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Saturday 8 December 2018

ऐ दोस्त मुबारक हो तुझे प्यार की शहनाई

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अपनी जिंदगी उस सराय जैसी है , जिसे चाहने वाले तो रहे हैं , जहाँ शहनाई भी बजती है ,पर औरों के लिये ,जिसपर उसका अधिकार नहीं ..
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के जैसे बजती हैं शहनाइयां सी राहों में
 कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है
के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूँही
 उठेगी मेरी तरफ़ प्यार की नज़र यूँही
 मैं जानता हूँ के तू ग़ैर है मगर यूँही
 कभी कभी मेरे दिल में, ख़्याल आता है ...
   
    उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच चुका हूँ , फिर भी यह शहनाई कभी मेरी राहों में नहीं बजी। कभी - कभी तो यूँ भी लगा कि वह मुझसे अपना हिसाब बराबर कर रही है, एक दर्द भरी तन्हाई देकर। कुछ यादों को दे ,उन वादों को भुला वह मेरे ख़्वाबों के घरौंदे को रौंद चुकी है। मुझे दंडित करे भी क्यों न वह , मैं उस बनारस का रहने वाला हूँ , जहाँ कभी इस फन के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ा रहते थें। जिन्हें देश के सर्वोच्च  सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे तीसरे संगीतकार हैं , जिन्हें भारत रत्न मिला । मैं उसी काशी का लाल होकर भी इस शहनाई से दूर रहा, तो तन्हाई के करीब मुझे जाना ही था।  यह एक सबक है मेरे लिये कि हर किसी का आदर करूँ । अन्यथा शहनाई जैसा मधुर वाद्ययंत्र भी प्रतिकार करेगा, प्रतिशोध लेगा।
     अतः मेरी तरफ जो नजरें उठती रहीं हैं , वह सम्मान लिये होती हैं, स्नेह के लिये होती हैं , पर उसमें उस शहनाई की गूंज कहाँ होती है  , जिससे अपनी तकदीर हो, तस्वीर हो। किसी ने क्या खूब कहा है-

कोई गम नही एक तेरी जुदाई के सिवा,
मेरे हिस्से मे क्या आया तन्हाई के सिवा,
मिलन की रातें मिली, यूँ तो बेशुमार,
प्यार मे सबकुछ मिला शहनाई के सिवा..

        बचपन से ही देखता आ रहा हूँ  कि जब भी अपने घर (वाराणसी) के अड़ोस- पड़ोस में किसी भी तरह का मांगलिक कार्यक्रम होता था,मुख्य द्वार के बाहर चबूतरे पर शहनाई वादक आ डटते थें। परंतु पता नहीं क्यों इसकी आवाज़ , तब भी मुझे पसंद न थी और अब भी नहीं है। बचपन में कोलकाता में था , तो सुबह जब माँ जब मुझे पढ़ने के लिये जगाती थीं , तो उनका ट्राजिस्टर भी वंदेमातरम .. गीत सुनाने से पहले शहनाई बजाने लगता था , कभी-कभी झल्ला कर कह भी देता था मैं कि ,माँ से कि यह क्या पे-पा लगा रखी हैं, बंद कर दें थोड़ी देर के लिये इसे न ..।
    मंदिरों में बजने वाले घंटा- घड़ियाल, अज़ान की आवाज़ और दर्द भरे नगमे से लेकर गीतों भरी कहानियाँ तक पसंद थीं, लेकिन बेहद खूबसूरत से दिखने वाली शहनाई बजते ही उसकी गहराई में उतरने की जगह वहाँ से पलायन करने के लिये मन मचल उठता था, जबकि तबले की आवाज़ मुझे बेहद प्रिय है। सच कहूँ तो मेरी मौजूदगी में घर पर ऐसा कोई अवसर कभी न आया कि शहनाई बजी हो , क्यों कि बहन- भाइयों में बड़ा मैं ही था । नियति की यह भी कैसी विडंबना रही कि कोलकाता, मुजफ्फरपुर और कालिम्पोंग जहाँ मैं रहा , वहाँ भी परिवार के किसी सदस्य के विवाह बारात का अवसर नहीं आया, तो फिर कैसे बजती यह , इस मामले में मुझे मनहूस कहा जा सकता है।
    अतः दांवे के साथ अपने बारे में कह सकता हूँ कि जब भी इस शहनाई को लेकर मन मचला है, चोट कहीं न कहीं जोर की लगी है, वह दिल पर लगे या बदन पर ..। ऐसे में यह दर्द उपहास करता है, हम सहम जाते हैं, फिर यही पीड़ा विश्राम देती है , हृदय पुनः शांत हो जाता है। अपनी जिंदगी उस सराय जैसी है , जिसे चाहने वाले तो रहे हैं , जहाँ शहनाई भी बजती है ,पर औरों के लिये । जिसपर उसका अधिकार नहीं , सिर्फ इस दुआ के-
  मुझे ना मिली जो वो खुशी तूने पाई
  ऐ दोस्त मुबारक हो तुझे प्यार की शहनाई
  दुआ मेरे दिल की, दामन मे ना समाय
  तुझे प्यार मिले इतना जीवन मे ना समाय
 
     इस  मुसाफिरखाने में जहाँ मैं हूँ न कोई अपना है, ना पराया है। यहाँ न जख्म़ है, न स्नेह , हम जैसे मुसाफिरों की बस्ती है यह। यहाँ कोई शमांं जलाने नहीं आता अपने कक्ष में। सच यही है कि  पथिक को  राह में साथी सदैव बिछुड़ने के लिये मिलते हैं। मंजिल सबकी अपनी होती है, फिर कैसे बजती शहनाई.. । अब तो इस तन्हाई में यूँ लगता है-

दर्द गूंज रहा दिल में शहनाई की तरह,
जिस्म से मौत की ये सगाई तो नहीं,
अब अंधेरा मिटेगा कैसे..
तुम बोलो तूने मेरे घर में शम्मा जलाई तो नहीं!!

    मेरी बात यहाँ समाप्त नहीं हुई है । इसे किस्सा-कहानी आप न समझे यह मेरे जीवन का सच है।  मैं सदैव अपने अपने मन को ढ़ाढस वर्षों से देता आ रहा हूँ  कि बंधु "  शहनाई " न सही  " अनहद " की आवाज़ भी  है अभी इस जीवन की राह में..!!
आश्रम के अल्पकालीन जीवन में ऐसा बताया गया था।

     आदरणीया साधना वैद्य जी की एक रचना पढ़ रहा था " शहनाई का दर्द " ,  जिसमें दो बातें गौर करने वाली हैं पहला हर क्रंदन को मधुर संगीत में बदलों और दूसरा दर्द सह कर भी दूसरे को सुखी रखने का प्रयत्न करों।

     मेरा सदैव से यही मानना है कि किस्मत साथ न दे तो भी कर्म से विमुख क्यों रहा जाए। रात्रि की तन्हाई में जब अपनी शहनाई नहीं सुनाई देती, तो सुबह के अंधकार में औरों का संघर्ष भी तो मुझे नज़र आता है। वह दर्द मुझे नज़र आता है, जहाँ शहनाई की नहीं पेट की क्षुधा मिटाने की ललक होती है। और तब दिल से यह आवाज़ निकलती है-

  ये किस मुकाम पर हयात, मुझको लेके आ गई
 न बस खुशी पे कहां, न ग़म पे इख्तियार है ...

       वैसे, एक बात कहूँ , जिस भी घर में , जहाँ भी यह प्रेम की शहनाई बजती मुझे दिखाई पड़ जाती है न , मैं  ठहर कर उस दृश्य को निःसंकोच देखता हूँ। इन दिनों अपने शहर के प्रातः भ्रमण पर एक प्यारा जोड़ा दिखता है। खिलखिलाकर आपस में कदमताल करते हुये, स्वस्थ रहने के लिये इस दाम्पत्य प्रेम से उत्तम भी क्या कोई टॉनिक है ..?
     यदि पुरुष समाज थोड़ा सा झुककर अपने जीवनसाथी को वह उचित सम्मान/ अधिकार दे  दें , जिस पर उसका हक बनता है। तो फिर देखें न जो स्नेह उसने दिया वह किस तरह से यह मधुर संगीत उसके जीवन में सुनाती है-

  तेरे सुर और मेरे गीत
दोनो मिल कर बनेगी प्रीत
धड़कन में तू है समाया हुआ
ख़्यालों में तू ही तू छाया हुआ
दुनिया के मेले में लाखों मिले
मगर तू ही तू दिल को भाया हुआ
मैं तेरी जोगन तू मेरा मीत..

    रविवार को जब कभी भी पुलिस अधीक्षक कार्यालय में स्थित परिवार परामर्श केंद्र की ओर मेरे कदम ठिठक जाते हैं, तो देखता हूँ कि कितने ही बिछड़े हुये दम्पतियों के टूटे वाद्ययंत्रों को पुनः समेटने और जोड़ने का प्रयत्न हो रहा होता है,ताकि इनके दाम्पत्य जीवन की शहनाई गूंजती रहे ।  किसी का चेहरा उदास न रहे , किसी की छाती दर्प से अकड़ी न रहे है। कोई थोड़ा झुक कर संभल जाएँ , फिर भी जिन्हें झुकना नहीं आता , वह अवसर गंवा देता है, बिखर जाता है उसका परिवार। इनसे बेहतर तो हम जैसे हैं , जिन्हें अपनी किस्मत से बस इतनी ही शिकायत है-

   हो, गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ
   दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ..

 शशि/ 9415251928 / 7007144343