है। साइकिल की रफ्तार से इस शरीर को गर्माहट मिलती है । अवसाद के बादल छटने लगते हैं कि अकेले मैं ही नहीं कोई तन्हा हूँ , हमारे जैसे कितने ही एकाकी लोग हैं इस धरती पर ..।  शारीर में सामर्थ्य है दो जून की रोटी बना ली , नहीं तो रात गुजारने को ठंडा पानी है ही ..। हम जैसों को बातों से फुसलाने वाले अनेक हैं , पर इस दिल का दर्द कौन बांट पाता है । माँ और पत्नी के अतिरिक्त ऐसा कौन तीसरा रिश्ता है , जिसे भोजन पर हम जैसे मर्दों की प्रतीक्षा हो ..?
     मार्ग में प्रातः भ्रमण पर निकले प्रौढ़ दम्पति एक दूसरे का हाथ थामे यदा कदा दिख जाते हैं। मानों हर पल उनके लिये नवीन हो,इस गीत की तरह-

रोज हमें मिलके भी, मिलने की आस रहें
रोज मिटे प्यास कोई और कोई प्यास रहें
 दिल दीवाना पुकारा..
प्यार का दर्द है, मीठा मीठा, प्यारा प्यारा
ये हसीं दर्द ही, दो दिलों का है सहारा ..
   
     परंतु नियति द्वारा रचित इस रंगमंच पर हमारे जैसे कठपुतली भी तो हैं न और वे भी हैं , कभी जिनका बड़ा रुतबा था , आज सड़कों पर भिक्षुक से पड़े हैं।  इनमें भी जो स्वाभिमानी है , उन्हें  हाथ पसारना तब तक स्वीकार नहीं है, जब तक कि खाट पर अपाहिजों सा न पड़े हो। ऐसी कोई उचित व्यवस्था और स्थान( वृद्धाश्रम) हमारे यहाँ नहींं है , जो शारिरिक रुप से असमर्थ ऐसे लोगों के जीवन में आनंद घोल सके। कहने को सभी अपने है,पर मिलता परायापन ही है। दोनों पांव से अपाहिज बाबा के आखिरी दिन कैसे और कहाँ गुजरे होंगे। उस स्थिति को याद कर मन बार - बार भर जाता है।
   मुसाफिरखाने की तन्हाई मुझे वह सबक सिखला रही है , जिससे मैं जिन्दगी को और करीब से समझ पा रहा हूँ।
      पिछले ही दिनों सुबह  की बात है,साइकिल से रोजाना की तरह  ही अखबार लिये नगर का परिक्रमा कर रहा था कि निगाहें एक वृद्ध रिक्शा चालक और उस पर सवार वृद्ध व्यक्ति पर चली गयी,जो अपने गुजरे हुये दिनों पर बोझिल मन से सम्वाद कर रहे थें।
    रिक्शेवाला कह रहा था कि  बाबू जी , अब नहीं चला सकता,  कोई और कम श्रम वाला काम धंधा हो तो बताएँ न..। सचमुच उसके पांव रिक्शे के पैंडल पर कांप रहे थें , फिर भी पेट की आग सब कराती है । उधर, रिक्शे पर सवार बाबू जी भी व्याकुल पथिक से ही दिखें। अतः वे उस रिक्शेवाले को अपने पुराने समृद्ध कारोबार की दास्तान सुना रहे थें ,यूँ भी कह लें कि अपनी स्मृतियों की दुनिया में जा गुजरे हुये दिनों की खुशबू का एहसास खुद भी कर रहे थें । मेरी भी अभिरुचि इन दोनों वृद्ध जनों की रोचक परंतु मार्मिक वार्ता पर थी,
  क्यों कि मैंने कोलकाता में  वैभवपूर्ण जीवन भी देखा है , तो वाराणसी और मीरजापुर में किसी दुकान की पटरी या फिर रेलवे स्टेशन पर भी रातें गुजारी हैं, हृदय पर पत्थर रख कर। आज भी एक मुसाफिरखाना में बिल्कुल तन्हा ही पड़ा हूँ । जीवन के इस पड़ाव पर आकर दुनियादारी का  सच क्या है यह मैं बखूबी पढ़ लिया है, वह यह है कि झूठे का बोलबाला और सच्चे का मुँह काला ।  मिलावट और बनावट करने वाले मालामाल है, यदि पकड़े भी गये कभी ,तो अपना  जुगाड़ है। वफाओं की सदाएँ कौन सुनता है, बेचारा यह दिल भी कितना नादान है।
     इस वृद्ध रिक्शेवाले को इस ठंड में चादर लपेटे सुबह रिक्शा खिंचते देख , समझ में नहीं आ रहा है मुझे कि उन ढेरों सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को हम पत्रकार प्रतिदिन छापते हैं , अच्छे दिन आने वाले हैं का ढोल भी तो बीते लोकसभा चुनाव पूर्व से ही बज रहा है। वह कालाधन जिसे विदशों से वापस लाने की बात हो रही थी,वह फिर किस तिजोरी में जा फंसा। नियति ने जिन्हें इस राह पर ला खड़ा कर किया है कि हाथ पसारो या फिर भूखे मरो.. ।
     सोचे उस स्वाभिमानी इंसान पर क्या गुजरात होगा। छोटे शहरों में ऐसे लोगों के दर्द का एहसास बड़े लोगों को कहा होता है। अजीब सी हवा इंसानियत को लग गयी है। पहले लोग सराय,मंदिर, कुआँ, तालाब बनवाते थें और अब उनका वंशज कहलाने वाले भद्रजन अपने महान पूर्वजों के जन कल्याणकारी कार्यों से प्रेरित हो कुछ सेवा- सहयोग करना तो दूर स्वयं को ट्रस्टी बता उस दान की सम्पत्ति पर अधिकार जमाने के तिकड़म में लगे हैं। खैर, पिछले ही दोनों सलिल भैया ने तीन ऐसे ही पात्रों के संदर्भ में  मार्मिक शब्द चित्र प्रस्तुत किया था , जो पेशेवर भिक्षुक न होकर भी नियति के समक्ष घुटने टेक हाथ पसारने को विवश हैं।  विक्षिप्त से हो गये हैं , निष्ठुर दुनिया के रंग-रुप को देख कर । वक्त की मार का दर्द कितना भयावह होता है। इसका जीता-जागता उदाहरण नगर की सड़कों पर दिखाई पड़ता है ।
     नगर के मध्य त्रिमोहनी मुहल्ले में आनन्द यादव नामक 35 वर्ष का युवक समय के दुष्प्रभाव की चपेट में आ गया है । गऊघाट के अच्छे खासे परिवार के आनन्द के साथ क्या हुआ कि इन दिनों वह त्रिमोहनी पर दिन-रात दिखता है कुछ न कुछ बोलते हुए । लोग इसका जो भी अर्थ लगाते हों लेकिन आनन्द जो काम कर जा रहा है, वह अच्छे खासे पढ़े-लिखे और दिमागदार लोग नहीं कर पाते हैं ।  कुछ ही माह पहले त्रिमोहनी में गणेश-भैरो जी मन्दिर के पास बीचोबीच अंडग्राउंड पाइप लाइन फट गया । अंदर अंदर पानी बहने से बड़ा सा गड्ढा लो गया । लोग बाग एक दूसरे का मुंह ताकते रहे और आनन्द मिट्टी-गोबर से उसे पाट दिया । इसी के साथ त्रिमोहनी पर गाय के गोबर उठाने, हटाने, गन्दगी साफ करने का जैसे धुन ही सवार हो गया है उस पर । आनन्द को कभी किसी के आगे हाथ पसारे नहीं देखा जाता । अलबत्ता कुछ लोग जब खाद्य वस्तु अपनी गुणवत्ता खोने लगती हैं, उसमें बदबू आने लगती है, तब ऐसे लोगों को आनन्द के भूखे होने की याद आती है । इसी तरह से छेदी और मिट्ठू की भी दर्द भरी कहानी है।  लगभग 55-60 साल के पूर्णतया अशक्त छेदी पर अंतर्मन से सच्चे किसी समाजसेवी की नजर पड़ जाए तो उसका कुछ भला हो सकता है । देखने में लगता है कि छेदी पूर्णत: अनपढ़ हैं । लेकिन बात कुरेदने पर भाषा-बोली से ज्ञान का पुट झलकता है । छेदी से पूछा कि घर पर कौन है और किसने यह हालत बनाई तो रोने के बजाय छेदी मुस्कुराते हुए बोले-

पुरुष बली नहीं होत है,
     समय होत बलवान
भिल्लन लूटी गोपिका!
       वही अर्जुन वही बान..

इससे आगे छेदी को किसी से कोई शिकायत नहीं । छेदी का कहना है कि किसी ने जो दिया वह खा लिया । शरीर जवाब दे गया है । पक्काघाट पर लगभग 60 वर्ष के मिट्ठू भी कथरी-चटाई लेकर दाऊजीघाट के सामने एक मन्दिर के आगे खुले आसमान में जाड़ा-गर्मी-बरसात गुजारते हैं । अति शिक्षित- सभ्रांत परिवार का यह वही मिट्ठू है, जो युवा काल में अपने स्टाइलिश केश सज्जा के लिये मशहूर था। उसके प्रति भी दीवानगी तब कम न थी। हिप्पी कट बाल के कारण तब वह हैप्पी मिट्ठू कहलाता था, अब समय के दर्पण में स्वयं को भी न पहचान पाता है। पता नहीं इस नियति को और क्या मंजूर हो , कल इन्हीं में से एक चेहरा अपना भी न हो ।

इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ
ग़ैर तो ग़ैर हैं अपनों का सहारा न हुआ
लोग रो रो के भी इस दुनिया में जी लेते हैं
एक हम हैं कि हँसे भी तो गुज़ारा न हुआ ...

 इस दर्द से दुनियादारी सीख रहा हूँ , पर नहीं पता जीवन की बाजी जीत या हार रहा हूँ।