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Wednesday 9 January 2019

गहरा सागर है यह जग सारा

गहरा सागर है यह जग सारा
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   पतंग उड़ाना तो आता नहीं था , बस किसी ने उड़ा कर डोर पकड़ा दी हाथ में तो उसी से खुश हो जाता था। परंतु उड़ते पतंग को सम्हाल नहीं पाता था , अतः डोर और पतंग जिसका था, उसे सौंप दिया करता था।
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न कोई उमंग है, न कोई तरंग है
 मेरी ज़िंदगी है क्या, इक कटी पतंग है
आकाश से गिरी मैं, इक बार कट के ऐसे
 दुनिया ने फिर न पूछा, लूटा है मुझको कैसे
न किसी का साथ है, न किसी का संग...

   नववर्ष के प्रथम दिन भावनाओं का उफन बार-बार पथिक से यह सवाल कर रहा था कि दोस्त , अब भी यहाँ क्या कुछ शेष है..? किसी का इंतजार है ..?? किस लिये दिन भर यूँ बेचैन से हो...???
           विचित्र सा प्रश्न था उसका भी , जो नादान बच्चे की तरह मचल रहा था । विवेक उसे समझा रहा था कि तुम्हारा तो एकाकी जीवन है , न तुम्हें इसके प्रति लोभ है और न ही मृत्यु का कोई भय ,न तो तुम किसी की जिम्मेदारी हो न ही किसी को तुम्हारा अवलम्बन चाहिए , ना ही किसी को तुमसे प्रेम है, न ही तुम्हारे स्नेह का कोई मोल है । समझो न जरा कि ऐसी खुशी के अवसर पर भला अपने घर - परिवार की व्यस्तता छोड़ तुम्हें वक्त कैसे कोई दे, सभी की अपनी विवशता है । अपने इस मासूम हृदय को समझाते हुए बढ़ते चलों बंधु , पीछे मुड़ने से कोई नहीं मिलेगा, फिर भी वह नहीं माना और इस झूठी उम्मीद में -

बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
 मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है उदास बेक़रार है ..

    शाम ढलते- ढलते दर्द से लहूलुहान हो गया। लगा फिरसे दिवास्वप्न और अतीत में भटकने उस काइट मेकर बूढ़े महमूद की तरह । इंटरमीडिएट में था ,तो अंग्रेजी की पुस्तक में एक अध्याय उसका भी था। मानों मानव जीवन की पूरी कहानी ही हो। उसकी खूबसूरत पतंग जो एक जमाने में नबाबों को लुभाता था, वह बदले वक्त में भद्रजनों के पांवों तले कुचल दिया गया था। उसकी दुकान बंद हो गयी थी । बस अब वह अपने नन्हे से पौत्र अली के लिये पतंग बनाता था। एक दिन उन्हीं स्मृतियों में खोया बरगद के तने से सिर टिकाया महबूब , फिर नहीं जगा, उसके दिवास्वप्न टूट जो गये थें।
      ब्लॉग पर इस वर्ष का पहला पोस्ट डालने से पहले रेणु दी को मेल पर बताया था और फिर मोबाइल फोन भी अपने पास से हटा दिया था। उस काइट मेकर सा ही कुछ - कुछ तकियों का  सहारा ले दीवार पर सिर टिका स्मृतियों में खोता ही चला जा रहा था। ऐसा लगा कि चेतना शून्य सा होता जा रहा हूँ। हर दृश्य अतीत के आईने में धुंधली दिखाई पड़ रही थी। तभी लगा कि कोलकाता में पांचवें मंजिल से ऊपर छत पर हूँ। पतंग उड़ाना तो आता नहीं था , बस किसी ने उड़ा कर डोर पकड़ा दी हाथ में तो उसी से खुश हो जाता था। परंतु उड़ते पतंग को सम्हाल नहीं पाता था , अतः डोर और पतंग जिसका था,उसे सौंप दिया करता था। ताकि वह आसमान से नीचे तो न गिरे। आज भी मेरे हाथ में न कोई डोर है न ही पतंग है। दूसरों  की उड़ती पतंग की डोर पकड़ बचपन वाली क्षणिक खुशी प्राप्त करने की वही मासूम सी कोशिश ने मुझे ही कटी पतंग बना दी है।
   इस वेदना से निकल सकता था , यदि आश्रम का वह जीवन मिल जाता । तब यह हृदय खाली डिब्बा था। माँ को खोने का दर्द भर था उसमें, जमाने भर की बातों से कोई वास्ता नहीं था। सो, ज्ञान की बातें ग्रहण करने में वह समर्थ था।  सच तो यह है कि मनुष्यों का आपस में स्नेह ( प्रेम ) घटता-बढ़ता रहता है । इसमें  स्थायित्व कहाँ होता है, यदि गृहस्थ धर्म से बंधे हैं, तो वहाँ आपसी समझौते को भी प्रेम जैसा ही मान लिया जाता है। उसमें वह सुगंध हो या न हो ..?
     आश्रम में एक बात समझ पाया कि साधक का अपने अराध्या के प्रति समर्पण बढ़ता ही जाता है। यदि उस स्नेह की डोर वह दूसरे को सौंप भी दे, तो भी वह कटी पतंग नहीं कहलाता है। ऐसा लगा कि वह स्नेह का डोर अनंत होता जाता है,उसका दूसरा छोर उसके इष्ट के हाथ में जो होता है।
  यह तो हमारी पुकार के ऊपर है , संकट काल में द्रोपदी ने कृष्ण को पुकारा और अद्भुत स्नेह वर्षा हुई। उसकी साड़ी  का दूसरा छोर उसने शिशुपाल वध के दौरान अपने सखा कृष्ण को समर्पित कर दिया था।वह उसके आराध्य के हाथ में  था , फिर कैसे होता चिरहरण ..?

  नववर्ष पर मेरे हृदय की वेदना वह पुकार नहीं बन सकी ,अतः लज्जित होना पड़ा मेरे स्नेह को इस बार भी।
    वैसे मैं अब किसी अज्ञात सत्ता में विश्वास नहीं करता। स्वयं को इस जगत रूपी भवसागर का एक बुलबुला मात्र समझता हूँ। अपने इसी मानव तन में देवासुर संग्राम की अनुभूति करता हूँ, इसी में धर्म- कर्म , स्वर्ग- नरक और दुख- सुख है, ऐसा मानता हूँ। इसीलिये नियति के छल पर मेरा मन सदैव आहत होता है।
           वहीं , जो लोग किसी एक आराध्य ( परमात्मा) के हो लिये हैं। उनके स्नेह की डोर टूटती नहीं, छुटती नहीं और कटती भी नहीं। उसकी पतंग ( मनोबल) सदैव ऊंचाई पर रहती है, क्यों कि कष्ट चाहे जैसा भी हो, उसे तो बस इतना ही कहना होता है-

बंदे दर पे उसीके अपने सर को झुका ले
फिर वो जाने अल्लाह जाने
उसके खेल निराले,वो ही जाने अल्लाह जाने..

     ऐसा आश्रम में देखा और उसकी मुझे अनुभूति है ।  मुखमंडल पर जो तेज कुछ ही महीनों में उस पवित्र वातावरण में आ गया था, फिर से वह चमक कभी वापस नहीं आयी पथिक की राह में । क्या मिलता था वहाँ, यही दो वक्त का भोजन ही न , पर मेरे स्वास्थ्य से शुभचिंतकों को लगता था कि आश्रम में तरमाल गटक रहा हूँ । रात्रि में भोजन भी वहाँ नहीं था, किसी को इसकी  चिन्ता नहीं रहती, हम सभी रात्रि में चिन्तन(साधना) करते थें । जिसके प्रति हमारा समर्पण था , उसके स्नेह की अनुभूति के लिये यह सब करते थें। लेकिन , अध्यात्म का एक ऐसा पेंच फंसा कि मुझे लगा कि स्वतंत्र चिन्तन के लिये आश्रम में कोई स्थान नहीं है। यदि वहाँ यह बताया जाए कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है,तो उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह कि किसी साधक को यह अनुभूति नहीं थी कि आम आदमी अपने परिवार के लिये दो जून की रोटी के लिये किस तरह से संघर्ष करता है।  वहाँ रोटी , कपड़ा और मकान का लोभ कहाँ था। जो मिला उसी से काम चला लो, यह सबक था हम सबके लिये। किसी प्रकार के दुख की अनुभूति फिर कैसे होती । हम तो उस सतनाम का जाप कर रहे थें । हमें उस दिव्य प्रकाश की अनुभूति करनी थी ।
   और अब आश्रम जीवन में परे  हम अपनी सम्वेदनाओं, भावनाओं , औरों की पीड़ा,अपनी महत्वाकांक्षा सहित किसी अपने का स्नेह पाने के लिये अपनी उर्जा का व्यय करते हैं। इसी भूलभुलैया में अटकते,भटकते और तड़पते हैं ।
   जब मन आहत होता , राह नजर नहीं आती हैं ,तो निराश हताश हो कहते हैं-

ओ इसका नाम है जीवन धारा ,इसका कोई नहीं किनारा
हम पानी के कतरे  , गहरा सागर है यह जग सारा
कभी जो आशा बनती है ,  वही निराशा बनती है
आशा और निराशा का ,  बस झूठा खेल ये सारा..

        जब कभी-कभी सोचता हूँ कि फिर से आश्रम में अपने जैसों के मध्य लौट जाना चाहिए। किसी विचारधारा के बंधन में स्वयं को बांध लेना चाहिए। लेकिन , पथिक का यह हठ है कि  जिस राह का चयन किये हो , उसी पथ पर चलते चलो । यहाँ भी समाज है, सेवा है , पहचान है और अपनापन भी है। पर शाम कोई अपना नहीं था। जिस तक मेरे विकल मन की यह पुकार पहुँच पाती-

ये शाम मस्तानी, मदहोश किये जाए
मुझे डोर कोई खींचे, तेरी ओर लिए जाए
दूर रहती है तू, मेरे पास आती नहीं
होठों पे तेरे, कभी प्यास आती नहीं
ऐसा लगे, जैसे के तू, हँस के ज़हर कोई पीये जाए..

शायद ऐसी कोई डोर मेरी नियति में थी ही नहीं।  आज भी याद है आश्रम की वह स्वभाविक मंद- मंद मुस्कान , कालिम्पोंग की वादियों से निकलने के खोती ही चली गयी। अब तो अपना दर्द छुपाने के लिये इसका अभियन भर करता हूँ।