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Wednesday 21 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

22/3/ 18

   करीब ढा़ई दशक से एक ही रंगमंच का कलाकार होकर भी  इतनी व्याकुलता क्यों है ? क्या खोया क्या पाया, इस पर आत्मचिंतन अपनी आत्मकथा के माध्यम से अब जब कर रहा हूं, तो यह व्याकुलता भी उतनी ही बढ़ती जा रही है, जिस दर्द को वर्षों पूर्व लगभग भूल सा गया था, वह कहानी फिर से याद हो आई है। जबकि अभी तो पहला अध्याय ही पूरा नहीं हुआ है।
     सच कहूं तो जिस रंगमंच पर मैं खड़ा हूं, अब वह बदबूदार हो चुका है। दुर्गंध के कारण घुटन महसूस कर रहा हूं। मुक्ति पथ की चाहत लिये व्याकुल पथिक बना भटक रहा हूं।  पता नहीं राह मिलेगी भी या फिर आखिरी शो भी इसी रंगमंच पर करना होगा, ठीक से कुछ नहीं कह पाता। हां,इतना तो अच्छी तरह जानता हूं कि जुगाड़ वाली आज की पत्रकारिता में मेरी इंट्री कब की बंद हो चुकी है। जहां से वापसी नहीं होने वाली है।
   अखबारनवीस की चमक दमक वाली झूठी दुनिया मेरा उपहास उड़ा रही है।  रात्रि में जब कभी 11 बजे साइकिल से अखबार बांटता गलियों में भटकता रहता हूं, तो युवा वर्ग के नये मीडिया कर्मी मुझे पागल , सनकी, मंदबुद्धि  प्राणी समझ बैठते हैं।  तो फिर आप ही बताएं कि इतने लंबे संघर्ष में मैंने क्या पाया। हां , कहने को इतनी पुंजी तो मेरे पास है ही कि प्रलोभन मेरी कलम पर भारी नहीं पड़े।
        धन की बहुत चाहत बचपन से ही मुझे नहीं थी। फिर ठहरने को जब स्थान मिल गया हो। मुकेरी बाजार वाली दादी ने भोजन की समस्या दूर कर दी हो। तो गांडीव कार्यालय से प्रतिदिन मिलने वाला चालीस रुपया , जो बाद में  प्रति माह दो हजार रुपया कर दिया गया। उसी में मैं आनंद महसूस करने लगा। फिर एक अच्छा हॉकर और पत्रकार बनने की बारी आई...।

क्रमशः

आत्मकथा

व्याकुल पथिक

22/3/ 18

   करीब ढा़ई दशक से एक ही रंगमंच का कलाकार होकर भी  इतनी व्याकुल क्यों है ? क्या खोया क्या पाया, इस पर आत्मचिंतन अपनी आत्मकथा के माध्यम से अब जब कर रहा हूं, तो यह व्याकुलता भी उतनी ही बढ़ती जा रही है, जिस दर्द को वर्षों पूर्व लगभग भूल सा गया था, वह कहानी फिर से याद हो आई है। जबकि अभी तो पहला अध्याय ही पूरा नहीं हुआ है।
     सच कहूं तो जिस रंगमंच पर मैं खड़ा हूं, अब वह बदबूदार हो चुका है। दुर्गंध के कारण घुटन महसूस कर रहा हूं। मुक्ति पथ की चाहत लिये व्याकुल पथिक बना भटक रहा हूं।  पता नहीं राह मिलेगी भी या फिर आखिरी शो भी इसी रंगमंच पर करना होगा, ठीक से कुछ नहीं कह पाता। हां,इतना तो अच्छी तरह जानता हूं कि जुगाड़ वाली आज की पत्रकारिता में मेरी इंट्री कब की बंद हो चुकी है। जहां से वापसी नहीं होने वाली है।
   अखबारनवीस की चमक दमक वाली झूठी दुनिया मेरा उपहास उड़ा रहा है।  रात्रि में जब कभी 11 बजे साइकिल से अखबार बांटता गलियों में भटकता रहता हूं, तो युवा वर्ग के नये मीडिया कर्मी मुझे पागल , सनकी, मंदबुद्धि  प्राणी समझ बैठते हैं।  तो फिर आप ही बताएं कि इतने लंबे संघर्ष में मैंने क्या पाया। हां , कहने को इतनी पुंजी तो मेरे पास है ही कि प्रलोभन मेरी कलम पर भारी नहीं पड़े।
        धन की बहुत चाहत बचपन से ही मुझे नहीं थी। फिर ठहरने को जब स्थान मिल गया हो। मुकेरी बाजार वाली दादी ने भोजन की समस्या दूर कर दी हो। तो गांडीव कार्यालय से प्रतिदिन मिलने वाला चालीस रुपया , जो बाद में  प्रति माह दो हजार रुपया कर दिया गया। उसी में मैं आनंद महसूस करने लगा। फिर एक अच्छा हॉकर और पत्रकार बनने की बारी आई...।

क्रमशः