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Wednesday 20 March 2019

अपनी अपनी किस्मत है ये..

अपनी अपनी किस्मत है ये..
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 भले ही वह टूटे हुये साज़ से बसंतोत्सव न मना सका हो और न फागुन के गीत उसकी जुबां पर हो, फिर भी वह दर्द को चंद शब्द दे सकता है।
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अपनी अपनी किस्मत है ये
कोई हँसे, कोई रोये
 रंग से कोई अंग
भिगोये रे कोई
असुवन से नैन भिगोये..

  आयी मस्तों की टोली,खेलेंगे हम होली...। होली का पर्व हो और यह गाना सुनने को न मिले , यह कैसे सम्भव है । चाहे परिस्थिति कैसी भी हो किसी के खुशी और किसे के ग़म में बराबरी का साथ निभाता है यह गीत ।
 किस्मत , नियति, प्रभुकृपा, पूर्व जन्म का संचित कर्म  और  वर्तमान में किया गया धर्म-कर्म इन सब बातों में उलझ कर रह जाता है यह मानव जीवन। कभी किसी का हृदय इस कदर व्यथित हो जाता है कि जीवन के प्रति अनाकर्षक की मनोस्थिति में पर्व- त्योहार की आहट सुनाई ही नहीं पड़ती और यदि पड़ी भी  हृदय की पीड़ा को पुनः बढ़ा जाती है।
   फिर भी सत्य यही है कि जब तक जीवन है, तभी तक ये सारी अनुभूतियाँ हैं , हर्ष है एवं विषाद भी है। अन्यथा जब भी ऐसी खुशी के अवसर पर पथिक को माँ की याद आती है। मुकेश की यह आवाज -

 दुनिया से जाने वाले, जाने चले जाते है कहाँ
 कैसे ढूंढे कोई उनको, नहीं क़दमों के भी निशाँ
 जाने है वो कौन नगरिया, आये जाए ख़त न खबरिया
 आये जब जब उनकी यादें, आये होठों पे फरियादें
 जाके फिर न आने वाले, जाने चले जाते हैं कहाँ...

    फिर से दर्द दे जाती है । विचित्र सफर है जिंदगी का भी, इंसान अपने ख़्वाबों को सच करने के लिये क्या नहीं करता है। हर कोई दिवास्वप्न ही नहीं देखता है, अनेक ऐसे भी हैं कि अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिये कितनी भी कठिन राह क्यों न हो, उस पर चलते हैं, बढ़ते हैं।  सांप- सीढ़ी के खेल की तरह उन्हें कोई गॉड फादर नहीं मिलता कि वह पलक झपकते ही आसमान से बातें करने लगे। वह तो बड़े धीरे-धीरे कदम जमा कर लक्ष्य की ओर बढ़ता है, फिर भी यदि उसका यह समर्पित कर्म नियति  को रास नहीं आयी , तो वह उसके लक्ष्य के मार्ग में सीढ़ी बनने की जगह सर्प बन डस लेती है। ऐसे में कर्म का उपासक टूट जाता है और बिखर जाता है। कोई सांत्वना , प्रार्थना और  ऐसी खुशियों के पर्व उसके लिये बेमानी है।
   यहाँ तक कि योगेश्वर कृष्ण की गीता का यह ज्ञान भी कि कर्म करते रहो , फल की कामना न करो। जब पुनर्जन्म का कोई साक्ष्य न हो, तो वर्तमान में किये गये कर्म के अनुरूप ही मानव को दण्ड और पुरस्कार क्यों नहीं मिलता ? यदि यह न्याय व्यवस्था तय होती, तो सारे क्लेशों का निराकरण स्वतः ही हो जाता। परंतु यह कौन सी किस्मत है कि कर्म उससे समझ नतमस्तक है, सिवाय यह कहने के-

   ज़िंदगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
   कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
  है ये कैसी डगर चलते हैं सब मगर
   कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं ..

     अतिथिगृह(चंद्रांंशु भैया के राही होटल)  में एकाकी पड़ा पथिक रंगोत्सव के इस पर्व पर जीवन के इसी रहस्य , सृष्टि के इसी सृजन और नियति के इसी उपहास पर  परिस्थितिजन्य कारणों से विक्षिप्त सा बना ठहाका लगा रहा था कि क्या खूब धर्म कर्म का भ्रमजाल फैला रखा है उसने , जबकि करती वह अपने मन की ही है। मानो एक  निरंकुश सत्ता , जिसके लिये न्याय- अन्याय की बात बेमानी है।
    दिन चढ़ने लगा है, बाहर होली का हुड़दंग शुरु हो गया है। यदि वह भी कोलकाता में होता , तो चौथी मंजिल से सड़क पर रंगों से भरा बैलून फेंकता और पीतल की वह पिचकारी जिसे तब उसके बाबा ने दिलवाया था, जब वह पाँच वर्ष का था, उसे ले जमकर होली खेलता, फिर सायं नये वस्त्र धारण कर अबीर लेकर निकलता । कांजीबड़ा, दहीबड़ा, सांगरी की राजस्थानी सब्जी और साथ में मेवे व केसर वाली खीर आज उसे मिलती। पर अब न तो माँ है , न ही बचपन, सिर्फ स्मृतियों का  एक झरोखा है और यह अस्वस्थ तन- मन । अभी तो उसे समझ में यह भी न आ रहा है कि आज सुबह क्या जलपान करे वह। दोपहर एक बजे की प्रतीक्षा है, उससे मित्रों ने कह रखा है कि आज दोपहर का भोजन उनके घर से  आ जाएगा। वैसे, नगर विधायक रत्नाकर मिश्र, पूर्व राज्यमंत्री कैलाश चौरसिया और केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल के गुझिया वाले डिब्बे पड़े हुये हैं। हाँ , घनश्याम भैया ने आलू का पापड़ भी दे रखा है। विंध्यवासिनी भैया भोजन भेज ही रहे होंगे।
   उसे याद है कि बनारस की होली में तब गंदगी बहुत थी। रंगों की जगह नाली के कींचड़ से स्नान और कपड़ा फाड़ होली, बड़ा ही विकृत स्वरूप था। गदहा वाला बारात भी तो निकलता था। लेकिन, सायं होते ही बनारसी होली की भव्यता देखते ही बनती थी। नये वस्त्र पहन अधिकांश लोग दशाश्वमेध घाट की ओर जाते थें। चौसट्टी देवी दर्शन को जाने की वहाँ एक परम्परा है। यहीं बंगाली टोले का स्पंज वाला रसगुल्ला खाने को मिलता था। परंतु माँ की याद , उसके स्वाद को कड़ुवा कर देती थी। होली तो मुजफ्फरपुर(बिहार) में भी उसने कभी नहीं खेली है । हाँ , वह मालपुआ , जिसमें उसकी मौसी का स्नेह छिपा था, उसे कैसे भुला सकता है। वे तो जब होली पर मीरजापुर आयी थीं , तब भी उसके लिये इसकी व्यवस्था में पीछे न रहीं। मुजफ्फरपुर की होली में तब संयुक्त परिवार का उल्लास देखते ही बना । भले ही सभी का चूल्हा अलग था, परंतु संबंध आपस में मधुर थें। रंग खेलने.के लिये छोटे- बड़े ढेर सारे बच्चों की टोली तो घर पर ही थी। कलिम्पोंग की होली भी एकाकी ही बीती उसकी, लेकिन फिर भी भावी जीवन को लेकर एक उल्लास , उमंग और मनमीत की आश थी, जो पेट की भूख की आग, कठोर श्रम और समयाभाव  के कारण मीरजापुर की इन अनजान गलियों में कहीं गुम हो गयी। यहाँ वह ढ़ाई दशक से है, फिर भी  खुशियों से नाता कुछ इस तरह से टूट गया है कि किसी भी पर्व पर न जाने क्यों मन उदास हो जाता है और फ़िर तो कुछ यूं ही गुनगुनाते रहता है वह -

चल अकेला चलअकेला चल अकेला
तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला
हजारों मील लम्बे रास्ते तुझको बुलाते
यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते
है कौन सा वो इंसान यहाँ पर जिसने दुःख ना झेला...

  वैसे, गत वर्ष इसी मार्च माह में जब वह ब्लॉग पर आया था, तो व्याकुल पथिक बन कर, विरक्त भाव की चाहत में , परंतु इस लक्ष्य प्राप्ति  को लेकर अब बहुत उतावला नहीं है, क्यों कि वह जीवन का एक रहस्य तो समझ गया है कि पता नहीं यह नियति फिर से सर्प बन कब डस ले , सीढ़ी बन उसने कभी सहयोग तो किया नहीं, फिर भी धन्यवाद उसे , इस एकांत के लिये, जो पथिक को सृजन का अवसर दे रहा है। हाँ, इस आभासीय दुनिया में भी उसके कुछ शुभचिंतक हैं , जिन्होंने होली पर उसे भुलाया नहीं। यह भी पथिक के लिये बड़ी उपलब्धि है। भले ही वह टूटे हुये साज़ से बसंतोत्सव न मना सका हो और न फागुन के गीत उसकी जुबां पर हो, फिर भी वह दर्द को चंद शब्द दे सकता है।

होली के रंग में मिर्ज़ापुर के जैंटलमैन

बुरा न मानो होली है

होली के रंग में मिर्ज़ापुर के जैंटलमैन






रंग बरसेss मैडम  दुआर , बुआ-भतीजा तरसे ...
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मिर्चपुर। ऐसी मारी पिचकारी सबकी डूबी लुटिया..रंग बरसे मैडम दुआर , रंग बरसे...
इहा सेंटर मनिस्टर अनुपिया के भरहुरा वाले पार्टी दफ्तरवा में चुनावी होली शुरु होई गवा बा । माननीय दम्पति क जुगलबंदी देखे बदे जवनकन से लइके बुढ़वन तक अगवाड़ - पिछवाड़ एक किये हयन । लहर नापे वाली मशीन बतावत बा की  "अनुप्रिया विकास ब्रांड"  चाय अऊरो मोदी क गुड़हवा जेलबी इ मीरजापुरियन की जीभ पर लासा की तरह लगल बा।अबही इ पता नही बा की चींटा लगी की मक्खी। तउनो पर मटक चटक के साथ आपन चेहरा देखाई की गुणावली गाने वालन क चउचक भीड़ जुटल बा । अउर एक बात इ बा की इहा क मलिकार आशीष फ़टेल का इंजीनियरिंग पावर देख बड़कन क सोशल इंजीनियरिंग फेल बा। इहे टीम में बुढ़ऊ चचा रमाकांत फटेल , मिनिस्टर क मीडिया  सलाहकार रामकुमार विश्वासकर्मा उऊरो नितिन विश्वासी, स्टोर कीपर संजय फटेल क रंग चोख बा।  मिनिस्टर साहिबा विकास का रंग गुलाल लेकर अपने बड़का भाई सांसद रामशकल अउरो छनवर क दुलरुआ विधायक राहुल परकाश कउल संग होली खेले निकले बाटिन। इहा उत्सव भवन में मोदनवाल बिरादरी क छुटका चउदली घनश्याम हेलुआई शोर मचायल बायन ' होरी खेलब मोदी संग यार ,
बलम तरसे मैडम कs रंग बरसे.. ।
मत खिसियाओ बबुआ हमार,
बुआ- भतीजा दुनो तरसे, वोट बरसे।
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भोंपू हमार बरियार बा..
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मिर्चपुर। भोंपू हमार बरियार बा, नाम मोदी ब्रांड बा। सर्जिकल स्ट्राइक क बहार बा , अऊर मोदी के पार्टी क पो पो  बा। इहे शोरगुल में बुआ- भतीजे, बबुआ क दुलरिया बहिन क मसखरी गुम बा । काहे कि देश भर क पब्लिक " हई वाला ले " कह इन बड़कन नेतवन क एफ-16 की तरह लखेदत मारत बा। भगवा खोंस पलंग तोड़ तांडव जनता करत बा ।  हाल इ बा अपने जिला क कि कउनो भड़ैती विपक्षी दलन क खोंकी बंद नहीं कर पावत बा । अउरो सुना इ मोदी बैंड पार्टी इन बड़कन विपक्षी नेतवन का इ कह के परिहास करत बा कि जाओ- जाओ - जाओ किसी वैद्य की बुलाओ , तू है सत्तालोभी,मोदी- जोगी को बुलाओ...।  इ बैंड पार्टी क दो गो बड़का सरदार रत्नाकर मिसरी अउर रमाशंकर फटेल त हयन साथ में बिजिनेस मैन बंधु विश्वनाथ और बंशीधर अग्रवालिन भी झुमका गिरा रे, मोदी के बाजार में गा ठुमका लगावत हइन। संग में इ नचनिया बैंड पार्टी के थियेटर क मलिकार नीरज अगरवाल अउरो राही होटुल क गोकुल चंद्रांशु गो यल भी दुई  ढोलची भाई ज्ञानचनदर और सतीश अगरवाल  के साथ लइके पिछवाड़े से जोगीरा सा रा रा.. मोदी मारे पिचकारी का  चिल्ल- पों मचावत सबके मोदी रंग से तराबोर करइ में लगा हयेन । भयवा अब देखा रंग चढ़त बा की बुखार।
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सरकार  केहू क होखे , हमके कहाँ बिसराम बा..
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कविपुरम । "भइया ई इलेक्शन बा, जगाऊँ ब और ढकेलब हमार काम बा। अउर इलेक्शन बाद सलेक्शन  केहू क होई , हमके कहां बिसराम बा। काहे से कि हमार नम वईं डा0 विश्राम बा,ई समय प्रतापगढ़ हमार ठेकान बा "
   ....बलिया के कलक्टर से उत्कृष्ट सेवा सम्मान से जगमग अपने साहब का भौकाल सगरो टाइट बा। उ गाना बा न कि मोरे लचके ला कलमिया, त काशी , बलिया हिले ला। अपने इ मीरजापुर में जब बिसराम साहब एसडीएम रहलन , त जेहर-जेहर खोंखलन वहर के बड़कन नेतवन के काली खांसी होगइल। नाहीं पतियात है, तो गवाह में  छोटू फटेल भइया सामने खड़ा हैन। अबकि होली में इहो डाक्टेर साहब का पलंग तोड़ प्रोग्राम बा। उहे अमरदीप भइया क नयका रिट्रीट होटल में उनकर पुरुषार्थ क सम्मान बा, जेकरे बिलुका में धीर प्रताप जायकेवाल, ठाकुर ज्ञान परताप जइसन  कइयो जेंटलमैन लोगन क कारोबार बा , इहे देख गैलेक्सी होटल क रजी मियां खिसियान बायन , काहे से की इ टीम उनकरे होटल का पुरान मेहमान बा। त भइया पलंग तोड़े पुरुषार्थ सम्मान समारोह में जाये से पहिले , पतली गली क रस्ता हेरे के पड़ी। अउरो सुनी रउवा विशिष्ट मेहमान  रसड़ा क दमदार विधायक  उमाशंकर ठाकुर जी क हाल इ  चुनाव में उभयलिंगी बा । काहे से कि उनकर कारखास सोनू ठाकुर के पास जोगी सरकार क एगो गुप्त पैगाम बा। ठकुरसुहाती त बोले के पड़ी, शिक्षकन क सरदार पदमदेव दुवेदी क इहे निक सलाह बा ।
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छोटा बच्चा जान के हमको....
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मिर्चपुर। पालिटिक्स प्लेटलेट्स केकर बढ़ल - घटल बा, इ कुल नापे कs हम लइ कनक नाही काम बा, काहे से की बउआ हमार नाम बा...।
इ इलेक्सन में गुलाब जामुन, मलाई - रबड़ी , राजभोग क बहार बा ,पर हमने क हाल " ठनठन गोपाल बा " ।  तरमाल चापे के ना ही केऊ जुगाड़ बा। वइसे मंत्री त हमहूँ रहली अखिलेश भैया के राज में,कइलाश चउलसिया नाम सरनाम रहल। लेकिन , पांच बरस पहीले मोदी के अखाड़े में ताल का ठोकली की हाल इहे हो गइल बा कि डाइपर बेबी कही- कही के संगी दोस्त हमने के लुलुआत बा।  लेकिन इ मनोज भयवा के का भयल कि अपनही सरकार में लंगोटी ढील बा। जबकि घंटाघर क सरताज हयन । लगत बा उहो केहु के बिल - बिलुक्का में उंगली किये हयन।  रउवा संतोष इहे बात क बा कि हमरे टीम में जवाहर मोरिया, अब्दुल्लाह भाई  , सिद्धनाथ ठाकुर, आशीष गुझिया , मनोज खंड लवाल, संदीप गुप्त जइसन  धुरंधरों छुछुआत हैन । इ किस्मत क खेल बा, वइसे हमनी के अबकि जनता क  दुलरुआ बने के बा। जिन मिले रबड़ी- मलाई, इहे दुधवा पी कर हमनियों मोटात हई। उ गनवा बा न कि छोटा बच्चा जान के न कोई आंख दिखाना रे।  डुबी डुबी डब डब। अकल का कच्चा जानके हमको न समझाना रे...।