काकी माँ..
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काकी माँ तो सचमुच बड़े घर की बेटी हैं। संकटकाल में भी वक्त के समक्ष न तो वे नतमस्तक हुईं , न ही अपने मायके एवं ससुराल के मान- सम्मान पर आंच आने दिया । वे संघर्ष की वह प्रतिमूर्ति हैं ।
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काकी माँ.. ! यह प्यार भरा सम्बोधन आज भी स्मृतियों में आकर मुझे आह्लादित कर जाता है। हाँ , इतने बड़े घर में एक काकी माँ ही तो थीं। जिनके समक्ष हुड़दंगी बच्चों की भी बोलती बंद हो जाया करती थी , फिर भी उनके चौखट पर हाजिरी देने परिवार के सारे बच्चे आया करते थें। आर्थिक परिस्थितियाँ चाहे जैसी रहीं हो, लेकिन काकी माँ न जाने कहाँ और किस तिजोरी से बिस्किट-टॉफी का जुगाड़ इन शैतानों के लिये किये रहती थीं। इनके जन्मदिन पर भी कुछ न कुछ वे देती ही थीं। कोई दर्जन भर बच्चे तो घर के ही थें।
वैसे मैंने स्वयं किसी को कभी काकी माँ नहीं कहा है। परंतु बचपन में इस कर्णप्रिय शब्द को उस घर-आंगन में गूंजते हुये देखा है। जिसका अब अस्तित्व ही नहीं है। वहाँ न संयुक्त परिवार रहा,न बच्चे रहें और नहीं ही काकी माँ । अब तो वे नानी माँ बन गयी हैं।
मैं यहाँ जिस भद्र महिला की बात कर रहा हूँ । विवाह के पूर्व वे बड़े घर की बेटी जैसी ही थीं । महानगर में रहती थीं और अपने माँ- बाप की लाडली बिटिया थीं। जिस परिवार से तब वे संबंध रखती थीं, वे धनिक थें। बंगला, गाड़ी और नौकर भी सेवा में हाजिर रहते थें। वैसे तो, काकी माँ के पिता उतने संपन्न नहीं थें , क्यों कि जब वे छोटे थें तभी माँ की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति का बंदरबांट हो गया था । फिर भी रहन-सहन उनका धनिकों से कम नहीं था , यूँ कहें कि वे दिल से अमीर थें । उनकी दो पुत्रियों में काकी माँ छोटी हैं। हर कार्य में निपुण और व्यवहारिक ज्ञान ऐसा है कि कई प्रांतों में फैले सगे सम्बंधियों से आत्मीयता आज भी कायम है।
हाँ, जिनके बीच वे रहती थीं , उस सोसाइटी के अनुरूप जरा बन संवर के रहना पड़ता था। बनावट, दिखावट और मिलावट ,भद्रजनों की यह एक गंभीर बीमारी है । वे समाज में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करना चाहते हैं। अतः उनके साथ उठते- बैठते काकी माँ ने भी अपने ऊपर यह आवरण डाल रखा था। सम्भवतः यदि वे ऐसा न करती तो हीन भावना से ग्रसित हो सकती थीं , उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता और इन जेंटलमैनों की सोसायटी में कोई उन्हें स्वीकार नहीं करता ।
इतने सम्पन्न परिवार के मध्य उनका अविवाहित जीवन ठीक-ठाक गुजर रहा था। एक नटखट बालक कुछ वर्षों तक इस परिवार का अंग रहा। वह अपनी नानी माँ और मौसी माँ का राजदुलारा था । कोलकाता जैसे महानगर के पहचान वाले कान्वेंट स्कूल में उसे दाखिला दिलाया गया था। काकी माँ उसे अंग्रेजी की कविता रटवाया करती थीं।
उन्हें पता था कि हिन्दी भाषी तभी जेंटलमैन कहे जाते हैं, जब विलायती बोली उनकी जुबान पर हो। लेकिन , दो बंगालियों को आपस में अपनी भाषा छोड़ अंग्रेजी बोलते उन्होंने भी कम ही सुना होगा ।
खैर वह शैतान बालक पढ़ने की जगह कमरे से लेकर बरामदे तक दौड़ लगाया करता था। माँ -बाबा( नाना-नानी ) तो उसे डांटते न थें कभी , ऐसे में काकी माँ की तिरछी नजरों से ही वह तनिक घबड़ाता था। वही क्या हर बच्चा काकी माँ की आँखों का इशारा समझता था। मायके और ससुराल दोनों ही जगह जब बच्चे शैतानी करते थें ,तो काकी माँ की सेवा ली जाती थी। ऐसे हठी बच्चों को रास्ते पर लाने के लिये डांट- फटकार एवं पिटाई की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी काकी माँ को। वे तो बस आँखें तरेरती थीं और स्टेच्यू बनकर खड़े हो जाते थें, ये सारे हुड़दंगी बच्चे । मानो वे अनुशासन की पाठशाला थीं । जिसने इसमें प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया । वह अडानी- अंबानी परिवार के मध्य पहुँच कर भी अपनी परवरिश पर गर्व कर सकता है। फिर भी उस नटखट बालक को यह औपचारिकता पसंद नहीं थी। बचपन से ही उसे दुनिया की हर दौलत से कहीं अधिक प्रिय था ,अपनों से मिलने वाला प्यार - दुलार। इसी स्नेह और अपनत्व के लिये न जाने क्यों आज प्रौढ़ावस्था में भी वह उसी बालक सा मासूमियत लिये मचलता है ?
वह नादान ,जिन्हें अपना समझता है, उसी से जब कभी दुत्कार मिलता है। तो अस्वस्थ तन से कहीं अधिक उसका मन आहत हो उठता है। अपनी इस निर्लज्जता पर वह क्या कहे ! संत बनने की चाहत है और भिक्षुक बना स्नेह की याचना करता है। उसकी अंतरात्मा उसे झकझोरती है कि धिक्कार है उसके जीवन पर , संकल्प में जिसके बल न हो ।
क्या यह विकल इंसान वही बालक है ,जो डिनर टेबल पर प्लेट से चम्मच का टकराव न हो, काकी माँ के इस फरमान को रद्दी टोकरी में डाल, कभी यह कहता था कि ऐसे भद्रजनों के मध्य उसका क्या काम ? उस बालक की निर्भिकता , स्पष्टवादिता एवं आत्म स्वाभिमान के समक्ष जब ऐसे जेंटलमैन मौन रहते थें, तो आज वह आत्मबल कहाँ चला गया उसका ? सम्भवतः इसीलिये कहा गया है , " समय होत बलवान "
लेकिन, काकी माँ तो सचमुच बड़े घर की बेटी हैं। संकटकाल में भी वक्त के समक्ष न तो वे नतमस्तक हुईं , न ही अपने मायके एवं ससुराल के मान- सम्मान पर आंच आने दिया । वे संघर्ष की वह प्रतिमूर्ति हैं , जो अपनी माँ , पिता , श्वसुर एवं पति की मृत्यु के पश्चात भी न टूटी और न झुकी ही। तब ऐसे संकटकाल में भी अपने धनाढ्य सगे सम्बंधियों से आर्थिक सहयोग उन्होंने नहीं मांगा था।
विवाह के बाद जब तक उनकी माँ जीवित थीं , ससुराल आना-जाना लगा रहता था। पति उच्च शिक्षा प्राप्त थें, परंतु दुर्भाग्य से अथवा अपनों के छल से, उनका व्यवसाय ठीक से चला नहीं। फिर भी मायके की छत्रछाया में उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय थी। लम्बी प्रतीक्षा के बाद एक नन्ही परी का आगमन उनकी माँ के रहते ही हो गया था। माँ ने तो पहले से ही नाती हो या नातिन सारी व्यवस्था कर रखी थी। लेकिन, काकी माँ के धैर्य की कठोर परीक्षा तब शुरू हुई , जब माँ का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। ऐसे में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी बमुश्किल ही हो पा रहा था । काकी माँ को तेल और नमक से चावल खाते कभी सगे- संबधियों ने नहीं देखा । कभी- कभी इस मुट्ठी भर चावल के लिये भी पैसे नहीं होते थें। उन्हें हल्दीराम का भुजिया और समोसा अत्यंत प्रिय है। कोलकाता में थीं, तो बाबा दिन भर तरह तरह के चाट और महंगे फल भेजा करते थें। शाम को वह बूढ़ा नौकर भेलपुरी बनवा कर लाता था। मलाई गिलौरी, मलाई लड्डू, काजू एवं पिस्ता बर्फी से लेकर संदेश, राजभोग , खीरमोहन और वह शुद्ध देशी घी का सोनपापड़ी तो नीचे कारखाने से ही आ जाया करता था। लेकिन यह ससुराल में अपने मुहल्ले के चौक पर स्थित प्रसिद्ध दुकान से वह बड़ा वाला समोसा जो, तब पचास पैसे में मिलता था , उस एक छोटे सिक्के की व्यवस्था भी कठिन थी।
परंतु उनका व्यक्तित्व इतना विराट था कि दरवाजे पर लटके पर्दे के पीछे के अपने जीवन संघर्ष की भनक तक उन्होंने अपने संयुक्त परिवार को लगने नहीं दिया। उनके हाथ की बिना घी लगी रोटी , कभी कड़ी नहीं हुआ करती थी। छोटी सी लौकी से वे रसेदार सब्जी इतना स्वादिष्ट बनाती थीं कि पकवान का स्वाद तक फीका पड़ जाता था। दीपावली - होली जैसे पर्व घर आने वाले मेहमानों को उनके हाथों से बने व्यंजन इस तरह पसंद थें कि सबसे पहले वे काकी माँ के दरवाजे पर ही उनके पति अथवा पुत्री का नाम लेकर आवाज लगाया करते थें। कांजीबड़ा, दहीबड़ा, मालपुआ सहित तरह - तरह के पकवान बनाने की व्यवस्था वे कैसे कर लेती थीं, यह रहस्य उनके दिवंगत पति भी नहीं जान सके थें।
हाँ,उनके शरीर पर से गहने एक-एक कर कम होते चले गये, फिर भी अपनी इस उदासी को पर्दे के उस पार नहीं जाने दिया। वह बालक जो समझदार हो गया था, उसे जब कभी वे अपने खाली हुये शरीर के उन अंगों को दिखलाती थीं, जिनपर मायके से मिले स्वर्णाभूषण शोभा बढ़ता थें, तो काकी माँ की डबडबाई आँखों में जिस दर्द को उसने देखा है, उसे कोई बड़े घर की बेटी ही सहन कर सकती है। फिर भी औरों के यहाँ आयोजित मांगलिक कार्यक्रमों में वे खाली हाथ कभी नहीं गयीं। बाद में एक दौर वह भी आया ,जब काकी माँ को सुबह से शाम तक चौका - बर्तन करते देखा गया। मायके में जिन हाथों से वे झाड़ू पोछा तक नहीं करती थीं। उन्हीं नाजुक कलाइयों से वे घंटे भर चटनी और मसाला पीसा करती थीं , क्यों कि उनके पति का व्यापार जब चौपट हो गया, तो पिता ने उन्हें नालायक समझ अपनी दुकान में मालिक नहीं, वरन् अघोषित सेवक के रुप में जगह दे रखी थी। सो, श्वसुर और उनकी मित्र मंडली के भोजन की सारी व्यवस्था काकी माँ ही किया करती थीं। श्रम उनका था और धन ससुर जी का।
देखें न नियति को यह भी कहाँ मंजूर था। ससुर जी ने जैसे ही आँखें बंद की , उनके पति को अपने ही सगे सम्बंधियों ने पिता की दुकान से बेदखल कर दिया। यह घृणित कार्य करते हुये , तनिक भी नहीं पसीजे थें, उनके भाई- भतीजे। बिल्कुल सड़क पर आ गया यह दम्पति। जीवकोपार्जन के लिये किसी तरह से एक छोटे से विद्यालय में नौकरी मिली थी उनके पति को। घर पर काकी माँ भी छोटे बच्चों को पढ़ा लिया करती थी। एक चिन्ता और थी उन्हें , पुत्री के लिये योग्य वर की खोज पूरी नहीं हो पा रही थी। उन्होंने तो बड़े घर की नातिन और अपने इकलौती संतान के लिये कितने ही स्वप्न संजोये थें। काकी माँ योग्य जमाता के लिये अनगिनत बार ईश्वर से प्रार्थना करती थीं,पर उन्हें क्या पता कि अग्नि परीक्षा तो अभी बाकी है और एक दिन ठंड के मौसम में विद्यालय जाते समय उनके पति की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। जो पिता सुबह से रात तक स्कूल-कोचिंग पढ़ा अपनी पुत्री के हाथ पीले करने का स्वपन साठ वर्ष की अवस्था में देख रहा था। वह सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। बाहदुर पुत्री ने ही तब पिता का अंतिम संस्कार किया था, क्यों कि सम्पन्न होकर भी सगे सम्बंधियों ने कभी भी उनकी आर्थिक स्थिति समझने का प्रयत्न नहीं किया । अतः बेटी ने पुत्र बन पिता को मुखाग्नि दी थी। वह बालक जिसे काकी माँ ने बचपन में बड़ा दुलार दिया था। वह भी उनके संकट में काम नहीं आया। वह तो किसी दूसरे प्रांत में दो वक्त की रोटी के लिये गुलामी कर रहा था।
अब बचीं माँ - बेटी । काकी माँ अपने जर्जर मकान में छोटे बच्चों को पढ़ाया करती थीं और उनकी पुत्री ने भी एक निजी विद्यालय में नौकरी कर ली। तब उनके मन में एक ही प्रश्न था कि किस अपराध का दण्ड मिला है। अपने मांग का सिंदूर तो उजड़ गया , परंतु पुत्री के हाथ पीले कैसे हो। अनेक प्रांतों में अति सम्पन्न रिश्तेदार जिसके हो , जिसने कितनी ही शादियों में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करवाई है। उसके आंगन में शहनाई बजवाने वाला कोई नहीं !
डगमगाने लगा था उनका स्वाभिमान। तभी एक चमत्कार सा हुआ और एक उच्चकुल के सुशील लड़के ने उनकी पुत्री का हाथ थाम लिया। इस तरह से काकी माँ के संघर्षपूर्ण जीवन का धुंध छंट गया। अब वे अपनी पुत्री, जमाता और सुंदर से नाती के साथ रहती हैं। इस अवस्था में भी दुर्बल तन को किसी तरह संभाल वे घर का काम काज किया करती हैं। अब वह प्यारा चंचल बालक जब नानी- नानी पुकारते हुये खिलखिलाता है , तो अतीत के आईने में काकी माँ को उसी का मुखड़ा नजर आता है। उस बच्चे के परवरिश में वे अपनी सारी वेदनाओं को न जाने कब का भूल चुकी हैं। काकी माँ अब बेहद खुश हैं, परंतु वृद्धावस्था ने अपना प्रभाव दिखलाना शुरू कर दिया है। फिर भी वे कोलकाता वाले उस शैतान बालक को भुला नहीं पायी हैं।
- व्याकुल पथिक
यहाँ काकी माँ कोई काल्पनिक पात्र नहीं हैं। वे आज भी जीवित हैं और प्रकाश स्तंभ के रूप में अपने परिजनों के कर्म पथ का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं-प्रणाम
बहुत महानता लिए है आपकी काकी माँ...जादू भरी लेखनी से जीवन्त कर दिया आपने कहानी को । पढ़ते समय यूं लगा जैसे यहींं कहीं आस पास हो ।
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी
ReplyDeleteजी प्रणाम, बहुत बहुत आभार आप सभी का।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 26/05/2019 की बुलेटिन, " लिपस्टिक के दाग - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी कहानी शशि भाई आप की लेखनी ने प्राण फुंक दिए
ReplyDeleteसादर
वाह!!बहुत ही खूबसूरत सृजन ।
ReplyDeleteजी आभार , प्रणाम।
ReplyDeleteबड़ी प्यारी और मार्मिक कहानी ,बड़े प्यार से एक शब्द रचे हैं आपने ,आप की काकी माँ का व्यक्तित्व और उनका जीवन सघर्ष पढ़ यूँ लग रहा था जैसे मैं खुद को देख रही हूँ ,बस मेरा सौभाग्य यही हैं कि -हम पति पत्नी अपने संघर्ष के दिन गुजार एक ठहराव पा चुके हैं। परमात्मा आप की लेखनी को और समृद्धि प्रदान करे यही कामना हैं ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार कामिनी जी, अच्छी लगी आपकी प्रतिक्रिया।
ReplyDeleteप्रणाम.
दिल को छूती सुंदर कहानी।
ReplyDeleteजी प्रणाम , बहुत बहुत आभार
ReplyDeleteप्रिय शशि भाई -- स्नेह और बुद्धिमता से भरी काकी माँ भारतीय नारी के उस शालीन और कुलीन रूप का प्रतिनिधित्व करती हैं जो सब सह लेती पर मायके अथवा ससुराल के सम्मान पर आंच नहीं आने देती | वो बुद्धिमानी और विवेक के पर्दे में सब छिपा का सब बातें तय कर ऐसी रणनीति के तहत अपने कर्तव्य और अधिकारों का निर्धारण करती है कि भीतर ही भीतर बिगड़ी बात संवर जाए और किसी को पता भी ना चले | ये वही भारतीय परम्परागत नारी है जो जीवन पर्यंत परिवार के पाल पोषण में अतुक्नीय योगदान देते हुए कमी के बावजूद इसी आस में रहती है कि अच्छे दिन जरुर आयेंगे | एक खुशहाल घर की लाडली बेटी से लेकर - एक पत्नी , बहु , माँ और नानी तक के काकी माँ के सफर को आपने बड़ी कुशलता से इस स्मृति चित्र में पिरोया है | अच्छा लगा जानकर कि काकी माँ अनेक उतार चढ़ावों से गुजरते अंततः जीवन की साँझ में एक संतोषजनक जीवन बिता रही हैं |उनकी नेकियों का ये मधु प्रसाद है जो ईश्वर ने उन्हें दिया है | और आपके लिए भी एक स्नेहिल छाँव बची है जिसका होना आपको भी एक सुरक्षा की अनुभूति करवाता है | भावनाओं से भरे इस सुंदर लेख के लिए हार्दिक शुभकामनायें |
ReplyDeleteजी सही कहा आपने दी।
ReplyDeleteआपका सर लेख लाजवाब,आपकी लेखनी को सलाम बड़ेभाई
ReplyDeleteआपका हर लेख लाजवाब,आपकी लेखनी को सलाम बड़ेभाई
ReplyDeleteबेहतरीन लेख है ।
ReplyDeleteलाज़बाब लेखनी काकी माँ के मानिक।
ReplyDeleteजी प्रणाम ,आभार।
ReplyDeleteजिन काकी माँ का वर्णन आपने अपने ब्लॉग में किया है, उनकी ज़िंदगी का हर दौर हृदय को छू जाता है। उनका समर्पण और उनकी सहनशीलता उनके परिवार से मिले संस्कारों का उद्घाटन करता है। जीवन में उतार और चढ़ाव आते रहते हैं। इन सबके बीच अपनी मर्यादा को कैसे बनाए रखा जाए, काकी माँ की कथा बताती है। सजीव वर्णन काकी माँ के जीवित होने की निशानी है। कुछ के जीवन में पहले से ही अच्छे दिन होते हैं, तो कुछ के जीवन में अच्छे दिन बाद में आते हैं। पर, अच्छे दिनों की आयु अधिक नहीं होती है। कोई न कोई कारण अच्छे दिनों के स्थायित्व को ढहा देता है। मुस्कुराते हुए चेहरों के पीछे दर्द को छुपा दिया जाता है। जीवन है, तो कुछ दर्द भी है। दर्द से मुक्ति के उपाय परिवार के सभी किरदार ढूँढ़ते हैं। भाग्य में जो लिखा होता है, वही होता है। ज़िंदगी धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहती है। सतर्कता और कर्म परिस्थितियों को बदल देते हैं। सच कहा जाए तो मनुष्य परिस्थितियों से बड़ा होता है। प्रार्थना, उद्यम, आविष्कार और चमत्कार की भूमिका जीवन को बदल देती है। कोई प्रेम और करुणा से भरा हुआ शख़्स मिल जाता है। ज़िंदगी बदल जाती है। कुछ संतोष मिलता है। इसी संतोष के साथ शेष जीवन भी बीत जाता है। कुछ चीजें ईश्वर के ऊपर छोड़नी पड़ती है भाई। हमेशा की तरह आपने मर्मस्पर्शी लिखा।
ReplyDeleteजी अनिल भैया,
Deleteविस्तार के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए आपका हृदय से आभार और प्रणाम
आप वास्तव में लेखनी के धनी हैं,काकी माॅ की कहानी केवल एक कहानी नहीं जीवन की सच्ची कथा व व्यथा है जो मन प्राणों को छूती है,थोड़ी देर के ही लिये सही जिसने पढ़ा उसकी आॅखें नम जरूर हुई होंगी,अपने बचपन की याद आ गई, मैं भी जब 4-5 महीने का ही था तभी बाबू जी मुझे मेरी माॅ को सौंप कर यह कहकर ईश्वर धाम चले गये थे कि यही अब तुम्हारा देखभाल करेगा,काकी माॅ की तरह मेरी माॅ भी कड़क ,स्वाभिमानी और हमारे परवरिस में कोई कमी न आये,इसका ध्यान रखती थीं,हमसे बड़ी हमारी तीन बहनें भी थीं जिनको इस समय के सुन्दर मुन्दर इंटर कालेज(उस समय के जूनियर हाई स्कूल) में घर के विरोध के बाद शिक्षा दिलाकर संस्कार दिये और मुझे स्नातक की शिक्षा दिलाई बिना किसी के आगे हाथ फैलाये,काकी माॅ आज भी जिंदा हैं,उनकी याद करके उनसे उनकी पाठशाला में जाकर जरूर पाठ पढ़ें और आत्मसात करें ।प्रिय शशि जी को मेरा प्रणाम
ReplyDelete- श्री रमेश मालवीय जी
👏 अत्यंत मार्मिक, हृदयगत है।काकी मां को कोटिश़ नमन
ReplyDeleteटिप्पणीकर्ता - श्रीमती ज्योत्सना मिश्र महिला पुलिस अधिकारी।
Aap ki kaki maan ke vyaktitva ,krititv aur mano vigyan se avgat hua,jis
ReplyDeletegarima ke sath ve arsh se
farsh tak ki jindgi ke dauran
din gujare ve gaur karne
Kabil hain, sukhe dukhe
same kritva ki jivant pratik
hain kaki maan aur na unhe
kisi se shikayat hai , na hi
apne svabhiman ka aatm
samarpan hai।
Aapne sundarta ke sat h pesh kiya hai ,laga ki ham
unhe dekh pa rahe hain।
टिप्पणीकर्ता -श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी जी, वरिष्ठ साहित्यकार
Kuchh log hote hain apni
Deletetarah ke hajaron me ek jo
toot bhale jayen par jhuk
nahin sakte,aap ki mausi
ji bhi isi shreni me aayengi.
भावात्मक सृजन
ReplyDeleteआभार, प्रणाम।
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी कहानी
ReplyDeleteजी आभार
Deleteशशि जी अत्यंत मार्मिक, दिल को छू लेने वाला लेख और लेख की मुख्य पात्र काकी माँ का चरित्र चित्रण। धैर्य कई बार अच्छे परिणाम लेकर आता है। नियति प्रबल है किन्तु धैर्य रख कर परीस्थितियों का सामना करने में ही समझदारी है।
ReplyDeleteउचित कहा आपने प्रवीण जी।
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