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Wednesday 30 September 2020

प्यार का तोहफ़ा

(जीवन के रंग)

  बंगाल के सबसे बड़े पर्व दुर्गा- पूजा पर बंगालियों का रंग-ढंग देखते ही बन रहा था। बंगाली स्त्रियों का कहना ही क्या,पूजा के पाँचों दिन षष्ठी से दशमी तक वे अलग-अलग परिधानों में जो दिखती हैं । सप्तमी की संध्या के लिए अलग साड़ी, तो अष्टमी के अलग वस्त्र। नवमी के दिन माथे पर लाल सिंदूर , सिर पर बड़ी-सी लाल बिंदी ,लाल रंग की साड़ी और उसी रंग की चूड़ियों में इन्हें देख ऐसा लगता है कि धरती पर मानो स्वयं देवी ही उतर आयी हों। दशमी की शाम वैसे तो माँ के जाने का गम होता है,फिर भी माँ को पूरे उमंग और उत्साह से भावपूर्ण विदाई देने के लिए ये बंगाली औरतें चौड़े लाल पाड़ वाली साड़ी पहनती हैं। सुहागिन स्त्रियाँ एक दूसरे संग सिंदूर की होली खेलती हैं ,  जिससे सभी की साड़ियाँ एक जैसी रक्तवर्णी हो जाती हैं। इनकी नम आँखों में अगले साल माँ के पुनः आगमन की प्रतीक्षा होती है। इसी आशावाद से यह मानव जीवन संचरित है। किन्तु सोनम मुखर्जी के लिए ऐसे पर्व सदैव दर्द का पैगाम लेकर आते हैं। उसके अपने जीवन में कोई आशा और उमंग जो नहीं रहा। दिल की ख़ामोशी चेहरे पर छिपाये नहीं छिपती। वह ऐसे उल्लास भरे अवसर पर भी नीली पाड़़ वाली पुरानी सफ़ेद साड़ी पहने अष्टमी व्रत-पूजन की तैयारी में जुटी हुई थी। 

डा0 सुशांत उसके दुःख से अनभिज्ञ नहीं है,किन्तु इस संदर्भ में जब भी कोई पहल करना चाहता, सोनम की गरिमामयी देवी तुल्य छवि जो वर्षों से उसके हृदय में है, संकोच की दीवार बन जाती है। आज वह चिकित्सक है,तो यह इस देवी के त्याग और तप का परिणाम है, परंतु बदले में सोनम को क्या मिला ? एकाकी जीवन, न अपना घर-न कोई स्वप्न ।जिसके लिए सुशांत स्वयं को जिम्मेदार मानता है। चाहे जैसे भी हो सोनम की खुशियाँ वापस लाकर ही रहेगा, इसे लेकर वह स्वयं को दृढसंकल्पित कर चुका था । वर्षों पूर्व माँ की मृत्यु से वीरान पड़े उसके घर में इस बार विजयादशमी और दीपावली मनायी जायेंगी , ऐसा निश्चय कर सुबह अवकाश के दिन भी हॉस्पिटल जाते समय उसने पहली बार अधिकार भरे स्वर में सोनम से कहा था -" शाम मैं आपको ऐसा तोहफ़ा दूँगा,जिसमें हम दोनों की खुशियाँ हैं,तैयार रहिएगा.. और हाँ, ना-नुकुर बिल्कुल नहीं चलेगा।" 

 सुशांत के जाने के पश्चात उसका यह 'सरप्राइज गिफ्ट' सोनम के मन को उद्विग्न किये हुये था। यह उपहार उसके लिए एक पहेली जैसा था। इस विषय पर वह जितना ही चिंतन करती, उतनी ही चिंतित होती जाती ।वह विचारों के दलदल की गहराई में धँसी जा रही थी । उसके मुखमंडल पर कभी स्त्रीयोचित लज्जा का भाव छा जाता तो कभी सामाजिक उपहास के भय से सिहर उठती । "क्या करे वह ? कैसे मनाए इस जिद्दी युवक को जिसने किशोरावस्था से लेकर अब-तक उसकी कोई भी बात नहीं टाली थी,मानो रोबोट हो,किन्तु इसबार उसके लाला ने उससे कुछ मांगा है ?" इस विषय पर वह स्वयं से अनेक प्रश्न करती और खुद ही निरुत्तर हो जाती। " हे ईश्वर ! तुझसे यही प्रार्थना है कि मेरे कारण  सुशांत की समाजिक प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने पाए।"  जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था , सोनम की धड़कनें तेज होती गयीं।इन दोनों के बीच वर्षों से पवित्र स्नेह का ऐसा संबंध है,जो बिना कहे एक दूजे की भावनाओं को बयां कर देता है, इसलिये सुशांत के निश्छल व मासूम हृदय की आवाज़ सोनम तक पहुँच रही थी। जिसने उसे विकल कर रखा था। "नहीं-नहीं , यह अनर्थ नहीं होने देगी।उसके वर्षों की तपस्या का परिणाम है डा0 सुशांत। यही कोई तीस वर्ष का ही तो है। अभी उसका पूरा भविष्य सामने है।"

  तभी उसके मानसपटल पर अतीत से जुड़ी अनेक खट्टी-मीठी यादें चलचित्र की भाँति दृश्यमान होने लगती हैं। अठारह वर्ष पूर्व जब वह  बीस की थी,तब अपनी विमाता से प्रताड़ित होकर घर छोड़ कोलकाता भाग आयी थी। भीड़ भरी सड़कों पर उसके तन को घूरती अनेक आँखों के मध्य सौभाग्य से सुशांत की विधवा माँ से कालीबाड़ी में भेंट हो गयी। जिनका ममत्व भरा आँचल उसका सुरक्षा कवच बन गया। उसकी काकी एक कुशल नर्स थी । दो-ढ़ाई वर्ष उनका यही सानिध्य ,भविष्य में सोनम और सुशांत की आजीविका का वर्षों सहारा बना रहा।

  उसे वह मनहूस दिन भलिभाँति याद है , जब जानलेवा ज्वर ने उसके आश्रयदाता से उसका जीवन छीन लिया था। महाप्रयाण से पूर्व उस विधवा माँ ने अपने इकलौते पुत्र को उसके समक्ष कर अश्रुपूरित नेत्रों से कहा था -" बेटी ,जब से तू आयी है, इस नटखट के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखा है। इस घर के कुलदीपक को बुझने मत देना। प्रयत्न करना कि यह पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाए। मेरे पास तुझे देने को इन आभूषण के सिवा और कुछ नहीं है , इन्हें रख ले। "

 जिसे सुनकर सोनम की आँखें भी बरसने लगी थीं । उसने रुँधे गले से कहा था-"काकी, ऐसा न कहें, हम आपको कुछ नहीं होने देंगे।" लेकिन अगले ही पल उसकी काकी की साँसें उखड़ने लगीं । फिर भी अपनी अधूरी बात पूरी करते हुये उन्होंने पुत्र से कहा था-" बेटा, यह सदैव याद रखना कि इस घर पर सोनम का भी तेरे समान अधिकार है। उसे कभी कष्ट मत देना।" और अगले ही क्षण करुण-क्रंदन से वातावरण बोझिल हो उठा था।

   उस दुःखद दृश्य का स्मरण कर सोनम की आँखें फिर से डबडबा उठी थीं ।वह यह कैसे भूल सकती है कि नवमी का ही दिन था जब काकी उसे एक बड़ा दायित्व सौंप विदा हो गयी थी। और आज उनकी मृत्यु के सोलह वर्ष पश्चात इसी दुर्गापूजा पर्व पर यह बावला सुशांत उसके लिए उपहार की बात कर रहा है। "डाक्टर हो गया तो क्या कोई अपनी माँ को भूल जाता है !  "नहीं-नहीं  ऐसा कोई तोहफ़ा स्वीकार नहीं करेगी। न ही पर्व की खुशियाँ मनाएगी । होता है नाराज तो हो ले।",ऐसा विचार कर वह पुनः अपनी स्मृतियों में खो जाती है।

  विधि जब प्रतिकूल हो, पग-पग पर दुर्भाग्य सामने खड़ा होता है। गृहत्याग के बाद सोनम को इस दुनिया की बुरी निगाहों से बचाने के लिए उसे  काकी के ममत्व की जो छाँव मिली थी, अब वह भी नहीं रही। लेकिन सुशांत के साथ होने से उसका आत्मबल पहले की तरह कमजोर नहीं था। दृढनिश्चय के साथ अपने प्रारब्ध से वह टकरा गयी। 


   सुशांत उससे आठ साल छोटा है,किन्तु दोनों के इस अनाम पवित्र संबंध को लेकर कुत्सा और कानाफूसी  करने वालों की कमी नहीं थी। ताने सुनकर उसकी आत्मा तड़प उठती थी। फिर भी इसकी परवाह न कर एक निजी नर्सिंगहोम में नर्स के मामूली पगार से उसने अपना पेट और तन काट कर सुशांत की शिक्षा जारी रखी। उसकी स्नेह की छाँव और कठोर श्रम को देख नटखट सुशांत के हृदय में विद्यार्जन की ऐसी ललक जगी कि डिग्री मिलते ही वह कोलकाता के एक हॉस्पिटल का सितारा बन गया। समाज का भूषण है वो। पर हाँ,एक ऐसे जीवनसाथी की उसे ज़रूरत है,जो उसी की भाँति उसके लाला का ख़्याल रख सके। तभी वह अपने दायित्व से मुक्त होगी। माना कि थोड़ा जिद्दी है,पर दिल का सच्चा है। उसने कई बार इस विषय पर सुशांत की ख़ामोशी तोड़ने की कोशिश की और पूछा था-"लाला ! कोई पसंद की लड़की हो तो बता  दें । अच्छा, एक काम कर न्यूज़ पेपर में मैट्रिमोनियल कैसा रहेगा ? " लेकिन विवाह के नाम पर सुशांत के मुख पर ताला जड़ जाता। यह देख झुंझला कर वह कहती-"तो क्या जीवन भर मुझसे चौका-बर्तन करवाएगा ? रसोइए के हाथ के भोजन से तेरा हाज़मा खराब हो जाता है ।" प्रतिउत्तर में सुशांत मुस्कुराते हुये कहता- "बंदा हाजिर है। बोलो क्या खाना है।" और फिर आमलेट बनाने की तैयारी में जुट जाता। उसके ऐसे ही नटखटपन पर फ़िदा सोनम अपना गुस्सा थूक,उसकी हर ज़रूरत को अपनी प्राथमिकता समझती।

     लेकिन इस जीवन-संघर्ष में सोनम की अपनी खुशियाँ पीछे छूट चुकी थीं। कभी कोमलता और सुकुमारता की बेजोड़ मूर्ति थी वह। किन्तु समय के थपेड़े ने उसके गोरे गुलाबी रंग, मक्खन-सी काया पर असमय ही ग्रहण लगा दिया था।उसका जीवन रंगीनियों से दूर हो चुका था।जिसका उसे तनिक भी अफ़सोस नहीं है, क्योंकि वह काकी के विश्वास का मान रखने में सफल रही। यह उसकी कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी ? सोनम अतीत के इन्हीं तिक्त और मधुर क्षणों में खोयी हुई थी कि न जाने कब आहिस्ते से बाबू मोशाय सुनहरे रंग का एक खूबसूरत डिब्बा लिये उसके पीछे आ खड़े हुये।

 " सरप्राइज !",

सुशांत की आवाज़ सुनते ही सोनम हड़बड़ा कर सोफे पर से उठी ही थी कि शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है । अगले ही पल वह बाबू मोशाय के आगे बढ़े हुये बाँहों में होती है । क्षण भर के लिए दोनों की नज़रें मिलती हैं। सोनम ने देखा कि सुशांत की आँखों में वही मासूमियत उतर आयी है, जब सोलह वर्ष पूर्व माँ को खोने के बाद वह इसीप्रकार उससे आ लिपटा था। बस तब वह सिसक रहा था और अब वे आँखें खिलखिला रही हैं।

"पागल हो क्या बिल्कुल ? नवमी को काकी की बरसी है और तुम्हें यह परिहास सूझ रहा !", सोनम ने सुशांत को तनिक झिड़कते हुये कहा था। 

 "तो क्या हुआ,इतने साल हो गये हैं,माँ को गुजरे। भगवान राम का वनवास भी चौदह वर्ष में समाप्त हो गया था। और आप वहीं ठहरी हुई हैं।",तुनक कर सुशांत ने प्रतिवाद किया। 

"अरे ! यूँ नाराज क्यों होते हो, तुम्हें छोड़ मेरे पीठ पर और है ही कौन ? तुम पर अधिकार समझा, सो कह दिया। " सुशांत का उतरा हुया चेहरा देख सोनम से रहा नहीं गया। "अच्छा, लाओ मेरा उपहार ,जो कहोगे मानूँगी। यह हनुमान जी की तरह मुँह न फुलाया करो। मेरी तो जान निकल जाती है।" 

    "हाँ भई,ऐसा ही हूँ मैं ।आपकी तरह सदैव के लिए मौनव्रत थोड़े न किया हूँ। अच्छा, अपना वचन पूरा करें और यह परिधान शीघ्र पहन कर आयें   । हम दोनों दुर्गा पांडाल  घूमने चलेंगे। वह भी कार से नहीं, पैदल। जिसतरह माँ के संग गये थे।",बाबू मोशाय ने कनखियों से सोनम के मुख-मंडल को निहारा था,ताकि उसके चेहरे के भाव को परख सके। 

"ना बाबा ,यह नहीं हो सकता, वह भी लाल  छींटदार  लखनवी चिकन की साड़ी ! यह तो सुहागिनों के लिए होती है। इसे पहन कर वह भी तुम्हारे साथ पैदल ही सड़क पर ! ",ऐसे उपहार को देख सोनम का पूरा बदन थरथरा उठा था। यदि ऐसा अनर्थ उसने किया तो कैसे करेगी इस निष्ठुर सभ्य जगत का सामना ?

    यह सुनाते ही क्रुद्ध हो सुशांत सत्याग्रह पर अड़ गया। सीधे भूख हड़ताल की धमकी दे उसने लपक कर अटैची उठा ली, दो-चार कपड़े उसमें ठूँस दरवाजे की ओर जा बढ़ा। उसका ऐसा रूप पहले कभी सोनम ने नहीं देखा था। वह व्याकुल हो उठी थी, जैसे जल बिन मीन। अपने डाक्टर को मनाने के लिए वह दौड़ कर उसका बाँह पकड़ अपनी ओर खींचते  हुये अत्यधिक वेदना भरे स्वर में कहती है- " लाला, त्योहार के दिन ऐसे रुठे जा रहे हो ! कैसा निर्दयी है रे ! यह भी नहीं सोचा इस घर में मेरा क्या होगा?"


   पहली बार लाल जोड़े में सादगी भरा श्रृंगार कर सोनम सकुचाते हुये उसके समक्ष सिर झुकाये आ खड़ी होती है। उसका पवित्र मुखमंडल सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। उसका ऐसा भव्य स्वरूप देख सुशांत के का अंग -प्रत्यंग रोमांचित हो उठा था। उसे सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वही जीवनदायिनी  ,प्राण- पोषणी देवी उसके समक्ष खड़ी है, जिसका स्वप्न वह देखा करता है।जिसपर वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर है। इस तनमन अवस्था में उसे स्वर्गीय आनंद की प्राप्ति हो रही थी। वह कहता है- "क्या दर्पण में कभी स्वयं को देखा है ? साक्षात देवी दुर्गा का प्रतिबिंब लग रही हैं आप। याद रखें यह मानव जीवन वेदना की मूर्ति बनने के लिए नहीं है। समय और भाग्य के अत्याचार से हम मुक्त हो चुके हैं।"  सोनम गूँगी  गुड़िया की तरह जड़वत खड़ी रही। "अरे ! चलना नहीं है कि बस यूँ ही समय व्यतीत करते रहेंगे हम। एक बार बोल दिया न ,मार्ग में कोई नाक-सिकोड़े हमें फ़र्क नहीं पड़ता।"


    देर रात तक सोनम को वह कोलकाता के मशहूर दुर्गा पांडालों में घुमाता रहा। भव्य पांडाल ,पूजा की पवित्रता,रंगों की छटा,तेजस्वी चेहरों वाली देवियाँ,धुनुची नृत्य, सिंदूर खेला और भी बहुत कुछ दिव्य और अलौकिक दृश्य वर्षों बाद देख वह अचम्भित-सी रह जाती है,मानो किसी नयी दुनिया की सैर कर रही हो, क्योंकि बीते तमाम वर्षों में उसका सफर घर से नर्सिंग होम तक ही रहा। पांडालों में जनसमुदाय उमड़ा हुआ था। इतनी भीड़ देख कर बिछुड़ जाने के भय से उसने सुशांत के बायें हाथ को कस कर पकड़ रखा था। ऐसे सौंदर्य,लज्जा, स्नेह,गर्व और विनय की देवी को सुशांत भी भला क्यों खोना चाहेगा ? घर लौटते समय उसने सोनम को उसके उसका मनपसंद  बंगाली मिष्ठान 'संदेश' खिलाया था। मेले की थकान से उसका शरीर शिथिल अवश्य पड़ गया था ,परंतु सदैव उदास रहने वाला मुखड़ा खिल उठा था। शुष्क आँखों में रोशनी थी। अब-तक अनजाने मोह से जूझ रहा उसका हृदय कुछ कहना चाहता था, फिर भी वह मौन रही।

   सुशांत दृढ़ चित्त मनुष्य था। उसे देवी प्रतिमा के समक्ष यह संकल्प लिया था कि सोनम की सूनी मांग उन्हीं की तरह लाल सिंदूर से भरी होगी । यह दीवाली उनके लिए विशेष होगी। 

वह जनाता था कि ऐसा हृदय कहाँ,जिसे प्रेम न जीत सके। प्रेम में फैली हुई बाँहों का आकर्षण भला किस पर न हुआ हो। वह इस तथाकथित सभ्य समाज को यह संदेश भी देना चाहता था कि यदि अधिक उम्र के लड़कों से लड़कियों को विवाह दिया जाता है,तो विशेष परिस्थितियों में वर से यदि कन्या ज्येष्ठा हो तो उसे भी वही मान मिलना चाहिए। सोनम को वह तब से चाहता था, जबसे स्वयं उसने यौवन की दहलीज पर पाँव रखा था। बस उसे अपने आत्मनिर्भर होने की प्रतीक्षा थी। ताकि वह सोनम को ढेरों खुशियाँ दे सके। उन दोनों के मध्य जो पवित्र रिश्ता रहा, उसे अब वह एक नाम देना चाहता है।  


     उधर, सोनम उसकी मंशा अनभिज्ञ थी। अपने लाला के प्रति उसके मन में शुद्ध स्नेह तो था, किन्तु स्वार्थ नहीं। उसने यह कल्पना तक नहीं की थी सुशांत कभी इसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखेंगा। वह स्तब्ध थी, आवेश में कहती है-"लाला ,क्या तू मेरी जगहँसाई करवा के रहेगा ?" किन्तु सुशांत निस्संकोच भाव से उसके हर प्रश्न का उत्तर दिये जा रहा था। वह कहता है - "मैंने एक नारी के सारे भाव मातृत्व, पत्नीत्व, गृहिणीत्व आपमें देखा है। मेरे लिये स्त्री कुत्सित वासना का माध्यम  नहीं है। वर्षों से साथ में हूँ,क्या आपको कभी मेरे आचरण में खोट नज़र आया?"उसके अधिकार भरे शब्दों में प्रेम का  गंगाजल छलक रहा था । उसकी मनोदशा देख सोनम को भी जीवन का मनोहर राग सुनाई देने लगा था। आँखों से प्रेम की किरणें निकलने लगी थीं। देखते ही देखते प्रेम से दोनों विह्वल हो उठे थे।मानो प्यासे को ठंडे जल की झील गई हो । संकोच की दीवार टूट चुकी थी।इसे सोनम की सहमति समझ सुशांत यह मधुर गीत गुनगुने लगता है-


ना उम्र की सीमा हो,ना जन्म का हो बंधन।

जब प्यार  करे कोई , तो देखे केवल मन।


    उधर, सोनम ! वह तो अपने पिया के रंग में रंगी जा रही थी। वीरान  घर में पवित्र अनुगूँज फिर से गूँजने लगी थी। किसी ने सत्य ही कहा है- "जब भी जीवन में सुनहरा पल आपके सामने हो उसके स्वागत से मुँह मत मोड़ो। छूट गया तो वापस नहीं आएगा।" और सोनम इस सच से अब नज़रें नहीं चुराना चाहती थी।

-व्याकुल पथिक

22 comments:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 02-10-2020) को "पंथ होने दो अपरिचित" (चर्चा अंक-3842) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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    1. मंच पर स्थान देने के लिए आपका हृदय से आभार मीना दीदी।

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  2. शशि जी आपकी इस कहानी के सुखद अन्त ने एक सुन्दर एहसास कराया। ऐसे उदाहरण हमारे समाज में कम ही मिलते हैं। सुशान्त जैसे युवक समाज में बहुत कम मिलते हैं किन्तु सोनम जैसी कई युवतियां सहारा पाने के लिए जीवन भर प्रतीक्षा करती रह जाती हैं और सुशान्त जैसे युवक उन्हें नहीं मिलते हैं। आपकी इस कहानी में एक आशावाद है जो जीवन जीने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

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    1. उचित कहा प्रवीण जी आपने, समाज में ऐसे उदाहरण कम हैं, परंतु है अवश्य। इसलिए यह आशावाद भी है। प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार।

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  3. बहुत सुंदर प्रतिक्रिया अनिल भैया🙏। एक गीत याद आ गया।
    कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना कुछ रीत जगत की ऐसी है, हर एक सुबह की शाम हुई
    तू कौन है, तेरा नाम है क्या, सीता भी यहाँ बदनाम हुई
    फिर क्यूँ संसार की बातों से, भीग गये तेरे नयना

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  4. प्रेमसिक्त प्रवाह में सारे भाव बहे जा रहे हैं । अति सुंदर ।

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  5. शशि भैया, मन को असीम सुकून प्रदान करती सुंदर कथा 👌👌👌। सुशांत और सोनम दोनों ने जीवन के अभावों से गुजरकर अपनी मंजिल पाई है, इसलिए उनके प्रेम में उच्चश्रृंखलता नहीं विवेक है, दैहिक आकर्षण नहीं गहन आत्मीयता है। सदियों से विवाह या प्रेम के संदर्भ में लड़की की उम्र बड़ी हो तो उसे हेयता की दृष्टि देखा जाता है पर सुशांत जैसे नवयुवक वर्जनाओं को तोड़ नया इतिहास रचते हैं। भावपूर्ण सुखांत कथा के आभार और हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐🙏💐💐

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    1. जी रेणु दीदी,आपकी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया पर अपने पसंद का एक गीत पेश कर रहा हूँ। बोल है-
      छू कर, मेरे मन को, किया तूने, क्या इशारा बदला ये मौसम, लगे प्यारा जग सारा
      तू जो कहे जीवन भर, तेरे लिये मैं गाऊँ
      गीत तेरे बोलों पे लिखता चला जाऊँ..

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  6. वाह बहुत बढ़िया प्रस्तुति।सुंदर

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  7. शानदार लेखनी शशि जी।

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  8. बहुत ही सुंदर और सुखद कहानी शशि भैया।

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  9. वाह। आपकी कहानी की लेखन शैली बहुत रोचक है। सामाजिक सरोकारों को बड़ी संजीदगी से स्पर्श करते हैं। यह कहानी भी समाज में स्त्री अस्मिता को नया आयाम देती है। दैहिक प्रेम को बड़ी शालीनता से आपने तराश कर 'प्यार का तोहफ़ा' बना दिया है। संभवत: प्रेम ऐसा ही होना चाहिए- निश्छल और पारदर्शी। सुखद अंत।
    बधाई हो आपको।

    (शिक्षाविद अरविंद अवस्थी जी की प्रतिक्रिया)
    *****
    डॉ सुशान्त और सोनम दोनों ने जीवन के सच का सामना किया। कहानी में मानवी संवेदनाओं के दृश्य को काफी करीने से उकेरा गया है।
    बधाई।
    (वरिष्ठ पत्रकार शिवशंकर उपाध्याय की प्रतिक्रिया)

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  10. :"अब कोई राम नहीं,जो समंदर का धनुष तोड़े
    जिंदगी सीता की तरह रोती है"
    प्रिय शशि जी,अपनी इस निश्छल प्रेम कहानी के जरिये आशावादी विचारधारा को जीवंत करने का प्रयास किया है और यह सराहनीय भी है, इस जगत में भावनायें संकोचवश व उपहास से भयभीत होकर घुटन भरी जिन्दगी गुजार देती हैं सुशांत ऐसे कदमों की मीठी आहट को निहारते-निहारते....'तुम न आये सहारों को नींद आ गयी',हमेशा खुश रहिये

    -रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"

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  11. सुंदर सुखांत प्रेरक समाज के लिए एक मिसाल बनती सुंदर कथा।

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yes