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Saturday 5 May 2018

मृत्यु भय या उत्सव

मृत्यु "भय" या "उत्सव"
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    मैं कोई थ्योरी नहीं लिख रहा हूं, यह सब कुछ प्रैक्टिकल है। मेरा जीवन ही एक प्रयोग है। इस लैब में प्रवेश कर मैंने उच्च, मध्य और निम्न तीनों ही वर्ग के लोगों जैसा जीवन व्यतीत किया है।  कभी बचपन में नौकर गोद में उठा कर स्कूल बस तक मुझे पहुंचाते थें और  फिर मेरे जीवन में एक दौर ऐसा भी आया कि नौकरी की तलाश में भूखे सड़कों पर टहलते हुये , रात्रि में किसी दुकान की पटरी पर सोया हूं।  अब भी ढ़ाई दशक से सड़कों पर ही तो अखबार बांट रहा हूं न। अत्यधिक श्रम के कारण इस अवस्था में जा पहुंचा हूं, जहां से एक स्वस्थ तन को पुनः पाना नामुमकिन है, अतः मैं मृत्यु के आलिंगन के लिये हर्षित मन से स्वयं को तैयार  किये जा रहा हूं। कोई अभिलाषा शेष नहीं रही। बात जब भी उत्सव की होती है, तो पता नहीं हम सभी अपने मृत्यु के उत्सव की आहट मिलते ही , क्यों इस तरह से व्याकुल हो उठते हैं। जबकि यह जीवन का अंतिम उत्सव होता है। मन को इतना निर्बल क्यों बना लेते हैं ,  बुद्ध को जिसने भी समझा होगा, महा निर्वाण के दौरान उन्होंने अपने शिष्य आनंन से क्या कहा और स्वयं भी तथागत ने अपनी मृत्यु का स्वागत किस तरह से किया, यह उस पर थोड़ा भी चिन्तन कर लिया जाए, तो मैं ही नहीं हर मनुष्य मृत्यु भय से मुक्त हो सकता है।  परंतु विडंबना यह है कि सांसारिक कार्यों और अपनों का मोह हमें यह आभास ही नहीं होने देता कि मृत्यु भी पीछे दबे पांव चली आ रही है। मेरे एक शुभचिंतक की मृत्यु गत माह ट्रेन में ही हृदयाघात से हो गयी। उन्होंने अपना व्यापार खड़ा करने में पूरे जीवन संघर्ष किया था। परंतु वानप्रस्थ आश्रम में पहुंचे के पश्चात भी व्यापार से मोह नहीं गया, अत्यधिक भागदौड़ भरे जीवन का परिणाम यह रहा कि मधुमेह के शिकार हो गये और स्वस्थ होने की चाह में दवा ले ट्रेन से लौटते समय, वह सफर उनके जीवन की आखिरी यात्रा बन गई। जीवन उनका धन और परिवार की साधना में गुजर गया। वानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का आनंन लेना तो दूर , अपनी मृत्यु के समय निर्वाण भाव को भी नहीं प्राप्त हो सकें, न ही उसकी आहट पहचान सकें, क्यों कि जीवन के इस आखिरी उत्सव को मनाने की कोई तैयारी उन्होंने कभी शुरु ही नहीं की थी। आज सारा व्यापार उनका वैसा ही चल रहा है, जिस आनंद की खोज में हर इंसान मंदिर-मस्जिद जाता है, पर वह तो उन्हें नहीं मिला न ! अब तो इतनी दुर्घटनाएं हो रही हैं कि पता नहीं किसकी मौत कहां छिपी बैठी हैं।  फिर हम कैसे मनाएंगे अपना निर्वाण उत्सव, कभी इस पर भी हमने चिंतन किया है, जबकि पूरे दिन कुछ न कुछ चिंता ही करते रहते हैं। अतः धीरे धीरे मैं, स्वयं को इस चिन्ता से बाहर निकाल रहा हूं। धन अर्जन का लोभ समाप्त हो चुका है। रही बात भोजन की ,तो परिवार न होने के कारण , उससे भी मुक्त ही हूं। यदि वाणी पर संयम हो भी जाए, तब अगली परीक्षा फिर नेत्र संयम और सबसे कठिन कार्य तो मन पर नियंत्रण है। इन्हें साधने के पश्चात ही हम अपना निर्वाण उत्सव मना सकेंगे। बुद्ध का सानिध्य इसलिये मुझे सदैव आनंदित करता है। महानिर्वाण के समय की उनकी मुद्रा मुझे मृत्यु उत्सव का बोध करवाती है। अतः 1998 में मलेरिया होने के बाद से मित्र बन गये इस ज्वर की पीड़ा और दुर्बल पड़ चुके शरीर के प्रति किसी तरह का मोह अब मुझे नहीं है। वैसे, तो स्वामी रामतीर्थ ने अपने महाप्रयाण के समय क्या कहा था, उस पर भी मैं  चिंतन करता हूं, परंतु मेरी दृष्टि में बुद्ध का महाप्रयाण श्रेष्ठ है। रही बात ब्लॉग पर लेखन की । करीब ढ़ाई दशक से मैं अखबार के पन्ने पर यही तो करते आ रहा हूं। परंतु वहां अपने लिये कुछ कर पाना तो दूर अपनों से भी दूर हो गया हूं मैं। फिर भी बहुत कुछ सीखा हूं, इस रंगमंच पर एकाकी लम्बे सफर में। मेरे जीवन के ये अनुभव कोई किताबी ज्ञान नहीं हैं ! फिर भी यदि तलाश करेंगे तो इसमें आपको अपने काम की कुछ सामग्री मिल ही जाएगी।

(शशि)

6/5/18