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Wednesday, 28 October 2020

कोरा संवाद

 जीवन के रंग

राजतंत्र हो या लोकतंत्र सत्ता के मद में बहुधा जनप्रतिनिधि स्वयं को शासक और जनता को दास समझ लेते हैं। आज़ाद भारत में आज भी वही हो रहा है जो गुलामी के दौर में अंग्रेज़ अथवा इनसे पहले राजा और जमींदार अपनी प्रजा संग किया करते थे। इनकी इच्छा की अहवेलना की नहीं कि रक्षक से भक्षक बनते इन्हें तनिक देर नहीं लगता । शहर के नामी बनिया दुखहरन साव का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। जिले के एक जनसेवक की भृकुटि टेढ़ी क्या हुई कि उनकी ख्याति मिट्टी में जा मिली। दुकान पर सरकारी ताला लटक गया। पलक झपकते ही वे साव से चोर समझे जाने लगें।बिना आगे-पीछे देखे-समझे जनता को भेड़चाल चलने की आदत जो है।

   जिस व्यक्ति की सराहना 'यथा नाम तथा गुण' कह कर की जाती हो,जो दीनजनों के संकट में तन-मन-धन से संग रहा हो,उसी परोपकारी व्यक्ति की चरित्र पंजिका पर स्वार्थवश यदि किसी सफ़ेदपोश के इशारे पर लाल स्याही लग भी गयी,तो क्षेत्र के विशिष्टजनों का कर्तव्य बनता था कि वे उसका नैतिक समर्थन करतें,जनसेवक पर दबाव बनाते। परंतु यहाँ सहानुभूति के नाम सभी की जुबां पर एक ही शब्द था-"बेचारा साव ,बड़ा नेक था,बुरा फँस गया!"

   कहाँ तो प्रतिष्ठा और समृद्धि उनकी चेरी थी,बच्चे भी आज्ञाकारी और अपने व्यवसाय में निपुण,स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझते थे वे। और अब उम्र के चौथेपन में इस अपयश को सहना उनको कठिन जान पड़ रहा था, परंतु करते भी क्या? उनकी मनोस्थिति को समझने की फुर्सत मानवता का ढोल बजाने वाले किसी संगठन को था कहाँ ? ये सभी तो बस मंच से संवाद करते हैं। वैसे भी समाज मे वैश्य- व्यापारियों की उपयोगिता चंदा देने तक ही सीमित समझी जाती है। फिर उन जैसे बिगड़े बनिया को कौन पूछता ? हितैषी ढूँढ़े नहीं मिलते। सभी जानते थे कि दबंग जनसेवक की इच्छा की अहवेलना,जल में रह मगर से बैर मोल लेना है। इस युग में चतुर-सुजान शायद इसे ही लोकचातुरी(दुनियादारी) कहते हैं। भले ही किसी नेक इंसान के साथ अन्याय होते देख आँखें मूँद लेनी पड़े।

    सो,उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। व्यवसाय और सम्मान दोनों एकसाथ खोना,यह उनके जीवन की सबसे बड़ी क्षति थी।उन्हें गहरा सदमा लगा था। सप्ताह भर से वे गुमशुम अपनी बैठक में पड़े हुये थे। मानो कोई परकटा परिंदा आसमान से धरती पर गिरा तड़प रहा हो। वे स्वयं से कहते-" ओह! कैसा निष्ठुर समाज है ? जरा-सी विपत्ति आयी नहीं कि सबके भाव ही परिवर्तित हो गये !" न तो प्रातः हवाखोरी को जाते,न ही सामाजिक गतिविधि में शामिल होते। यह चिन्ता उन्हें खायी जाती कि ज़िदगी भर उन्होंने सबके लिए कुछ न कुछ किया और अब उन्हें पराधीन होना पड़ेगा,चाहे आश्रयदाता अपनी ही संतान क्यों न हो।

   उनकी यह स्थिति देख पुत्रों की चिन्ता बढ़ी। ख़बर मिलते ही बेटियाँ भी ससुराल से भागी आयीं। उनके सभी पुत्र धन-दौलत से सम्पन्न थे। किसी का अपना व्यवसाय था,तो कोई सरकारी नौकरी में ऊँचे ओहदे पर था।सभी के अपने बंगले,कार और नौकर-चाकर थे। खुद दर्जा पाँच तक पढ़े दुखहरन साव ने उन्हें शिक्षित, सांस्कारिक और स्वालंबी बनाने में अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी।वे पिता की ऐसी स्थिति भला कैसे सहन कर सकते थे ?सो,उस दिन बैठक में दुखहरन साव का पूरा परिवार उन्हें मनाने जा पहुँचा। घर के स्त्री-पुरुष ही नहीं, नाती-पोते भी मौजूद थे,मानो कोई छोटी-मोटी सभा चल रही हो।

   बड़े पुत्र ने बात शुरू की- "इस लोकतंत्र में यह कैसी तानाशाही ! हम अपने पसंद के प्रत्याशी का चुनाव प्रचार भी न करें? हमारे ऐसा करने के कारण बाबू जी की सरकारी सस्ते सामानों की दुकान मंत्री की निगाहों में चढ़ गयी, जिसकी बेजा सज़ा उन्हें मिली है। सत्ता परिवर्तन होते ही, हमें न्याय मिलेगा।"

  "बिल्कुल भैया..। बाबूजी ! यह ठीक है कि इस दुष्ट जनसेवक ने निजी खुन्नस में आपके सम्मान पर चोट किया है। जिससे हम सभी का सिर झुका हुआ है। आज वह सत्ता में है, मंत्री है, इसलिए हमारी बात प्रशासन नहीं सुनेगा। इस सरकार में निष्पक्ष जाँच की उम्मीद भी हमें नहीं है। जब यह तय है कि अगले वर्ष सरकार बदलेगी, तब-तक हम सभी को धैर्य रखना चाहिए।" बड़े भाई की बातों का समर्थन करते हुये मझले ने कहा।

   अब छोटे की बारी थी,जो एक महाविद्यालय में प्रवक्ता था। जिस प्रकार वह कॉलेज में छात्रों को लेक्चर दिया करता, उसी दार्शनिक अंदाज में उसने अपनी बात रखते हुये कहा-" भैया, बाबूजी की कृपा से हमारे पास दौलत और शोहरत दोनों हैं, फिर भी हमने उन्हें कुछ नहीं दिया,आज इसपर निर्णय करना होगा।"

   भाइयों की बात सुनकर बहनें क्यों पीछे रहतीं। कमी उनके पास भी किसी चीज की न थी। सो, उन्होंने लाख-पचास हजार रुपये पिता के बैंक खाते में डालने की सबसे पहले हामी भर दी। अब बारी तीनों पुत्रों की थी,जिन्होंने हर महीने एक निश्चित धनराशि अपने पिता को देने के साथ ही सर्वसम्मति से अपना निर्णय सुनाते हुये कहा -"बाबूजी ! आपने हमें इस योग्य बनाया है कि हममें से आपका कोई भी पुत्र पूरे परिवार का भरण-पोषण करने में समर्थ है, इसलिए अब आप कोई काम नहीं करेंगे।"

   घंटे भर तक चली इस पारिवारिक बैठक में हर किसी ने अपनी राय रखी। सभी ने अपने पिता के प्रति आदर और ज़िम्मेदारी का प्रदर्शन किया, फिर भी दुखहरन साव पहले की तरह ही मौन आरामकुर्सी पर सिर झुकाये बैठे रहे। यह देख उनकी बड़ी पुत्री से रहा न गया। सो, उसने सभा विसर्जन से पहले भरपूर दबाव बनाते हुये अधिकार भरे शब्दों में कहा-"बाबूजी, सुन लें आप भी ! हम पंचों के फैसले को टाल नहीं सकतें।अम्मा संग आपकी सेवा कर हमें भी कुछ पुण्यलाभ कमा लेने दें।"

   पाँचों संतानें अभी पिता के उत्तर की प्रतीक्षा कर ही रही थीं कि बड़ों के संवाद पर जैसे ही विराम लगा कि दर्शन दीर्घा में मौजूद दर्जन भर नाती-पोते ने साव जी को घेर लिया।कोई उनके गोद में जा बैठा, तो किसी ने कंधे पर आसन जमा लिया। जो नहीं बैठ सका वह हाथ पकड़ कर खींचने लगा। बेचारे बच्चे, डाँट सुनने के भय से मुख पर ताला लटकाए अबतक घंटे भर यूँ ही मौन धारण किये जो थे ।इस बोगस पिक्चर यानि  कि बड़ों के लेक्चर से वे ऊबने लगे थे। उन मासूमों को क्या पता कि समस्या कितनी गंभीर है। रिंकू ने कहा -"नाना जी ,चलिए न बाज़ार।" बाहर जाने की खुशी में पिंकी ने भी भाई के समर्थन में जोर लगाया-"हाँ, दादा दी,देखें न भाई कितने दिनों पर आया है। हमें घुमाने ले चले न।" भाई-बहनों की बातें सुन कर बच्चों की पलटन में सबसे छोटा रहा सोनू ने चहकते हुये कहा कि आप तो अच्छे दादू हो,बज्जी चलो न और फिर उनके कान में कुछ फुसफुसाता है,शायद कोई फ़रमाइश की थी उसने । सोनू की माँ की शादी कोलकाता में हुई है,जहाँ नाना को दादू कहा जाता है। उसकी तोतली आवाज दुखहरन साव को अत्यंत प्रिय है। यूँ कहे वह उनकी आँखों का तारा है।

   सो, इन मासूमों की खिलखिलाहट भरे बालहठ के समक्ष दुखहरन साव का दुःख कहाँ टिकता ! वे तो यह भी भूल गये कि पिछले एक सप्ताह से इस बैठक में पड़े हुये हैं, यहाँ तक कि दर्शन-पूजन के लिए भी मंदिर न गये। बच्चों के इसी शोरगुल में वे अचानक अपनी आरामकुर्सी छोड़ कर उठ खड़े हुये और अपना कुर्ता-धोती ठीक करने लगे कि तभी गोलू दौड़कर उनका चप्पल ले आया, नीतू ने छड़ी संभाल ली।पिता के मुरझाए मुख पर प्रसन्नता का भाव देख उनके पुत्र और पुत्रियों ने सुख की साँसें भरीं । खुशी से सभी आपस में कहते हैं कि जो कार्य वे घंटे भर प्रवचन देकर भी नहीं कर सके, इन नादान बच्चों ने कर दिखाया।

  इसप्रकार बच्चों की फ़ौज संग मनोविनोद करते दुखहरन साव बाज़ार को कूच कर जाते हैं। दो-ढ़ाई घंटे पश्चात जब वे वापस लौट हैं, तो सभी बच्चों के हाथों कोई न कोई सामान होता है। दीनू ने बैटरी से चलने वाला रेलगाड़ी ले रखा था तो गोलू हवाईजहाज उड़ा कर अपनी माँ को दिखा रहा था। रिंकू ने बैट-बॉल खरीदा था और पिंकी की आँखें मटकाती गुड़िया तो देखते ही बन रही थी। नीतू दीदी की गुड़िया के लिये गृहस्थी का सामान ले आयी थी और चिंकी ने गुड्डा खरीदा। बच्चों ने तय किया था कि इसी गर्मी की छुट्टी में जब वे सब फिर मिलेंगे,तब इसी बैठक में इन दोनों की शादी होगी। किन्तु सबसे आगे उनका लाडला नाती सोनू चल रहा था,जिसने बंदूक ले रखी थी। घर में घुसते ही उसने कहा-"देखों माँ !क्या लाया हूँ ?दादू को किसी ने तंग किया न तो हम गोली माल देंगे।" उसकी बातें सुन बैठक में फिर से ठहाके लगने लगते हैं।

   सभी बच्चे जहाँ अपनी माताओं को अपने खिलौने दिखला रहे थे और साथ ही बाज़ार में उन्होंने क्या-क्या खाया इसकी जानकारी भी दे रहे थे,वहीं सावजी आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे मंद-मंद मुस्कुराते रहे।तनिक विश्राम कर उन्होंने अपनी पाँचों संतानों से कहा- " तुम्हें अब भी कुछ समझ में आया की नहीं ?" आश्चर्यचकित होकर उन सभी ने एक साथ कहा-"क्या बाबूजी! हमने तो कुछ भी नहीं समझा?"जिसपर दुखहरन साव ने उन्हें दुनियादारी का पाठ पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने कहा कि बातें तो तुम सभी ने बड़ी-बड़ी की,किन्तु जब ये सभी बच्चे बाज़ार जाने को कह रहे थे, तब तुम सभी मौके पर ही थे न ? कुल दर्जन भर बच्चे और तेरा यह पिता इन दिनों बम बोल गया है,यानि बिल्कुल बेरोज़गार है,फिर भी तुममें से किसी ने यह सोचा कि बाबूजी का जेब खाली है? यदि बाज़ार में उन्हें कुछ न दिलाता-खिलाता,तो ये बच्चे इसीप्रकार हँसते-खिलखिलाते दिखते ? तुम्हारे इन आश्वासनों को फिर क्या समझूँ, सिर्फ़ कोरा संवाद ?

   पिता का वचन तीर-सा लगा उन पाँचों के मर्मस्थल पर,वे पानी-पानी हो गये और आपस में ही नज़रें चुराने लगे। क्योंकि जिस पिता को खुश रखने,उन्हें पुनः श्रम कर नये व्यवसाय करने से रोकने के लिए वे सभी मना रहे थे, प्रतिमाह एक निश्चित धनराशि देने का वायदा कर रहे थे।वे उन्हीं की एक छोटी-सी ज़रूरत को भी नहीं समझ सकें कि बाबू जी एक-दो नहीं पूरे दर्जन भर बच्चों के साथ बाज़ार को निकल रहे हैं,तो उनके जेब का क्या हाल है ? उनमें से किसी ने भी एक रुपया उसमें नहीं डाला था। अब वे सभी निरुत्तर थे।

   बच्चों की यह स्थिति देख दुखहरन साव ने स्नेहपूर्वक पुनः उनसे कहा कि इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। इसे व्यवहारिक ज्ञान समझो। भविष्य में तुम्हारे भी काम आएगा। उन्होंने अपनी बात यह कह कर समाप्त की- "जेब में पैसा है,तो आत्मसम्मान की भावना स्वतः आ जाती है,अन्यथा व्यक्ति सकुचाता-झेंपता रहता है।यदि हम आत्मनिर्भर हैं,तभी आत्मसम्मान की इस भावना से परिपूर्ण होंगे और हमें यश प्राप्त होगा।" साथ ही फिर से व्यवसाय करने का अपना संदेश भी उन्होंने पुत्रों को सुना दिया। यह घोषणा करते हुये उनका मुखमण्डल फिर से दमकने लगा था,किन्तु बैठक में सन्नाटा था। पलटकर पुनः प्रश्न करने का साहस उनकी संतानों में नहीं था, क्योंकि उनके इस संवाद का पोल खुल चुका था।

     सत्य यही है कि दूसरों के दबाव में, जब कभी हम अपने विवेक के अनुसार निर्णय नहीं लेते, तो वह अभिशाप बन जाता है। और यही यातना मानव जीवन की सबसे बड़ी क्षति है।सो, दुखहरन साव की अनुभवी आँखों को इसे समझते तनिक भी देर न लगा कि उनके बच्चों की बातों में कितना वजन है।

  -व्याकुल पथिक 

Wednesday, 21 October 2020

मौन का दण्ड

जीवन के रंग
- व्याकुल पथिक

 सेठ धर्मदास के दफ़्तर में ख़ासी हलचल थी। सभी कर्मचारी हाथ बढ़ा कर काम करते दिखे। यूँ कहें कि वे अपने कौशल का भरपूर परिचय देना चाहते थे,जबकि कम्पनी के बड़े कर्मचारी पुष्पगुच्छ लिये स्वागत में खड़े थे। मानो सभी की उम्मीदों को पंख लग गये हों। दिल्ली से व्यवसायिक शिक्षा की डिग्री लेकर लौटे सेठ के इकलौते पुत्र करमचंद की ताजपोशी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष पद पर जो होनी थी। इस उपलक्ष्य में एक छोटी-सी गोष्ठी और सहभोज भी आयोजित था।

  कम्पनी के निष्ठावान कर्मचारियों का परिचय स्वयं धर्मदास ने अपने बेटे से करवाया। मैनेजर फ़तेह बहादुर ,मुंशी बनवारी लाल, खजांची  बनारसी दास जैसे कर्मचारी जो धर्मदास के हमउम्र और उनके पिता स्व0 भगतदास के समय से कम्पनी में कार्यरत थे,के प्रति विशेष आदरभाव का प्रदर्शन किया गया। उन्होंने अपने पुत्र को बताया कि ये सभी संस्थान के ऐसे वफ़ादार हैं,जो घड़ी देख कर नौकरी नहीं करतें ,वरन् हाथ में लिया कार्य समाप्त करके ही दम लेते हैं। इनकी सूझ-बूझ ने कम्पनी को कितनी ही बार संकट से उबारा है। कभी श्रमिकों में असंतोष की चिंगारी भड़की भी तो इनके मृदुल स्वभाव ने जलवर्षा की, इसलिए दफ़्तर में हमारा संबंध भले ही अनुशासन के दायरे में हो,किन्तु उसके बाहर वे नौकर-मालिक के संबंध में विश्वास नहीं रखते। उन्होंने आगे कहा- "दुःख-सुख में हम सभी एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं,अब यह ज़िम्मेदारी तुम पर छोड़ता हूँ।"

  सेठ की यह छोटी-सी कम्पनी उनके स्वर्गीय पिता के त्याग-तप से अस्तित्व में आयी थी। जिसकी ख्याति धर्मदास के कार्यकाल में और भी बढ़ गयी। संस्थान के स्वामी और कर्मचारी एक दूसरे के हितों का ध्यान रखते, इसलिए कम पूँजी के बावजूद निर्धारित समय में गुणवत्ता के साथ सामान तैयार करने में कर्मचारी दिन-रात एक कर देते।  'आपका विश्वास ही हमारा पुरस्कार ' कम्पनी द्वारा ग्राहकों से किये इस वायदे में सच्चाई थी। उन्हें पूरा भरोसा था कि उनका लायक पुत्र इसे और ऊँचाई पर ले जाएगा।सो,आज वे बहुत खुश थे। कर्मचारियों में भी उत्साह दिखा।

 दफ़्तर के सबसे सुंदर कक्ष में मेज, कुर्सी और कूलर की अच्छी व्यवस्था कर करमचंद के लिए एक अलग से केबिन बनाया गया था, किन्तु अगले दिन कार्यालय आते ही पुराने माडल के अपने केबिन को देख वह आपा खो बैठा। "क्या यही कबूतर-बाड़ा मेरे लिए है, इतना भी नहीं जानते कि नोयडा- दिल्ली की कम्पनियों में मालिक का केबिन कैसा होता है ? आप इतने ग़ैर ज़िम्मेदार कैसे हो सकते हैं..?" वह बरसता ही गया  मैनेजर पर। उसकी शालीनता का मुखौटा हट चुका था। फ़तेह बहादुर को सार्वजनिक रूप से इसतरह से फटकार कभी धर्मदास ने तो क्या, उनके स्वर्गीय पिता ने भी नहीं लगायी थी, जिसकी चर्चा पूरी कम्पनी में होने लगी।एक धर्मदास के कानों में ही रूई पड़ी हुई थी !

  और फिर अगले दिन एक बड़े वातानुकूलित कक्ष का निर्माण कार्य शुरू हो गया। महँगे फ़र्नीचर और कालीन भी खरीदे गये। जिन पर कम्पनी के लाखों रुपये ख़र्च हुये। कहाँ तो धर्मदास को सादगी पसंद थी। वे अपनी चादर देख पाँव पसारते थे। वहीं करमचंद के जल-जलपान और लंच का बिल रोजाना हजार -आठ सौ से कम न होता। एक-दो बाहरी मित्र आ गये, तो संस्थान के इन वफ़ादारों का कलेजा दहल उठता था। ऊपर से संस्थान के खाते से मनमाने रुपये निकाले जाने लगे । छोटे मालिक का हाल देख कुछ ही महीनों में फ़तेह बहादुर का हौसला पस्त हो गया। सो, हर शाम जब मालिक और कर्मचारी अपने घरों को लौटते,तो वे अपने सहयोगी बनवारी लाल और बनारसी दास संग इस मंत्रणा में उलझे रहते कि इस विकट परिस्थिति से कम्पनी को कैसे उबरा जाय?

  "भाई, आमदनी अठन्नी, ख़र्चा रुपइया ! फिर कैसे पार लगेगी इस छोटी-सी कम्पनी की नैया ?" संस्थान की डाँवाडोल आर्थिक स्थिति को देख खजांची बनवारी ने सवाल दागा । "परंतु सेठ जी से इस फ़िज़ूलख़र्ची की चर्चा कैसे करें ? ऐसी कोई शिकायत तो करमचंद के शान के खिलाफ होगी ?" मुंशी बनवारी ने भी अपनी चिन्ता प्रकट की।  "तो क्या हम ऐसे ही तमाशबीन बने रहे? इस कम्पनी के लिए हमने वर्षों खून-पसीना बहाया है और अब  ख़ामोश रहे ?" मैनेजर फ़तेह बहादुर ने व्याकुलता से कहा।

   कम्पनी के इन निष्ठावान कर्मचारियों के मध्य लम्बे वार्तालाप के बाद भी यह तय नहीं हो सका कि 'बिल्ली के गले में घँटी' कौन बाँधे ? वे सभी जानते थे कि बाहर से व्यवसायिक शिक्षा का ज्ञान ले कर आये करमचंद पर सेठ को अति विश्वास और अनुराग है। तीन पुत्रियों के जन्म के वर्षों बाद अनेक पूजा-पाठ के फलस्वरूप पुत्र प्राप्ति की सेठ की कामना पूरी हुई थी।वह उनकी आँखों का तारा है।सो, कम्पनी के जो ख़ैरख़्वाह अपने मालिक से निःसंकोच वार्तालाप करते थे,उनकी निष्ठा यहाँ मौन थी ! इनमें से किसी ने भी धर्मदास  को यह सच्चाई बताने का खतरा मोल नहीं लिया कि उनके पुत्र का निजी ख़र्च सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ता और कम्पनी का बजट बिगड़ता जा रहा है। 

   अबकी दीपावली पर करमचंद ने एक और बखेड़ा खड़ा कर दिया।उसे नयी गाड़ी लेनी थी,इसलिए सभी कर्मचारियों का बोनस रोक दिया गया। मैनेजर से कहा गया कि वह  कर्मचारियों को यह विश्वास दिलाए कि कम्पनी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। बेचारे फ़तेह बहादुर ने बुझे मन से असत्य बोल कर यह मोर्चा तो किसी प्रकार सँभाल लिया, किन्तु धनतेरस के दिन जैसे ही बड़े आकार की महंगी गाड़ी से करमचंद ने कम्पनी में प्रवेश किया, स्वामीपुत्र के प्रति यह निष्ठा प्रदर्शन उन्हें ख़ासा महंगा पड़ा, क्योंकि कर्मचारी पहली बार स्वयं को ठगा महसूस कर रहे थे। आवेश में आकर उन्होंने फ़तेह बहादुर को घेर लिया, जो मैनेजर उनके लिए देवता समान था,वह अब संदेह के घेरे में था। कर्मचारी नयी कार की ओर इशारा कर उनसे ऊँची आवाज़ में पूछ रहे थे -" क्या इसी के लिए कम्पनी घाटे में है और उनका बोनस रोक दिया गया ?" हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले इन कर्मचारियों से झूठ बोलने पर वैसे ही फ़तेह ग्लानि से पश्चाताप कर रहे थे,उसपर से साथी-मित्रों का विश्वास भी खो बैठे। क्या जवाब देते उन्हें ? मारे लज्जा से इन कर्मचारियों से निगाहें नहीं मिला पाए, फिर भी वे मौन थे ।यहाँ तक की बनवारी और बनारसी ने भी चुप्पी साधे रखी। यह इन तीनों की स्वामीभक्ति थी अथवा विवशता ,इससे अन्य कर्मचारियों को क्या लेना । सच तो यह है कि दीपावली जैसे पर्व पर उनके बाल-बच्चों की खुशियों पर घात हुआ था। उन्होंने तो इनका नया नाम भी रख दिया - ' छोटे मालिक के तीन बंदर ! '

    इस घुटनभरी अपमानजन स्थिति में मुँह पर ताला मारे फ़तेह अपनी कुर्सी से चिपके रहे।पचपन से ऊपर की अवस्था हो चली थी, कहीं और नौकरी भी तो न मिलती। सेठ धर्मदास के केबिन में पहले की तरह एक साथ लंच भी वे तीनों नहीं कर सकते थे,ताकि अवसर देख सामने खड़े संकट का संकेत उन्हें दे सकें। यहाँ भी करमचंद का पहरा था।सो, मनमसोस के रह जाते थे ये तीनों। वह सदैव अग्निमय नेत्रों से हर किसी को देखा करता था,जैसे किसी शैतान से पाला पड़ गया हो,जो सुअर, कुत्ता,कमीना और नमकहराम जैसे संबोधन से कर्मचारियों का स्वागत करता था। उसके मुख से आदरमय संबोधन सुनने को वरिष्ठजन तक तरसते थे।

     स्थिति यहाँ तक बिगड़ गयी कि कर्मचारियों को नियमित वेतन की जगह नौकरी से निकाले जाने की धमकी मिलती।जिससे उनके उत्साह  और कम्पनी की उत्पादन क्षमता में निरंतर कमी आती गयी और ग्राहकों में विश्वसनीयता घटने लगी। वहीं धर्मदास थे कि दफ़्तर में बैठना कम अपना परलोक सुधारने में अधिक रूचि लेने लगें। इस आर्थिक संकट में करमचंद ने होली से पूर्व पुनः पाँच लाख रूपये कंपनी के एकाउंट से निकाल लिये। उनके लिए त्योहार था और कर्मचारियों के लिए फ़ाका।अब फ़तेह बहादुर के पास चुप्पी तोड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि होली पर भी बकाया वेतन नहीं मिलने से कर्मचारी हड़ताल की धमकी दे रहे थे और यहाँ छोटे मालिक ने फिर से ख़ज़ाना खाली कर दिया। जिसे हर नेक सलाह उसे नागवार लगती।

  सो, यह बात धर्मदास तक पहुँचायी गयी। न जाने पिता-पुत्र में क्या वार्तालाप हुई कि पर्व के बाद दफ़्तर की सीढ़ियों पर पाँव रखते ही फ़तेह बहादुर के गले में एक फूलमाला तक डाले बिना ही कम्पनी से हमेशा के लिए उनकी विदाई कर दी गयी। उनपर कर्मचारियों को भड़काने का झूठा आरोप लगा। भरी सभा में संस्थान के सबसे निष्ठावान कर्मचारी का चीरहरण हो गया। हाय रे विडंबना ! अपने मैनेजर के साथ अन्याय को देख कर भी कम्पनी के अन्य वफ़ादार दम साधे रहे।मानो सभी को साँप डँस गया हो। बनवारी और बनारसी सभी मौन,जैसे उन्हें कोई पहचान ही न रहा हो,जबकि संस्थान का हर कर्मचारी डूबती नाव पर सवार था। सभी की पीड़ा एक जैसी थी। फिर भी एकजुट हो 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' बोलने की जगह भेड़ों की तरह मौन रह कर गर्दन झुका लिये.. !  जाते वक़्त फतेह ने करुण दृष्टि से धर्मदास की ओर देखा था, किन्तु सेठ की आँखों का पानी मर गया था। जरा-सा भी दर्द नहीं, कोई सहानुभूति नहीं, मानवीय भाव नहीं,कोई कर्तव्य भी नहीं... ! यह देख इस स्वामीभक्त को अपनी दशा का वास्तविक ज्ञान हो गया। हृदय की पीड़ा आँखों में उतर आयी,जिसमें एक आह थी ।

   षड़यंत्र के शिकार फ़तेह बहादुर के निष्कासन के साथ ही करमचंद ने किला फ़तेह कर लिया। अब संस्थान पूरी तरह से उसके हाथों में था। कोई रोक-टोक नहीं।उसकी एक ही महत्वाकांक्षा थी अपना विकास और दूसरों का शोषण। शायद दिल्ली के पूँजीपति मित्रों से यही सीखा हो।वह अपने आमोद-प्रमोद पर पानी की तरह धन लुटाता,लेकिन वेतन माँगने पर कर्मचारियों को भिखारी की तरह दुत्कारा- फटकारा। सेठ धर्मदास के प्रति निष्ठा रखने वाले सारे कर्मचारी निकाले जा चुके थे। जो अन्य शेष बचे थे,वे भी तू चल मैं आता हूँ..की रट लगाये हुये थे। किसे ने भी किसी का साथ नहीं दिया। जैसे संस्थान का हर सदस्य आपस में अपरिचित-सा हो। कैसे अभागे थे सब ..! किसी को किसी के संग हुये अन्याय से कोई वास्ता न हो। सभी अपनी-अपनी नौकरी बचाने की आखिरी कोशिश कर रहे थे।

   इस प्रकार संस्थान के सभी पुराने कर्मचारी एक-एक कर निकाले जा चुके थे। उनकी मेहनत की कमाई करमचंद दबा गया। जिन श्रमिकों ने सेठ की नाक ऊँची रखने के लिए अपनी जान लगा दी थी,उनके घरोंं के चूल्हे ठंडे पड़े थे। बाल-बच्चे भूखे थे।अपने ही बकाया पैसे के लिए वे दीनता का प्रदर्शन कर रहे थे और मित्रों संग उसी वातानुकूलित केबिन में बैठा करमचंद कहकहे लगाता रहा। ऐसा लग रहा था कि इन ग़रीबों की आह की ज्वालामुखी पर यह कम्पनी खड़ी हो। फिर भी नहीं जगे सेठ धर्मदास, क्योंकि करमचंद ने नये मैनेजर घोंटूमल के सहयोग से काफी कम वेतन पर नये अस्थायी कर्मचारियों को रख लिया।जिससे कर्मचारियों के वेतन में काफी बचत हुई। कम्पनी का घाटा कुछ कम हुआ था। पुत्र की इस उपलब्धि पर धर्मदास ने प्रसन्नता व्यक्त की।परंतु कुछ ही महीनों में इसका घातक परिणाम सामने आने लगा। क्योंकि कम्पनी के उत्पाद और गुणवत्ता में कमी आ गयी। ग्राहकों ने धर्मदास से उसके पुत्र के दुर्व्यवहार की शिकायत के साथ ही माल लेना बंद कर दिया था। फिर तो भगदड़-सी मच गयी थी सेठ की कम्पनी में, उसे कोई चोर तो कोई बेईमान कहता। यह देख धर्मदास की वह प्रसन्नता चिन्ता में बदलने लगी।कम्पनी की बदनामी हृदय में शूल-सी चुभती।

    उन्होंने पुत्र पर दबाव बनाया, ताकि निकाले गये निष्ठावान सेवकों को फिर से बुलाया जा सके,लेकिन उनके हाथों से तोता उड़ चुका था। करमचंद को पिता का यह हस्तक्षेप रास नहीं आया। उसने संकोच छोड़ निष्ठुरता से कह ही दिया- " पिता जी ! आप बूढ़े हो चले हैं, आपको आराम की ज़रूरत है। घर पर चुपचाप क्यों नहीं पड़े रहते?" 

   प्राणों से अधिक प्रिय पुत्र के ऐसे कटु वचन सुनकर हाहाकार कर उठा था धर्मदास का हृदय। अपनी कम्पनी का इस प्रकार से पतन देख,वे पश्चाताप  करने लगें -" ओह! मैंने यह क्या किया, जिसे हीरा समझा वह तो काँच का टुकड़ा निकला।" उनके पिता की विरासत उन्हीं की आँखों के सामने उनका पुत्र नष्ट कर रहा था और वे अँगूठाहीन एकलव्य की तरह छटपटाते रहे।किसी से अपना दुःख नहीं कह सकें,क्योंकि क़सूर उनका भी कम न था। इस विषाद,निराशा और व्याकुलता भरे क्षण में उन्हें फ़तेह, बनवारी और बनारसी जैसे कर्मचारियों की वफ़ादारी याद आती। जिन्हें उन्होंने आश्रयहीन कर दिया था।उनके साथ हुये अन्याय पर अपनी ही चुप्पी उन्हें ताड़ना देती -"क्यों सेठ ! निकल गयी न सारी चतुराई,खुश तो होंगे ही ?" उनके नेत्रों में नैराश्य-स्याही चटक होती जा रही थी। अतंतः इस सदमे से नहीं उभर सके वे। उनके 'मौन की सज़ा' मौत जो थी।

   मरघट में रेशमी महल नहीं बनता, सो वह दिन भी आया जब कर्मचारियों की आह रूपी मौन ज्वालामुखी ने मुख खोला और भगतदास की कम्पनी उसमें समा गयी।


 

Wednesday, 14 October 2020

परिवर्तन

(जीवन के रंग)

    कहते हैं कि मेहनत और ईमानदारी से किया गया कोई भी काम लज्जाजनक नहीं होता । दुनिया पुरुषार्थी व्यक्ति को झुककर सलाम करती है। किन्तु सच यह भी है कि ऐसा पुस्तकीय ज्ञान  मनुष्य के सामाजिक जीवन में व्यवहार की कसौटी पर सदैव खरा नहीं उतरता। अन्यथा सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ और पूँजीवादी वर्ग की

उपेक्षा का शिकार नहीं होना पड़ता। इनका मान, सम्मान,स्वाभिमान और अधिकार सुरक्षित होता। अपनी कमली बुआ को ही लें। कल तक जिसे वह स्नेह  से बहू कह बुलाया करती थी,उसी के विद्यालय में चाकरी क्या कर ली कि व्यवहार और संबोधन दोनों में परिवर्तन आ गया । अब वह उसे बहू की जगह सहमे-सहमे लहज़े में बड़े अदब से 'मास्टरनी' जी कहा करती है ,जबकि उसे बुआ के स्थान पर बिना किसी शिष्टाचार का प्रदर्शन किये, उपेक्षा से 'दाई' पुकारा जाता है।

   

    बात उन दिनों की है जब स्त्री जाति के प्रति आम धारणा यह हुआ करती थी कि लड़कियों को ससुराल जाकर घर-गृहस्थी देखनी है, तो वे विद्यालय में वक़्त क्यों जाया करें ? पुत्री घर पर रह कर अपनी माँ से पाककला का ज्ञान अर्जित करे, सिलाई-बुनाई सीखे,ताकि ससुराल में मायके वालों की नाक न कटे,परिवार के बड़े-बुजुर्ग यही चाहते थे।मानो गृहकार्य में दक्षता ही नारी की योग्यता का एकमात्र प्रमाणपत्र हो। मायके की चारदीवारी से ससुराल की देहरी,यही उनकी लक्ष्मण रेखा थी।जिसका उलंघन स्त्री मर्यादा के विपरीत था। 


    बनारस जैसे शहर में जन्मी कमली ने सयानी होते ही ये सारे गुण-ढंग सीख लिये थे। श्वेत नर्म रोटी और तरकारी तो ऐसा स्वादिष्ट बनाती कि खाने वालों की लार टपकने लगती।सौंदर्य,लज्जा और विनय की देवी थी वह,किन्तु संपूर्ण स्त्रीयोचित संस्कारों से युक्त हो कर भी उसने कभी विद्यामंदिर में कदम नहीं रखा था।अपनी इस इच्छा को सीने में दबाये वह कम उम्र में ससुराल चली गयी। कमली गृहकार्य में दक्ष होने के साथ ही व्रत-उपासना में भी पीछे न थी। जिस कारण सभी उससे स्नेह करते । हिन्दू पतिव्रता के सारे कर्तव्य और आदर्श उसमें समाये थे। अपने प्राणनाथ मोहन पर तो मानो उसने मोहनी ही कर रखा था, जो सदैव उसका मुख निहारा करता । नाते-रिश्तेदार उसकी सास से कहते-"ईश्वर ! हमें भी तुम्हारी-सी बहू दें।" यूँ  समझें कि घर के सारे सदस्य उसपर जान देतें। अपने सौभाग्य पर इठलाती कमली को इसका तनिक भी आभास नहीं था कि क्षणिक सुख दे कर नियति ,उसका नाता आजीवन दुःख से जोड़ने वाली है।


    और उस रात नाग देवता उसका दुर्भाग्य बन के घर में प्रवेश कर गये। अपनी सुशील पत्नी से अतिशय प्रेम करने वाले मोहन ने उसे भयभीत  देख कौशल दिखलाने का प्रयत्न क्या किया कि घर का कुलदीपक बुझ गया। अचानक हुये इस वज्रपात से कमली का कोमल हृदय झुलस कर राख हो गया। उसका दमकता हुआ मुखड़ा मलिन पड़ गया। सारे साज -श्रृंगार बिखर गये। अब वह एक श्वेत वस्त्र में लिपटा हाड़-मांस का पुतला मात्र थी।रंगीनियों से भरा उसका जीवन पल भर में दर्द का सैलाब बन गया । सपने राख हो गये,रह-रह कर आँखें बरसती रहतीं,फिर भी गुमसुम बनी ससुरालवालों की सेवा-सत्कार में लगी रहती।इस घर की बेटी नहीं बहू जो थी,वह भी विधवा,जिसके लिए यहाँ सांत्वना के दो शब्द भी न थे, परंतु वह सबका मुँह जोहते रहती।


    उसके संयम की परीक्षा शुरू हो गयी।ससुराल में हर कोई मोहन की मृत्यु के लिए उसे जिम्मेदार मानता। उसकी सौभाग्य रेखा वेदना,दुत्कार और तिरस्कार में परिवर्तित हो गयी थी। उस पर जान छिड़कने वाली सास की जिह्वा से निरंतर शब्दबाण छूटते रहते। उसे केश संवारते देख ननद ताना देती-" रांड ! अब न जाने किसे खाएगी ?" सहानुभूति की जगह प्रियजनों के ऐसे कटु संवाद से आहत इस बेचारी का ससुराल में कोई आश्रय न रहा।संतानहीन कमली पर ऐसी विपत्ति और उसका वैध्वय रूप देख उसके माता-पिता का हृदय हाहाकार कर उठा। वे उसे अपने साथ लिवा ले गये। फिर कभी उसने ससुराल में पाँव नहीं रखा।


     उस जमाने में आज की तरह विधवा विवाह आसान नहीं था, ऊपर से यह लाँछन कि ससुराल जाते ही पति को खा गयी। आदरमय सहज संसार से उसका नाता टूट चुका था।सामने कुरूप और नग्न समाज खड़ा था,जो उसके विधवा होने में अपना सौभाग्य खोज रहा था।किन्तु उसने अपने वैध्वय को कभी लाँछित होने नहीं दिया। उसका हृदय उसके श्वेत वस्त्र की तरह पवित्र रहा।  न वह किसी के सामने खुल कर हँसती और न ही बातें किया करती। अपनी सारी इच्छाओं को नियंत्रित कर निर्लिप्त भाव से जीवन जी रही थी। दिन भर साफ-सफाई और चौका-बर्तन में लगी रहती। मनोरंजन क्या होता है वह भूल चुकी थी। उसकी ऐसी गति देख उसके पुनर्विवाह की मंशा संजोये शोकाकुल माता-पिता स्वर्गवासी हो गये।


     मायके में भाभी का शासन हो गया। दो जून की रोटी पर पलने वाली मुफ़्त की नौकरानी का परित्याग भला कौन करता, जिसने अपनी पीड़ा की उपेक्षा कर स्वयं को परिवार के लिए समर्पित कर दिया हो। कमली ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। समय बीतते देर न लगा । सिर के खिचड़ी बाल उसकी प्रौढ़ावस्था को दर्शाने लगे थे। भाभी का साम्राज्य पुत्रवधू के हाथ में  चला गया। परंतु इससे कमली को क्या फ़र्क पड़ता। उक्ति है न- "कोउ नृप होय हमें का हानि। चेरी छांड़ि ना होउ रानी।।" इस परिवार में उसकी हैसियत भी यही थी, किन्तु मंथरा का एक भी गुण उसमें नहीं था। उसके हृदय में प्रेम का अथाह सागर छिपा था,इसी कारण उसकी पहचान मुहल्ले में 'जगत-बुआ' की हो गयी थी। बड़े क्या बच्चे भी उसे बुआ ही पुकारते । बाल- गोपाल तो स्नेह के भूखे होते हैं,शाम जब कमला घर के बाहर चबूतरे पर बैठी होती, वे अपनी बुआ से कहानी सुनने दौड़े आते। उन दिनों आज की तरह पाबंदी नहीं थी कि बच्चे घर के बाहर निकले ही नहीं। दिन भर पुस्तकों में आँखें गड़ाए रहें, मुहल्ले में न कोई देखे न पहचाने, फिर तो बचपन कैसा ? ये बच्चे ही कमली के लिए सब-कुछ थे। प्रेम बाहुल्य देख वे उस पर जान देते और इन्हें देख वह भी अपने हृदय के संताप को शांत कर लेती, क्योंकि उसका मातृत्व इन्हें दुलार देकर तृप्त हो जाता था। परंतु उसकी ज़िदगी का सफ़र इतना आसान कहाँ था ? भाभी की पढ़ी-लिखी पुत्रवधू ने दुर्गाकुण्ड जैसे तथाकथित सभ्य समाज के मध्य रहने का निर्णय ले लिया था। दो कमरों वाले इस नये फ्लैट में कमली के लिए कोई जगह नहीं था। यूँ कहें कि उम्र के इस पड़ाव पर जब व्यक्ति को किसी आसरे की तलाश होती है, बुआ से पीछा छुड़ाने के लिए बड़ी चतुराई से यह साज़िश रची गयी थी।


    अब बुआ के सिर पर कोई छत नहीं था। न कोई अपना था। मायके वालों ने जिस निर्लज्जता  से दूध में पड़ी मक्खी की तरह उसे निकाल फेंका था , उससे उसका हृदय रुदन कर रहा था। पुराने मकान मालिक ने तरस खाकर गलियारे में उसे कुछ दिनों के लिए शरण दे दी थी। जिस स्त्री ने ताउम्र घर-परिवार का मरजाद बनाये रखा। उसे पेट की अग्नि शांत करने के लिए इस अवस्था में कुछ तो करना था। पर एक अनपढ़-गंवार औरत झाड़ू-पोंछा अथवा चौका, बर्तन के सिवा और क्या कर सकती थी?  " हे प्रभु ! मेरी कितनी परीक्षा लोगे! क्या पेट जिलाने के लिए मुझे ये भी करना पड़ेगा ? न-न मुझसे यह सब नहीं होगा।" कुछ ऐसी ही चिन्ता में डूबी कमली ने मन को कठोर कर पहली बार काम की तलाश में घर से बाहर पाँव रखा था। तभी बिट्टू उसे अपनी माँ के घर ले आता है।


    "अरे ! बुआ बहुत दिन बाद आना हुआ ?" सुधा ने उसकी सुधि लेते हुये कहा था। "हाँ बहूँ, स्कूल खोलने के बाद तुम व्यस्त हो गयी थी,सो आने में संकोच होता था। पर तुमलोगों के लिए मैं सदैव दुआ करती रही। बड़ा कष्ट सहा है तुमने भी ।" भावविह्वल होकर कमली ने सुधा को ढ़ेरों आशीष दिये थे।  सुधा ने पति से सलाह कर कमली बुआ को अपने स्कूल में दाई का काम दे दिया था। ममत्व की भूखी बुआ अपनत्व भाव से चाकरी से कहीं अधिक सुधा के स्कूल से लेकर घर तक का काम किया करती थी। कब सुबह से साँझ हो जाता उसे पता भी नहीं चलता।


     किन्तु उस शाम बहू के सामने  हृदय को चीर देने वाले सवालों के कठघरे में वह सहमी हुई खड़ी थी। सुधा का क्रोध देखते ही बनता था। संबधों की मर्यादा टूट चुकी थी। उसने कमली को फटकारते हुये कहा -"कितनी बार बताया कि मुझे मास्टरनी जी बोला करो, किन्तु आज फिर से तुमने बहू कह दिया ? अरे ! काहे की बहू ..कैसी बहू ? मैं तुम्हारी कोई रिश्तेदार हूँ ? तुम्हारे तो सगे-संबंधी अपने नहीं हुये ।अन्य शिक्षिकाओं के सामने जब तुमने बहू कहा तो कितनी लज्जा आयी मुझे ।" इसी आवेश में सुधा ने यहाँ तक कह दिया था कि यदि अपनी कैंची जैसे जुबान को काबू में नहीं रख सकती, तो कल से काम पर मत आना। 


    हाय री हृदय हीनता ! मानो कभी जान- पहचान ही न हो। सुधा के ऐसे कठोर वचन सुनकर वेदना के प्रवाह से बुआ की आँखों के पोर नम हो गये थे।वह किसी की दया पर जीवनयापन नहीं कर रही थी, फिर भी आज उस स्त्री के समक्ष दीन बनी खड़ी थी, जिसे कल तक बड़े स्नेह से बहू कहा करती थी और जो आज उसकी छोटी-सी भूल पर इसप्रकार बरस रही थी। कमली समझ चुकी थी कि धन आने पर मनुष्य के दृष्टिकोण में किस प्रकार परिवर्तन आ जाता है। इतनी आत्महीनता की अनुभूति जीवन में उसे कभी नहीं हुई थी। उसका मुख इस भय से पीला पड़ गया था कि यदि नौकरी चली गयी तो किसके द्वार पर भीख माँगेगी,कैसे कटेगा ये बुढ़ापा ? मास्टरनी जी की क्रोधाग्नि को शाँत करने के लिए वह दीनभाव से क्षमायाचना  करती है,किन्तु विद्यालय से बाहर निकलते ही आँखों में आँसुओं की झड़ी लग गयी थी।


       वह भारी कदमों से वापस मुड़ी ही थी कि फिर से बिट्टू प्रकट हो जाता है। " बुआ , चलो कहानी सुनाओं न ।" "नहीं रे! मुझे अब बुआ न कहा कर । हमारे इस रिश्ते में परिवर्तन आ गया है। मैं तेरे स्कूल की एक मामूली दाई जो ठहरी !" यह कहते हुये कमली का गला भर उठा था। " किसने कहा तुम्हें दाई ? मम्मी ने न ? वह बदल गयी है,लेकिन तुम हम बच्चों की बुआ थी और रहोगी। क्या मुझमें भी कोई परिवर्तन दिखा ?" इतना कहते हुये बिट्टू पीछे से कमली के गले में हाथ डाल उससे लिपट जाता है। मानो बुआ का सारा दर्द वह खुद अपने में समेट लेना चाहता हो। बच्चे का प्यार पा कर चोट खाये बुआ के हृदय में हलचल-सी होती है,जैसे बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठी हो,उसका मलिन मुखमण्डल फिर से दमकने लगा था। वह स्नेह से बिट्टू को अपने अंक में भर लेती है। दोनों के नेत्रों से अश्रुजल बह चले थे। जिसमें निश्छल मुस्कान थी। जिसे कोई परिवर्तन फीका नहीं कर सकता है।


    बिट्टू बड़ा हो गया है, सवाल आज भी उसका वही है-" यदि मानव अपने पदों का मुखौटा लगा कर एक दूसरे के बीच खाइयाँ खोदे ,तो यह कैसी मानवता ? यह सभ्य समाज कब समझेगा कि पद मानव को नहीं,अपितु मानवता पदों को सार्थकता प्रदान करती है ?" हाँ, उसने यह तय कर लिया था कि चाहे कितनी भी ऊँचाई पर वह क्यों न हो, उसके जीवन ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आएगा,जैसा उसकी माँ के हृदय में कमली बुआ के प्रति दिखा।



-व्याकुल पथिक



 

Wednesday, 7 October 2020

जीवन के रंग

    'त्याग को मानव का श्रेष्ठ आभूषण बताया गया है। निर्माण के लिए त्याग आवश्यक है।यदि कुछ प्राप्त करना है,तो कुछ छोड़ना भी होगा,तभी हृदय को सच्चा धन हाथ लगेगा...।' चालीस की अवस्था में पत्नी-सुख से वंचित हो गये बाबू भगतदास के समक्ष जब भी पुनर्विवाह का प्रस्ताव आता,वे अपने दोनों बच्चों के 'भविष्य निर्माण' का विचार कर कुछ ऐसे ही पुस्तकीय ज्ञान के सहारे अपने मन के वेग को बलपूर्वक रोक लेते। इसप्रकार उन्होंने अपनी इच्छा,ज़रूरत और खुशियों को असमय ही इस त्याग रूपी हवनकुण्ड में भस्म कर दिया।

     ऊँचे खानदान के भगतदास के पास दौलत ही नहीं शोहरत भी थी। पत्नी गुणवंती जब तक साथ थी, कारोबार में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती रही।कच्ची गृहस्थी में जीवनसंगिनी से यूँ बिछड़ना उन्हें विचलित किये हुये था। माँ-बाबूजी को गुजरे साल भर नहीं हुआ कि यह बड़ा आघात उनके हृदय पर आ लगा। मानो दुर्भाग्य के ऐसे काले बादल उनके सिर पर मंडरा रहे हों, जिनमें स्नेह-वर्षा की एक बूँद भी न हो, जिससे पत्नी वियोग में तप्त हृदय को दो घड़ी शांति मिलती। ऐसा कोई सगा-संबंधी न था,जिससे वार्तालाप कर वे अपना ग़म हल्का कर लेते।सो,बड़े विवेक और धैर्य से उन्होंने स्वयं को बाँध रखा था।


    गुणवंती का साथ क्या छूटा कि सारी खुशियाँ भी जाती रहीं। न पर्व न उत्साह,घर में मरघट-सा सन्नाटा रहता। वो कहते हैं न-"बिन घरनी,घर भूत का डेरा।" कहाँ तो छह जनों का भरापूरा परिवार और कहाँ इतने बड़े बंगले में बाबू साहब अपनी चौदह साल की बेटी दीप्ति और बारह वर्ष के पुत्र चिराग़ संग शेष रह गये।पर बेचारे करते भी क्या? तड़प कर रह जाते थे। बच्चों के लिए सौतेली माँ लाने की गवाही उनका वात्सल्य भाव से भरा हृदय देता नहीं। विमाता की निष्ठुरता के संबंध में अनेक किस्से जो सुन रखे थे। ऊपर से उनके भोले बच्चों में चतुराई जैसा एक भी गुण न था। वे तो कोमल और सुकुमारता की मूर्ति थे।फिर अपने जिगर के टुकड़ों को  किसी अनजान के हाथों सौंपने का खतरा वे कैसे मोल ले सकते थे। सो,इसे विधाता का दण्ड समझ विधुर ही रहने का निश्चय कर लिया था।


    घर की वफ़ादार बूढ़ी आया जिसे उन्होंने कभी नौकरानी नहीं समझा था, के भरोसे दोनों बच्चों को छोड़ वे काम पर जाते भी तो उन्हें विद्यालय से छूटते ही स्वयं लिवा आते। ताकि घर पर माँ की कमी उनको महसूस नहीं हो। वे बच्चों को खुद से पल भर भी अलग नहीं देखना चाहते । जिसका विपरीत प्रभाव उनके व्यापार पर पड़ा। उनकी आय लाखों से हजारों में सिमट गयी, जबकि समय के साथ बच्चे बड़े हुये और उनकी शिक्षा पर ख़र्च बढ़ गया ।परिस्थिति विकट होती गयी,फिर भी बाप-दादा से प्राप्त करोड़ों की अचल सम्पत्ति को वे अपने पूर्वजों की धरोहर समझते, धन के लिए पुश्तैनी विशाल भूखंड के छोटे-से टुकड़े का त्याग भी उन्हें स्वीकार नहीं था । हाँ, इस आर्थिक चुनौती का सामना करने केलिए उन्होंने अपनी सुख-सुविधा की हर वस्तुओं का त्याग कर दिया। दिनोदिन उनके सादगी पसंद व्यक्तित्व की ख्याति भी बढ़ने लगी । मानो त्याग,तप और सत्य की सजीव मूर्ति हों। सुबह नित्य गंगा स्नान-पूजन और रात्रि शयन से पूर्व गीता-रामायण का पाठ, यह दो कार्य उनकी दिनचर्या के अंग बन गए । यह देख मुहल्ले-टोले के लोग आदर से उन्हें भगत जी कहा करते ।


  समय बीतते देर न लगी । बिटिया सयानी हो चली । वह रूप,रंग और गुण से बिल्कुल अपनी माँ गुणवंती पर गयी थी। धार्मिक संस्कार उसे पिता से मिले ही थे ,जिसे न अपनी विद्या का अहंकार था न रूप का दर्प ,ऐसी सर्वगुणी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश कर रहे भगतदास की मंशा शीघ्र पूर्ण हो गयी। मध्यवर्गीय परिवार का एक उद्यमशील युवक राजा जिसे आत्मनिर्भर बनाने में उन्होंने कभी तन-मन-धन से मदद की थी,अब उनका जामाता था। ससुराल में उनकी रानी बेटी राज करेगी, इसमें उन्हें संदेह नहीं था। लेकिन, भगतदास को क्या पता कि वे अपनी गऊ-सी पुत्री को कसाई के हाथ सौंप आये हैं।जमाई राजा को अपनी रानी से नहीं वरन् उनकी दौलत से प्रेम था।


      सच भी है कि बिना आलीशान बंगले और मोटरगाड़ी के काहे का राजा! ईमानदारी और परिश्रम के धन से यह संभव न था। उसने पत्नी से खुलकर अपनी अभिलाषा का ज़िक्र किया ,डराया-धमकाया,फिर भी वह पिता से यह कहने को तैयार नहीं हुई कि वे करोड़ों की अपनी अचल सम्पत्ति का एक हिस्सा उसके नाम कर दें।  बदले में वह यंत्रणा सहती रही। इससे क्रुद्ध हो कर राजा ने हर उस व्यसन को स्वीकार कर लिया, जिसके माध्यम से वो बंगला-गाड़ी , धन-दौलत, नौकर-चाकर सब-कुछ हासिल कर सकता है। वह जानता था कि जुगाड़-तंत्र की इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। यह सब बस दिमाग का खेल है,जो उसके पास था ही। फिर क्या था बड़े लोगों की महफ़िल में रात गुजारनें लगा।उनके लिए शराब,शबाब और कबाब की व्यवस्था करता, बदले में उनसे छोटी-मोटी ठेकेदारी झटक लेता।


   पति के कृत्य को देख दीप्ती के चेहर की चमक बुझने लगी। धर्मनिष्ठ पतिव्रता स्त्री हर कष्ट सहन कर सकती है किन्तु पति का ऐसा आचरण कदापि नहीं ,जो दूसरों के मनोरंजन के लिए स्त्री की आबरू का सौदा करे। सच तो यह था कि यदि बाबू भगत सिंह का भय न होता तो दामाद  जी अपनी सती सावित्री पत्नी को भी इन भद्रजनों के इंज्वॉय क्लब का हिस्सा बना चुके होते ।  सुरा-सुंदरी के खेल ने राजा के हर स्वप्न को साकार कर दिया । पत्नी का मतलब उसके लिए जीवन-साथी नहीं, चरणों की दासी था। दीप्ती की भावनाएँ उसकी धनलोलुपता की भेंट चढ़ गयीं । बेचारी ! एकांत में सिसकती और ससुराल वालों के समक्ष मुस्काती थी,पति के हाथों पिटाई का जो भय था।

 

   उधर ,मायके में उसके भाई चिराग़ का हाल कम बुरा न था। करोड़ों की सम्पत्ति का वारिस फिर भी ज़ेब खाली ,न मोटरगाड़ी और न ही साथी रईसजादों की तरह मौजमस्ती के साधन। बहनोई की चकाचौंध भरी दुनिया के समक्ष अपने पिता का ईमानदारी भरा व्यवसाय, उसे तुच्छ लगता। इसी भटकाव में वह बहता चला गया और बढ़ती गयी पिता-पुत्र की दूरी। युवा पुत्र संग वैचारिक मतभेद का टकराव रोकने के लिए भगतदास ने उसके कार्यों में हस्तक्षेप बंद कर दिया। बहन ने समझाने का प्रयत्न किया। समाज में पिता के सम्मान का हवाला दिया, परंतु भाई ने परिहास में ही उसपर तंज़ किया- " दीदी,यह ज्ञान जीजा जी को क्यों नहीं देती ? देखों उन्हीं की कमाई की इस महँगी गाड़ी से जब तुम मायके से आती हो,तो पड़ोस की स्त्रियाँ किस प्रकार ईर्ष्या भाव से तुम्हें देखती हैं।"


    चिराग़ ऐसा कुतर्क रचता कि दीप्ती निरुत्तर हो जाती। वैसे भी मायके से विदा होने के बाद बेटी के लिए यह घर अपना कहाँ होता है? भाई संग विवाद के भय से उसने भी पिता-गृह आना कम कर दिया। अब चिराग़ पर नज़र रखने वाला कोई नहीं रहा। परिस्थितियों का लाभ उठा बहनोई यह कह उसे भड़काता - "अरे साले साहब! मैं हूँ न ,चिन्ता किस बात की, हमारे संग रहो और दुनिया का मजा लूटो।" जीजा के चंद सिक्कों की झंकार के समक्ष उसे पिता का आदर्श खोखला लगा। वह फिसलता चला गया। उस नादान को कपटी मित्र और संबधियों की पहचान  जो न थी। जबकि उसकी अचल सम्पत्ति जीजा के धन से कई गुनी थी।


     परिस्थितियों का लाभ उठा राजा ने चिराग़ का विवाह इसी इंज्वॉय क्लब की एक सुंदर युवती माया से करवा दिया। भगत जी जमाता  के षड़यंत्र से अंजान घर में पुत्रवधू के आने की खुशियाँ मना रहे थे।उन्हें नहीं पता कि गृहलक्ष्मी की जगह  विषकन्या ने उनके गृह में प्रवेश किया है। शादी को साल भर भी नहीं हुआ था कि माया की नारी लीला शुरू हो गयी।ससुराल में उसके पाँव टिकते ही नहीं थे । अपने खानदानी उसूलों का जनाज़ा निकलते देख भगतदास ने दो-चार बार बहू को टोका क्या, वह घायल नागिन-सी पलटवार के लिए तड़़प उठी । पति पहले से ही उसके इशारे का गुलाम था। बस बुड्ढे को ठिकाने लगाने के लिए रास्ता ढूंढ रही थी।उसका यह काम जीजा ने आसान कर दिया। उसे तो बस अपने अमोघ अस्त्र 'आँसू' की ओट में शब्दबाण का प्रयोग भर करना था।


     उस रात भोजन कर भगतदास जैसे ही रामायण हाथ में लेकर पाठ पर बैठे थे कि बाज़ू वाले कमरे से बहू के रोने-सिसकने की आवाज़  सुनाई पड़ी,जो पति से कह रही थी-"अजी ! यह कहते लज्जा आती है कि आपके चरित्रवान पिताजी ,जो हम सभी पर अकारण शक करते हैं, उनकी.. मुझ पर नियत ठीक नहीं है। मारे भय के दिन में अकेली घर पर नहीं रह पाती,जिसपर मुझे कुलटा कहा जाता है। सुन लो आपभी,अब और नहीं रहना इस ढोंगी भगत के संग। " उनका पुत्र भी त्रियाचरित्र के प्रभाव में था। बेटे-बहू के मध्य ऐसे संवाद वे अधिक देर तक नहीं सहन कर सकें। इस आकस्मिक वज्रपात से उनका हृदय विदीर्ण हो चुका था। वह रह-रह कर हाहाकार कर रहा था। ऐसी आत्म वेदना उन्हें पत्नी की मृत्यु पर भी नहीं हुई थी।मन की पीड़ा आँखों में नहीं समा रही थी। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी घर की मर्यादा बनाये रखने में बर्बाद कर दी थी। उनके इसी त्याग को शर्म-हया विहीन यह स्त्री निगलने को आतुर है। बेटी समान बहू के लांछन ने उनके शांत चित्त को विचलित कर दिया था।किन्तु जब अपना ही सिक्का खोटा हो,तो सफाई किसे देते ?


    पूरी रात करवटें बदलते रहे भगतदास। उनके उज्ज्वल चरित्र पर जो कलंक अपनों ने लगाया था,उस ग्लानि से उनके मन को तनिक भी विश्राम नहीं मिल रहा था। वे स्वयं से प्रश्न करते कि क्या ऐसे ही कुपुत्र के लिए उन्होंने पुनर्विवाह नहीं किया ? क्या ऐसे ही स्वजनों के भरण-पोषण के लिए वे उद्यम कर रहे हैं ? उन्होंने तो पढ़ा था - "त्याग में हृदय को खींचने की शक्ति होती है। व्यक्ति के दोष भी इसके प्रभाव में आकर अलंकार बन चमक उठते हैं।" फिर यह कलंक उनके किस कर्म का दण्ड है। वे समझ गये कि यदि यहाँ कुछ दिनों और ठहरे तो यह पापिन उन्हें किसी को मुँह दिखलाने लायक नहीं छोड़ेगी। उन्हें अपने जमाता की कुटिलता का ज्ञान होता है, परंतु निःसहाय थे। उन्होंने अत्यंत दीनभाव से अपने ईष्ट को पुकारा था-"हे प्रभु! मेरा त्याग अभिशाप क्यों बन गया ? अब आप ही मेरी रक्षा करें।"


   तभी उनकी ज्ञानेंद्रिय जागृत होती है। उन्हें बोध होता है कि इस लौकिक जगत के सारे संबंध अनिश्चित है, परिवर्तित है। मोह का पर्दा हटता है। उनके शून्य नेत्रों में अपनों के प्रति पहचान के एक भी चिन्ह शेष नहीं रहे ।वे धन ,परिवार और घर सभी त्याग देते हैं। विकल हृदय को वैराग्य का मार्ग मिल गया था।

 

     भगतदास को गये वर्षों बीत गए हैं।किसी सगे-सम्बंधी ने उन्हें फिर कहीं नहीं देखा। यह  अवश्य सुनने को मिला कि अमुक मठ में कभी कोई भगत जी रहते थे।बड़े सच्चे संत थे । मुखमंडल पर अद्भुत तेज था, किन्तु अनुयायियों की संख्या बढ़ने पर ख्याति के भय से अज्ञात स्थान को चले गये। इधर,जीजा ने साले को विभिन्न व्यसनों में उलझा उसकी पैतृक सम्पत्ति की कुछ इस तरह से बोली लगवाई कि सिर छिपाने के लिए सिर्फ़ पिता द्वारा बनवाया गया मकान ही शेष रहा। इंज्वॉय क्लब में ऐसे दरिद्रजनों का प्रवेश वर्जित था। वैभव के नष्ट होते ही दुर्दिन ने भगतदास के पुत्र की आँखें खोल दी, किन्तु परिश्रम उसने कभी किया नहीं था। वह व्याकुल हृदय से बार -बार अपने पिता का स्मरण करता । करोड़ों की अचल सम्पत्ति हाथ से निकल जाने पर अपनी छाती पीटता। पछाड़ खा कर भूमि पर जा गिरता, तो कभी अपनी इस स्थिति के लिए पत्नी को उलाहना देता। पिता के अनुशासन में मिले स्वर्गीय सुख का स्मरण करता।पति की यह दशा देख पितातुल्य ससुर पर आक्षेप लगाने वाली माया पश्चाताप की अग्नि में जली जा रही थी। वह कहती-"काश ! ससुर जी कहीं मिल जाते तो हाथ-पाँव जोड़ मना लाती ।" घर का चिराग़ बुझने को था। संभवतः भगतदास के त्याग का इनके लिए यही दण्ड था।

  और हाँ, राजा साहब का भाग्य चक्र भी परिवर्तित हो गया था। इंज्वॉय क्लब के यौन व्यापार ने उन्हें जेल का रास्ता जो दिखा दिया था।


    ---व्याकुल पथिक



Wednesday, 30 September 2020

प्यार का तोहफ़ा

(जीवन के रंग)

  बंगाल के सबसे बड़े पर्व दुर्गा- पूजा पर बंगालियों का रंग-ढंग देखते ही बन रहा था। बंगाली स्त्रियों का कहना ही क्या,पूजा के पाँचों दिन षष्ठी से दशमी तक वे अलग-अलग परिधानों में जो दिखती हैं । सप्तमी की संध्या के लिए अलग साड़ी, तो अष्टमी के अलग वस्त्र। नवमी के दिन माथे पर लाल सिंदूर , सिर पर बड़ी-सी लाल बिंदी ,लाल रंग की साड़ी और उसी रंग की चूड़ियों में इन्हें देख ऐसा लगता है कि धरती पर मानो स्वयं देवी ही उतर आयी हों। दशमी की शाम वैसे तो माँ के जाने का गम होता है,फिर भी माँ को पूरे उमंग और उत्साह से भावपूर्ण विदाई देने के लिए ये बंगाली औरतें चौड़े लाल पाड़ वाली साड़ी पहनती हैं। सुहागिन स्त्रियाँ एक दूसरे संग सिंदूर की होली खेलती हैं ,  जिससे सभी की साड़ियाँ एक जैसी रक्तवर्णी हो जाती हैं। इनकी नम आँखों में अगले साल माँ के पुनः आगमन की प्रतीक्षा होती है। इसी आशावाद से यह मानव जीवन संचरित है। किन्तु सोनम मुखर्जी के लिए ऐसे पर्व सदैव दर्द का पैगाम लेकर आते हैं। उसके अपने जीवन में कोई आशा और उमंग जो नहीं रहा। दिल की ख़ामोशी चेहरे पर छिपाये नहीं छिपती। वह ऐसे उल्लास भरे अवसर पर भी नीली पाड़़ वाली पुरानी सफ़ेद साड़ी पहने अष्टमी व्रत-पूजन की तैयारी में जुटी हुई थी। 

डा0 सुशांत उसके दुःख से अनभिज्ञ नहीं है,किन्तु इस संदर्भ में जब भी कोई पहल करना चाहता, सोनम की गरिमामयी देवी तुल्य छवि जो वर्षों से उसके हृदय में है, संकोच की दीवार बन जाती है। आज वह चिकित्सक है,तो यह इस देवी के त्याग और तप का परिणाम है, परंतु बदले में सोनम को क्या मिला ? एकाकी जीवन, न अपना घर-न कोई स्वप्न ।जिसके लिए सुशांत स्वयं को जिम्मेदार मानता है। चाहे जैसे भी हो सोनम की खुशियाँ वापस लाकर ही रहेगा, इसे लेकर वह स्वयं को दृढसंकल्पित कर चुका था । वर्षों पूर्व माँ की मृत्यु से वीरान पड़े उसके घर में इस बार विजयादशमी और दीपावली मनायी जायेंगी , ऐसा निश्चय कर सुबह अवकाश के दिन भी हॉस्पिटल जाते समय उसने पहली बार अधिकार भरे स्वर में सोनम से कहा था -" शाम मैं आपको ऐसा तोहफ़ा दूँगा,जिसमें हम दोनों की खुशियाँ हैं,तैयार रहिएगा.. और हाँ, ना-नुकुर बिल्कुल नहीं चलेगा।" 

 सुशांत के जाने के पश्चात उसका यह 'सरप्राइज गिफ्ट' सोनम के मन को उद्विग्न किये हुये था। यह उपहार उसके लिए एक पहेली जैसा था। इस विषय पर वह जितना ही चिंतन करती, उतनी ही चिंतित होती जाती ।वह विचारों के दलदल की गहराई में धँसी जा रही थी । उसके मुखमंडल पर कभी स्त्रीयोचित लज्जा का भाव छा जाता तो कभी सामाजिक उपहास के भय से सिहर उठती । "क्या करे वह ? कैसे मनाए इस जिद्दी युवक को जिसने किशोरावस्था से लेकर अब-तक उसकी कोई भी बात नहीं टाली थी,मानो रोबोट हो,किन्तु इसबार उसके लाला ने उससे कुछ मांगा है ?" इस विषय पर वह स्वयं से अनेक प्रश्न करती और खुद ही निरुत्तर हो जाती। " हे ईश्वर ! तुझसे यही प्रार्थना है कि मेरे कारण  सुशांत की समाजिक प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने पाए।"  जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था , सोनम की धड़कनें तेज होती गयीं।इन दोनों के बीच वर्षों से पवित्र स्नेह का ऐसा संबंध है,जो बिना कहे एक दूजे की भावनाओं को बयां कर देता है, इसलिये सुशांत के निश्छल व मासूम हृदय की आवाज़ सोनम तक पहुँच रही थी। जिसने उसे विकल कर रखा था। "नहीं-नहीं , यह अनर्थ नहीं होने देगी।उसके वर्षों की तपस्या का परिणाम है डा0 सुशांत। यही कोई तीस वर्ष का ही तो है। अभी उसका पूरा भविष्य सामने है।"

  तभी उसके मानसपटल पर अतीत से जुड़ी अनेक खट्टी-मीठी यादें चलचित्र की भाँति दृश्यमान होने लगती हैं। अठारह वर्ष पूर्व जब वह  बीस की थी,तब अपनी विमाता से प्रताड़ित होकर घर छोड़ कोलकाता भाग आयी थी। भीड़ भरी सड़कों पर उसके तन को घूरती अनेक आँखों के मध्य सौभाग्य से सुशांत की विधवा माँ से कालीबाड़ी में भेंट हो गयी। जिनका ममत्व भरा आँचल उसका सुरक्षा कवच बन गया। उसकी काकी एक कुशल नर्स थी । दो-ढ़ाई वर्ष उनका यही सानिध्य ,भविष्य में सोनम और सुशांत की आजीविका का वर्षों सहारा बना रहा।

  उसे वह मनहूस दिन भलिभाँति याद है , जब जानलेवा ज्वर ने उसके आश्रयदाता से उसका जीवन छीन लिया था। महाप्रयाण से पूर्व उस विधवा माँ ने अपने इकलौते पुत्र को उसके समक्ष कर अश्रुपूरित नेत्रों से कहा था -" बेटी ,जब से तू आयी है, इस नटखट के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखा है। इस घर के कुलदीपक को बुझने मत देना। प्रयत्न करना कि यह पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाए। मेरे पास तुझे देने को इन आभूषण के सिवा और कुछ नहीं है , इन्हें रख ले। "

 जिसे सुनकर सोनम की आँखें भी बरसने लगी थीं । उसने रुँधे गले से कहा था-"काकी, ऐसा न कहें, हम आपको कुछ नहीं होने देंगे।" लेकिन अगले ही पल उसकी काकी की साँसें उखड़ने लगीं । फिर भी अपनी अधूरी बात पूरी करते हुये उन्होंने पुत्र से कहा था-" बेटा, यह सदैव याद रखना कि इस घर पर सोनम का भी तेरे समान अधिकार है। उसे कभी कष्ट मत देना।" और अगले ही क्षण करुण-क्रंदन से वातावरण बोझिल हो उठा था।

   उस दुःखद दृश्य का स्मरण कर सोनम की आँखें फिर से डबडबा उठी थीं ।वह यह कैसे भूल सकती है कि नवमी का ही दिन था जब काकी उसे एक बड़ा दायित्व सौंप विदा हो गयी थी। और आज उनकी मृत्यु के सोलह वर्ष पश्चात इसी दुर्गापूजा पर्व पर यह बावला सुशांत उसके लिए उपहार की बात कर रहा है। "डाक्टर हो गया तो क्या कोई अपनी माँ को भूल जाता है !  "नहीं-नहीं  ऐसा कोई तोहफ़ा स्वीकार नहीं करेगी। न ही पर्व की खुशियाँ मनाएगी । होता है नाराज तो हो ले।",ऐसा विचार कर वह पुनः अपनी स्मृतियों में खो जाती है।

  विधि जब प्रतिकूल हो, पग-पग पर दुर्भाग्य सामने खड़ा होता है। गृहत्याग के बाद सोनम को इस दुनिया की बुरी निगाहों से बचाने के लिए उसे  काकी के ममत्व की जो छाँव मिली थी, अब वह भी नहीं रही। लेकिन सुशांत के साथ होने से उसका आत्मबल पहले की तरह कमजोर नहीं था। दृढनिश्चय के साथ अपने प्रारब्ध से वह टकरा गयी। 


   सुशांत उससे आठ साल छोटा है,किन्तु दोनों के इस अनाम पवित्र संबंध को लेकर कुत्सा और कानाफूसी  करने वालों की कमी नहीं थी। ताने सुनकर उसकी आत्मा तड़प उठती थी। फिर भी इसकी परवाह न कर एक निजी नर्सिंगहोम में नर्स के मामूली पगार से उसने अपना पेट और तन काट कर सुशांत की शिक्षा जारी रखी। उसकी स्नेह की छाँव और कठोर श्रम को देख नटखट सुशांत के हृदय में विद्यार्जन की ऐसी ललक जगी कि डिग्री मिलते ही वह कोलकाता के एक हॉस्पिटल का सितारा बन गया। समाज का भूषण है वो। पर हाँ,एक ऐसे जीवनसाथी की उसे ज़रूरत है,जो उसी की भाँति उसके लाला का ख़्याल रख सके। तभी वह अपने दायित्व से मुक्त होगी। माना कि थोड़ा जिद्दी है,पर दिल का सच्चा है। उसने कई बार इस विषय पर सुशांत की ख़ामोशी तोड़ने की कोशिश की और पूछा था-"लाला ! कोई पसंद की लड़की हो तो बता  दें । अच्छा, एक काम कर न्यूज़ पेपर में मैट्रिमोनियल कैसा रहेगा ? " लेकिन विवाह के नाम पर सुशांत के मुख पर ताला जड़ जाता। यह देख झुंझला कर वह कहती-"तो क्या जीवन भर मुझसे चौका-बर्तन करवाएगा ? रसोइए के हाथ के भोजन से तेरा हाज़मा खराब हो जाता है ।" प्रतिउत्तर में सुशांत मुस्कुराते हुये कहता- "बंदा हाजिर है। बोलो क्या खाना है।" और फिर आमलेट बनाने की तैयारी में जुट जाता। उसके ऐसे ही नटखटपन पर फ़िदा सोनम अपना गुस्सा थूक,उसकी हर ज़रूरत को अपनी प्राथमिकता समझती।

     लेकिन इस जीवन-संघर्ष में सोनम की अपनी खुशियाँ पीछे छूट चुकी थीं। कभी कोमलता और सुकुमारता की बेजोड़ मूर्ति थी वह। किन्तु समय के थपेड़े ने उसके गोरे गुलाबी रंग, मक्खन-सी काया पर असमय ही ग्रहण लगा दिया था।उसका जीवन रंगीनियों से दूर हो चुका था।जिसका उसे तनिक भी अफ़सोस नहीं है, क्योंकि वह काकी के विश्वास का मान रखने में सफल रही। यह उसकी कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी ? सोनम अतीत के इन्हीं तिक्त और मधुर क्षणों में खोयी हुई थी कि न जाने कब आहिस्ते से बाबू मोशाय सुनहरे रंग का एक खूबसूरत डिब्बा लिये उसके पीछे आ खड़े हुये।

 " सरप्राइज !",

सुशांत की आवाज़ सुनते ही सोनम हड़बड़ा कर सोफे पर से उठी ही थी कि शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है । अगले ही पल वह बाबू मोशाय के आगे बढ़े हुये बाँहों में होती है । क्षण भर के लिए दोनों की नज़रें मिलती हैं। सोनम ने देखा कि सुशांत की आँखों में वही मासूमियत उतर आयी है, जब सोलह वर्ष पूर्व माँ को खोने के बाद वह इसीप्रकार उससे आ लिपटा था। बस तब वह सिसक रहा था और अब वे आँखें खिलखिला रही हैं।

"पागल हो क्या बिल्कुल ? नवमी को काकी की बरसी है और तुम्हें यह परिहास सूझ रहा !", सोनम ने सुशांत को तनिक झिड़कते हुये कहा था। 

 "तो क्या हुआ,इतने साल हो गये हैं,माँ को गुजरे। भगवान राम का वनवास भी चौदह वर्ष में समाप्त हो गया था। और आप वहीं ठहरी हुई हैं।",तुनक कर सुशांत ने प्रतिवाद किया। 

"अरे ! यूँ नाराज क्यों होते हो, तुम्हें छोड़ मेरे पीठ पर और है ही कौन ? तुम पर अधिकार समझा, सो कह दिया। " सुशांत का उतरा हुया चेहरा देख सोनम से रहा नहीं गया। "अच्छा, लाओ मेरा उपहार ,जो कहोगे मानूँगी। यह हनुमान जी की तरह मुँह न फुलाया करो। मेरी तो जान निकल जाती है।" 

    "हाँ भई,ऐसा ही हूँ मैं ।आपकी तरह सदैव के लिए मौनव्रत थोड़े न किया हूँ। अच्छा, अपना वचन पूरा करें और यह परिधान शीघ्र पहन कर आयें   । हम दोनों दुर्गा पांडाल  घूमने चलेंगे। वह भी कार से नहीं, पैदल। जिसतरह माँ के संग गये थे।",बाबू मोशाय ने कनखियों से सोनम के मुख-मंडल को निहारा था,ताकि उसके चेहरे के भाव को परख सके। 

"ना बाबा ,यह नहीं हो सकता, वह भी लाल  छींटदार  लखनवी चिकन की साड़ी ! यह तो सुहागिनों के लिए होती है। इसे पहन कर वह भी तुम्हारे साथ पैदल ही सड़क पर ! ",ऐसे उपहार को देख सोनम का पूरा बदन थरथरा उठा था। यदि ऐसा अनर्थ उसने किया तो कैसे करेगी इस निष्ठुर सभ्य जगत का सामना ?

    यह सुनाते ही क्रुद्ध हो सुशांत सत्याग्रह पर अड़ गया। सीधे भूख हड़ताल की धमकी दे उसने लपक कर अटैची उठा ली, दो-चार कपड़े उसमें ठूँस दरवाजे की ओर जा बढ़ा। उसका ऐसा रूप पहले कभी सोनम ने नहीं देखा था। वह व्याकुल हो उठी थी, जैसे जल बिन मीन। अपने डाक्टर को मनाने के लिए वह दौड़ कर उसका बाँह पकड़ अपनी ओर खींचते  हुये अत्यधिक वेदना भरे स्वर में कहती है- " लाला, त्योहार के दिन ऐसे रुठे जा रहे हो ! कैसा निर्दयी है रे ! यह भी नहीं सोचा इस घर में मेरा क्या होगा?"


   पहली बार लाल जोड़े में सादगी भरा श्रृंगार कर सोनम सकुचाते हुये उसके समक्ष सिर झुकाये आ खड़ी होती है। उसका पवित्र मुखमंडल सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहा था। उसका ऐसा भव्य स्वरूप देख सुशांत के का अंग -प्रत्यंग रोमांचित हो उठा था। उसे सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वही जीवनदायिनी  ,प्राण- पोषणी देवी उसके समक्ष खड़ी है, जिसका स्वप्न वह देखा करता है।जिसपर वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर है। इस तनमन अवस्था में उसे स्वर्गीय आनंद की प्राप्ति हो रही थी। वह कहता है- "क्या दर्पण में कभी स्वयं को देखा है ? साक्षात देवी दुर्गा का प्रतिबिंब लग रही हैं आप। याद रखें यह मानव जीवन वेदना की मूर्ति बनने के लिए नहीं है। समय और भाग्य के अत्याचार से हम मुक्त हो चुके हैं।"  सोनम गूँगी  गुड़िया की तरह जड़वत खड़ी रही। "अरे ! चलना नहीं है कि बस यूँ ही समय व्यतीत करते रहेंगे हम। एक बार बोल दिया न ,मार्ग में कोई नाक-सिकोड़े हमें फ़र्क नहीं पड़ता।"


    देर रात तक सोनम को वह कोलकाता के मशहूर दुर्गा पांडालों में घुमाता रहा। भव्य पांडाल ,पूजा की पवित्रता,रंगों की छटा,तेजस्वी चेहरों वाली देवियाँ,धुनुची नृत्य, सिंदूर खेला और भी बहुत कुछ दिव्य और अलौकिक दृश्य वर्षों बाद देख वह अचम्भित-सी रह जाती है,मानो किसी नयी दुनिया की सैर कर रही हो, क्योंकि बीते तमाम वर्षों में उसका सफर घर से नर्सिंग होम तक ही रहा। पांडालों में जनसमुदाय उमड़ा हुआ था। इतनी भीड़ देख कर बिछुड़ जाने के भय से उसने सुशांत के बायें हाथ को कस कर पकड़ रखा था। ऐसे सौंदर्य,लज्जा, स्नेह,गर्व और विनय की देवी को सुशांत भी भला क्यों खोना चाहेगा ? घर लौटते समय उसने सोनम को उसके उसका मनपसंद  बंगाली मिष्ठान 'संदेश' खिलाया था। मेले की थकान से उसका शरीर शिथिल अवश्य पड़ गया था ,परंतु सदैव उदास रहने वाला मुखड़ा खिल उठा था। शुष्क आँखों में रोशनी थी। अब-तक अनजाने मोह से जूझ रहा उसका हृदय कुछ कहना चाहता था, फिर भी वह मौन रही।

   सुशांत दृढ़ चित्त मनुष्य था। उसे देवी प्रतिमा के समक्ष यह संकल्प लिया था कि सोनम की सूनी मांग उन्हीं की तरह लाल सिंदूर से भरी होगी । यह दीवाली उनके लिए विशेष होगी। 

वह जनाता था कि ऐसा हृदय कहाँ,जिसे प्रेम न जीत सके। प्रेम में फैली हुई बाँहों का आकर्षण भला किस पर न हुआ हो। वह इस तथाकथित सभ्य समाज को यह संदेश भी देना चाहता था कि यदि अधिक उम्र के लड़कों से लड़कियों को विवाह दिया जाता है,तो विशेष परिस्थितियों में वर से यदि कन्या ज्येष्ठा हो तो उसे भी वही मान मिलना चाहिए। सोनम को वह तब से चाहता था, जबसे स्वयं उसने यौवन की दहलीज पर पाँव रखा था। बस उसे अपने आत्मनिर्भर होने की प्रतीक्षा थी। ताकि वह सोनम को ढेरों खुशियाँ दे सके। उन दोनों के मध्य जो पवित्र रिश्ता रहा, उसे अब वह एक नाम देना चाहता है।  


     उधर, सोनम उसकी मंशा अनभिज्ञ थी। अपने लाला के प्रति उसके मन में शुद्ध स्नेह तो था, किन्तु स्वार्थ नहीं। उसने यह कल्पना तक नहीं की थी सुशांत कभी इसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखेंगा। वह स्तब्ध थी, आवेश में कहती है-"लाला ,क्या तू मेरी जगहँसाई करवा के रहेगा ?" किन्तु सुशांत निस्संकोच भाव से उसके हर प्रश्न का उत्तर दिये जा रहा था। वह कहता है - "मैंने एक नारी के सारे भाव मातृत्व, पत्नीत्व, गृहिणीत्व आपमें देखा है। मेरे लिये स्त्री कुत्सित वासना का माध्यम  नहीं है। वर्षों से साथ में हूँ,क्या आपको कभी मेरे आचरण में खोट नज़र आया?"उसके अधिकार भरे शब्दों में प्रेम का  गंगाजल छलक रहा था । उसकी मनोदशा देख सोनम को भी जीवन का मनोहर राग सुनाई देने लगा था। आँखों से प्रेम की किरणें निकलने लगी थीं। देखते ही देखते प्रेम से दोनों विह्वल हो उठे थे।मानो प्यासे को ठंडे जल की झील गई हो । संकोच की दीवार टूट चुकी थी।इसे सोनम की सहमति समझ सुशांत यह मधुर गीत गुनगुने लगता है-


ना उम्र की सीमा हो,ना जन्म का हो बंधन।

जब प्यार  करे कोई , तो देखे केवल मन।


    उधर, सोनम ! वह तो अपने पिया के रंग में रंगी जा रही थी। वीरान  घर में पवित्र अनुगूँज फिर से गूँजने लगी थी। किसी ने सत्य ही कहा है- "जब भी जीवन में सुनहरा पल आपके सामने हो उसके स्वागत से मुँह मत मोड़ो। छूट गया तो वापस नहीं आएगा।" और सोनम इस सच से अब नज़रें नहीं चुराना चाहती थी।

-व्याकुल पथिक

Wednesday, 23 September 2020

कर्मफल

 


कर्मफल

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जीवन के रंग

     पितरपख का महीना चढ़ते ही गनेशू सेठ स्वर्गलोक सिधार गये। उन्होंने न किसी की सेवा ली न दवा-दुआ ! इतवार की सुबह आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही प्राण पखेरू उड़ गये। मुख में तुलसी-गंगाजल डालने का अवसर भी प्रियजनों को नहीं दिया। उन्हें इसकी ज़रूरत भी नहीं थी,ताउम्र अपने व्यवसाय को ही देवता समझ जो पूजा था। दाँतों से दमड़ी पकड़ने की कला में वे पूरे इलाके में विख्यात, यूँ कहें कुख्यात थे।जीवन के आखिरी दिनों तक दुकान में आसन जमाये रहे। पुत्र ने धंधे में तनिक भी उदारता बरती नहीं कि ग्राहकों के सामने ही लगते नसीहत देने । घंटों व्यापार की रीति-नीति समझाते।व्यवसाय में संबंधों की उपेक्षा की बात कहते। चंदा-सहयोग माँगने वालों को ढ़ोंगी बता, उनसे सावधान करते। यह भी उपदेश देते कि कुशल बनिया वो ही है,जो धंधे में पराई पीड़ा को अपने दिल से न लगाता हो। सेठजी स्वयं तो दर्शन-पूजन , दान-पुण्य एवं व्रत-उपासना से दूर रहते और यदि घर-दुकान में एक अगरबत्ती से अधिक बेटे-बहू ने सुलगायी नहीं कि ऐसा शोर मचाते मानो खजाना लुट गया हो। उनकी बस एक ही आकांक्षा थी--घर आयी लक्ष्मी तिजोरी से बाहर न जाए, इसीलिए उन्होंने न तो कभी अपने संकीर्ण हृदय का विस्तार किया और न ही संचित धन का धर्म-कर्म और समाजसेवा जैसे कार्यों में सदुपयोग ।


   उनका धन-लक्ष्मी से अत्यधिक स्नेह स्वभाविक था।जिसकी कृपा से वे गनेशू से सेठ गनेश प्रसाद बने थे। जब-तक जीवित रहें मुग्ध नेत्रों से अपने खजाने को तौलते रहे। धन देखते ही उनके हृदय में हिलोरें उठने लगतीं।आनंद से रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठता। बचपन में एक साइकिल तक को तरसने वाले सेठ की कोठी की शोभा अब बाहर खड़ी महंगी मोटरगाड़ी बढ़ाने लगी थी। शहर के उन चंद उद्यमियों में उनका नाम मिसाल था, जिन्होंने अपने पुरुषार्थ से विरासत में मिली बंजर भूमि पर सोने की फसल उगाई थी। फिर भी उनसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं थी। उनका सबसे बड़ा शत्रु यह कंजूसी ही थी। जिसे वे खुद के अमीर होने का राज समझते।धीरे-धीरे बेटे-बहू भी उनके रंग में ढलते गये। कृपणता के मामले में बाप-बेटे का रिश्ता लक्खीमल-करोड़ीमल जैसा था। घर के मुखिया के रूप में वे सर्वमान्य रहें,पूरा परिवार उनके इशारे पर चलता था।


      योग्य उत्तराधिकारी पाकर सेठ को विश्वास हो गया था कि ऐसे पुत्र के रहते उनकी दौलत पर समाज का कोई भी परोपकारी प्राणी डाका नहीं डाल सकता। फिर भी मन में जिसे लेकर आशंका थी, वह था उनका पौत्र भोंदू। तीन बहनों के बाद जब उसका जन्म हुआ था, तो सेठ ने यह कह कर किसी विशेष आयोजन पर पहरा बैठा दिया था कि लड़का जब-तक पाँच साल का नहीं हो जाए, उसके जन्म की खुशी में कोई भी उत्सव घर में नहीं होगा। लेकिन बच्चे के ननिहाल से आये ढेरों उपहार की गिनती करने वे स्वयं दरवाजे पर जा डटे। बच्चे की तीनों सगी बुआ भी अपने पिता की इस कंजूस पर तुनक उठी थीं।जिस कारण अनेक दिनों तक उन्होंने मायके की ओर झाँका भी न था । बच्चे के जन्म पर मायके से कीमती उपहार मिलने की उम्मीद जो टूट चुकी थी। ऐसे शुभ कार्यक्रमों में बुआओं का हक-पद बनता ही है।पिता की कंजूसी से उनकी ये अभिलाषा धरी रह गयी थी।


  वैसे भोंदू बच्चे का असली नाम नहीं था। हाँ, गनेशू उसे भोंदू कह इसलिए पुकारते ,क्योंकि वह अपने बाप-दाद की तरह धन-संग्रह की प्रवृत्ति से दूर था।जब-तब चोरी-छिपे अपने जेबख़र्च से ग़रीब सहपाठियों का सहयोग किया करता था। धन के संबंध में उसकी यह उदारता भला कंजूस सेठ को कैसे सहन होती,जिसने अपने जीवनकाल में भूल कर भी मदद के नाम पर किसी को फूटी कौड़ी न दी हो।इसलिए उन्होंने अपने कुलदीपक को धन-संचय संबंधी नसीहत देने के लिए अपनी पाठशाला में बुला लिया। बच्चे के समक्ष दानशीलता के दुर्गुण पर  घंटों व्याख्यान देते। घर आये अतिथि को शनिदेव समान बताते। ऐसी विपत्ति से निपटने के लिए उन्होंने जिन युक्तियों का सहारा लिया था, यह सब सबक भोले बालक को रटाते। उसे बार-बार  चेताते - "बेटे, यही मेरी अमीरी का राज है। इस फ़न में तेरा बाप भी पक्का है। अब तेरी बारी है ।"


    गनेशू सेठ में इस कंजूसी के अतिरिक्त कोई बुराई नहीं थी। मुहल्ले में हर कोई इसका साक्षी है कि उसने धूर्तता से यह धन अर्जित नहीं किया। उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुँचाया,किसी की शिकवा- शिकायत नहीं की।उनकी आँखों में तो उनका धंधा नाचता रहता,अन्य कार्यों के लिए वक़्त कहाँ था ? वे हर उस व्यक्ति की दृष्टि में शांतिप्रिय थे, जो उनकी तिजोरी पर बुरी नज़र नहीं रखता था। किन्तु कंजूसी के काले रंग पर और कोई रंग चटख हो भी तो कैसे , इसीलिये शुभचिंतकों में सेठ के सूमपना के किस्से उनके जीवनकाल में ही मशहूर थे। उनके सारे गुणों पर यह एक अवगुण भारी था।


   तो फिर सेठ की ऐसी सुखद मृत्यु उनके किस कर्मफल का पुण्य-प्रताप था ? मुहल्ले-टोले में इसीपर  नयी बहस छिड़ी हुई थी। आखिरकार बूढ़े भगेलू भगत से रहा नहीं गया- "भगवान के दरबार में यह कैसा अंधेर है ? इस पापात्मा को ऐसी सद्गति !" "हाँ भईया ,गज़ब कलयुग है ! जिसने कभी एक दमड़ी परोपकार पर ख़र्च नहीं किया,उस बूढ़े को ऐसी सुखद मौत!"-गंगा स्नान कर लौटी श्याम दुलारी काकी का स्वर भी कम कसैला नहीं था। यूँ समझे कि सेठ का स्वर्गारोहण उसपर सदैव तंज़ कसने वालों के रंज का कारण बन गया था।


      गनेशू सेठ की पुत्रियों का ससुराल दूर था। उनके आने के पश्चात कृत्रिम शोकाकुल वातावरण में अंतिम संस्कार की क्रिया पूर्ण हुई। अब रात्रि हो चुकी थी। नाते-रिश्तेदार अपने घरों को लौट गये थे। फुर्सत मिलते ही सेठ की बहू ने अपने पति  से कहा- "अजी सुनते हो ! बाबूजी कितने पुण्यात्मा थे, जो पितरपख में ऐसी सुखद मृत्यु मिली ? मैं तो इतना ही चाहती हूँ कि वे जहाँ भी हों ,अपनी छाया हमपर बनाए रखें। कुछ भावुक सी हो गयी थी सुमन।

   " हाँ, भई! मरे भी तो रविवार बंदी के दिन, व्यापार को भी क्षति नहीं पहुँची। यदि और दिन जाते तो दुकान जो बंद करनी पड़ती। " सेठ के लायक पुत्र ने पत्नी की ओर देख अपनी सहमति जताते हुये कहा।

   "अरे हाँ, वे तो कोरोना संक्रमणकाल में गये हैं। ऐसे में तेरही भोज की बस औपचारिकता ही हमें निभानी है।ऐसे नाज़ुक वक़्त में किसी के दरवाजे आता कौन है ?अन्यथा बड़ा आयोजन करने में डेढ़-दो लाख गल जाते, जिसे देख उनकी आत्मा भी दुःखी होती,किन्तु देखो जी, पिताजी ने मरते दम तक हमारा कितना ख्याल रखा।"

    मुदित मन से सेठ की पुत्रवधू ने जैसे ही अपनी बात पूरी की ही थी कि सामने भोंदू को खड़ा पाया। जिसकी दृष्टि निरंतर उस कूड़े के ढेर पर टिकी हुई थी। जिसपर बर्फ की बड़ी-बड़ी सिल्लियाँ पड़ी हुई थीं।सुबह इसी पर उसके दादा का पार्थिव शरीर रखा गया था। वह उस ओर संकेत कर सवाल करता है - " वह तो ठीक है माँ,परंतु यह बर्बादी क्यों ? सैकड़ों रुपये की सिल्लियों को आपने कूड़े में फेंक दिया ! और आप दोनों कहते हो कि दादाजी हमें आशीर्वाद दें! अरे ! उनकी आत्मा रो रही होगी, धन की ऐसी बर्बादी पर।"


  तनिक ठहर कर भोंदू ने फिर कहा - " और सुनो माँ , जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो आप दोनों कोरोना से मरना। मुझे न तो इन सिल्लियाँ पर पैसे खर्च करने पड़ेंगे और ना ही आपके क्रियाकर्म पर। सुना है कि यह काम सरकार अपने पैसे से करती है। हाँ माँ, तब दादा जी कितने खुश होंगे मुझ पर, आप दोनों से भी अधिक और उनकी अधूरी आकाँक्षा पूर्ण हो जाएगी,तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। है न पिताजी ! "


  अपने इकलौते पुत्र के ऐसे विचार जानकर अज्ञात भय से सिहर उठे थे वे दोनों। उनका मुख मलिन पड़ गया था पुत्र के शब्द तीर की भाँति मर्म- स्थल को छेद गये ।दानशीलता को सबसे बड़ा अवगुण समझने वाले गनेश सेठ ने जिस अच्छे दिन का सृजन अपने परिवार के लिए किया था,उसी कृपणता ने उनके परिवार की संवेदनाओं का इस प्रकार हरण कर लिया था कि बारह साल का मासूम बालक पैसे बचाने के लिए अपने माता-पिता को कोरोना से मरने की बात कर रहा है। क्या धन का लोभ मानव की आत्मा को इतने नीचे गिरा देता है ? किसी ने उचित ही कहा है-"बाढ़ै पूत पिता के धर्मे।"


    गणेश सेठ तो चले गये,किन्तु धन-संग्रह के प्रति उनकी अत्यधिक लालसा उनके परिवार का कर्मफल बन उसके उज्जवल भविष्य को निगलने  बढ़ी आ रही है। संभवतः इसे ही प्रारब्ध कहते हैं। जो पूर्व जन्म का संचित कर्म नहीं होता,वरन् इसी जन्म में स्वयं अथवा अपनों के द्वारा किये गये कर्म का फल है। संबंधित व्यक्ति अथवा उसका परिवार इसके दंड से अछूता नहीं है।इसलिए इस दम्पति को ऐसा लग रहा था मानो उनका अपना पुत्र ही दंड हाथ में लिए न्याय का देवता शनि बना सामने खड़ा हो...!

 

  तभी उन्हें फ़क़ीर बाबा की वही चिरपरिचित आवाज़ सुनाई पड़ती है। बाबा सेठ की दुकान पर आया करते थे। अपनी आदत के अनुसार बाप-बेटे दोनों ने ही कभी फूटी कौड़ी भी उन्हें न दी थी। और बाबा यह कह आगे बढ़ जाते थे-" ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा।" 


    सेठ गनेश प्रसाद के साथ भी यही हुआ,जिस दौलत को उन्होंने आजीवन हृदय से लगाए रखा ,दबे पाँव आयी मौत ने इतना अवसर भी नहीं दिया कि वे मृत्युलोक से प्रस्थान के पूर्व  अपनी तिजोरी में संचित उसी सम्पत्ति को अंतिम बार जीभर कर देख लेते।


   - व्याकुल पथिक



Wednesday, 16 September 2020

दुःख! तुम लौट आओ

 दुःख! तुम लौट आओ


( जीवन के रंग)

 दिन भर अंगार बरसाने के बाद आसमां ने नीलिमा की भीनी चादर ओढ़ ली थी। जलती धूप से राहत मिलते ही लोकबाग खरीदारी अथवा मनोरंजन के लिए घर से निकल पड़े ,जिससे बाज़ारों में रौनक छा गयी। फलों की दुकानों पर लंगड़ा और दशहरी आम के खरीददारों की भीड़ लगी हुई थी। इस वर्ष मौसम अनुकूल होने से फलों का राजा आम ख़ास ही नहीं आमजनों के लिए भी सुलभ था। इन दुकानों पर निम्न-मध्य वर्ग के ग्राहकों को देख दीपेंदु का मन हर्षित हो उठा था। 


    यूँ तो आम हो या लीची उसकी स्वयं की स्वादेन्द्रिय इनके लिए अब कभी नहीं तरसती-तड़पती है । उसे तो यह भी नहीं पता कि पर्व-उत्सव के दिन कब निकल जाते हैं। वह पेट की आग बुझाने के लिऐ जैसे-तैसे कुछ भी बना-खा लेता है। जिह्वा पर नियंत्रण पाने में परिस्थितियों ने उसकी भरपूर मदद की है। थाली में पड़ीं कच्ची-पक्की रोटियाँ और उबली सब्जी उसके लिए पकवान समान हैं । जीवन की धूप-छाँव से दीपेंदु नहीं घबड़ाता, क्योंकि वह समझ चुका है कि जीवन की महत्ता वेदनाओं और पीड़ाओं को हँसते-हँसते सह लेने में है।


     फिर भी आज न जाने क्यों इन आमों के देख अतीत से जुड़ी अनेक घटनाओं का स्मरण हो आया । इस आनंद-स्मृति में उसे गुदगुदी-सी होने लगी। बात तब की है,जब वह अनाथ नहीं था। उसका अपना छोटा-सा घर था। माता-पिता और भाई-बहन संग थे। परिवार के सदस्यों में कितना स्नेह था, संवेदनाएँ थीं, सच्चाई की झंकार थी। सहानुभूति, दया और त्याग जैसे गुणों के कारण आनंद और उत्साह दो मासूम बच्चों की तरह उसके घर-आंगन में किलकारियाँ भरा करते। उसके परिवार में यदि कुछ नहीं था तो वह थी लक्ष्मी की कृपा। जिसका सामना उसका परिवार बड़े धैर्य के साथ कर रहा था। उन दिनों उसके पिता अपनी शिक्षा की डिग्री लिये नौकरी की तलाश में बनारस जैसे शहर में चप्पलें घसीट रहे थे। जीविका के लिए कोई ठोस आश्रय नहीं था। पुरुषार्थ कर के भी लक्ष्मी को प्रसन्न नहीं कर पाने का उन्हें दुःख था। बिना किसी जुगाड़ के नौकरी उस जमाने में भी इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितना की अब है। 



    धन के अभाव में दरिद्रता का दारूण दृश्य उत्पन्न हो गया,फिर भी परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति समर्पित थे। मिल कर दुःख बाँटने से कोई पीछे नहीं हटता। उसके परिवार की खुशी का यही राज था। दीपेंदु की माँ बड़े घर की बेटी थी। ससुराल के अभावग्रस्त जीवन ने उन्हें विचलित अवश्य किया, किन्तु शीघ्र ही परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने खुद को ढाल लिया। वे कोयल और शक्कर के अभाव में छत पर गिरे बरगद के सूखे पत्तों से अँगीठी सुलगा गुड़ के चूरे से चाय लेतीं,लेकिन उनके मुख से उफ ! किसी ने नहीं सुना। पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए दस-पाँच पैसे तक का हिसाब रखते। हर रात्रि जब वे ख़र्च पर नियंत्रण के लिए डायरी लेकर बैठते माथे पर चिन्ता की लकीरें और गहरा जातीं । हृदय-पीड़ा आँखों में न समाती और प्रभात होते ही बच्चे रट लगाने लगते - "मम्मी! भूख लगी है। नमक-रोटी दो न।"  ज़िगर के टुकड़ों की यह करुण पुकार सुनकर नित्य नयी चुनौतियों के साथ उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती। किन्तु जीवन के इस संघर्ष में किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं थी। आशा का झिलमिलाता दीपक बुझने नहीं पाए इसके वे लिए एक-दूसर के मनोबल को ऊँचा रखते।


      दीपेंदु को भलिभाँति याद है कि इस विपत्ति में भी उसके परिवार में भाग्य का रोना नहीं था। उन तीनों बच्चों के लिए घर में होली, दीपावली और दशहरा जैसे पर्वों पर पकवान बनते। पूड़ी-कचौड़ी, दहीबड़ा-कांजीबड़ा और मगदल वे तीनों भाई-बहन त्योहारों पर छककर भोजन करते, क्योंकि ऐसे स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए उन्हें अगले किसी उत्सव की प्रतीक्षा जो करनी पड़ती थी। पर्वों पर रुपये-आठ आने के पटाखे अथवा रंग-अबीर उसके पिता लाना नहीं भूलते। पर्वों पर नये वस्त्र नहीं बने तो क्या हुआ,वे ऐसे स्वच्छ पोशाक पहनते , जिसे देख अड़ोस-पड़ोस के बच्चे यह नहीं कह सकते थे -" तुम बहन-भाइयों ने होली पर पुराने कपड़े पहन रखे हैं।" और हाँ, खिचड़ी(मकर संक्रांति) पर्व पर उन तीनों बच्चों के लिए माँ चूड़ा-लाई और गुड़ से निर्मित कनस्तर भर लड्डू बनाना कैसे भूल जातीं। बच्चों से ही तो सारे उत्सव हैं। 


  "वाह! घर के बने पकवान कितने स्वादिष्ट थे ! कितना स्नेह छिपा था इनमें।" बचपन के उन दिनों का स्मरण होते ही दीपेंदु का हृदय पुलकित हो उठा था। वे भी क्या दिन थे,जब दस पैसे की चाय लेने वह भागा-भागा उस खंडहरनुमा मकान में नीचे से ही चायवाले काका को पुकारते घुस जाता था।स्नेहवश वे मखनहिया दूध से बनी अपनी चाय से उसका गिलास भर देते थे। घर लौटते ही माँ उसे ढेरों आशीष देते न थकती।वह स्वयं से वार्तालाप में कुछ इस कदर खो-सा गया था कि सड़क पर हो रहे शोर-शराबे और मोटर-गाड़ियों की आवाज़ तक उसे नहीं सुनाई दे रही थी। 


     पिताजी को अपने रिश्तेदारों से  मदद लेना पसंद न था।घर की आर्थिक स्थिति को देख दीपेंदु समय से पहले समझदार हो गया था, इसीलिए त्योहार मनाने में उसके गुल्लक का भी छोटा-सा योगदान हुआ करता था। मिट्टी का शिवलिंग बना तो कभी आसमान से कट कर छत पर आ गिरीं पतंगों को आकर्षक बना कर वह मुहल्ले के दो-चार बच्चों को बेच दिया करता था। यदि कभी किसी हितैषी ने चार आने भी दिये तो उसे चाट-पकौड़ी में उड़ाने की जगह इसी गुल्लक में सहेजता । खिलौनेनुमा प्लास्टिक का यह गुल्लक ननिहाल में उसे बैनर्जी दादू ने दिया था। जो अब यहाँ बचत का महत्व समझा रहा था। यदि किसी पर्व पर जब कभी उसकी माँ के गहने,बरतन, साड़ी और पुराने उपन्यास बिके थे, तो उससे पहले उसका गुल्लक खाली होता था। ऐसा कर उसे खुशी मिलती थी। हर्ष-विषाद युक्त हृदय से उसके माता-पिता आपस में चर्चा करते - "हमारे ये बेसमझ बच्चे कितने बुद्धिमान हो गये हैं!हम क्या इन्हें कभी खुशियाँ नहीं दे पाएँगे ?"


     अरे हाँ ! याद आया, दूर्गापूजा पर पूरे परिवार के साथ वह शहर के पांडालों की सजावट देखने निकलता तो कबीरचौरा पर हलवाई की उस दुकान से लिये गये लौंगलता की मिठास वर्ष भर कायम रहती थी और होली पर बंगाली टोला के रसगुल्ले को कैसे भुला सकता है वह। जिसे खरीदने के लिए रिक्शे के पैसे की बचत की जाती। पाँव थक जाते, परंतु चेहरे पर मुस्कान होती। लाटभैरव के नक्कटैया की रात घर में पहली बार रेवाड़ी-चूड़ा पिताजी लेकर आते। वे तीनों बच्चों को मध्यरात्रि लाग और चौकियाँ दिखलाने ले जाते। 


   "अहा ! धनाभाव में सुख से भरे उन दिनों पर सारे धन-दौलत न्योछावर है।" दीपेंदु अपने उस दुःख भरे सुनहरे दिनों के स्मरण-लोभ में डूबता ही जा रहा था। उसे याद है कि उन बच्चों के जन्मदिन पर केक और मिष्ठान मंगाने में अभिभावक  असमर्थ थे, किन्तु चावल-दूध की खीर का भगवान को भोग लगाया जाता था। मेवे, इलाइची और केशर के सुंगध न सही,इसमें प्रेम की अद्भुत मिठास घुली होती थी। प्रसाद तो वैसे भी अमृततुल्य हो जाता है। सावन में ठेकुआ  चढाने वे सभी दुर्गाजी और मानस मंदिर जाते। मार्ग में लिये गये दो- तीन भुट्टे में ही पूरे परिवार की आत्मा तृप्त हो जाती थी। इनको खरीदने के लिए पैसे की व्यवस्था पहले से करनी पड़ती थी। फिर भी वे सभी कितने खुश थे।

 

   और उस दिन जब माँ ने नज़रें नीचे कर पिताजी से कहा था -"सुनते हैं ! बच्चों ने इस बार आम नहीं खाया है। वैसे,इसके लिए वे जिद्द नहीं करते,किन्तु यदि हो सके तो..।" वेदना से भीगे इस स्वर को सुनकर उसके पिता ने दुःख भरी दृष्टि से उसकी माँ को देखा था और फिर उन दोनों की गर्दन झुक गयी थी। उसी रात जब वे काम से लौटे तो उनके रुमाल में कुछ बँधा हुआ था। अत्यधिक उमस से बेचैन दीपेंदु को नींद नहीं आ रही थी।तभी उसने देखा कि माँ उन आमों के गले और सड़े हुये हिस्से को अलग कर रही थीं। एक सभ्रांत परिवार की स्त्री के लिए ऐसा करना लज्जाजनक था। डबडबा उठीं अपनी आँखों को उन्होंने बड़ी सफाई से बच्चों से छिपा लिया।



   दीपेंदु समझ गया कि पैसे के अभाव में उसके पिता ने अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा को ताक पर रख उन बच्चों के लिए उस ढेर में से कुछ आम छाँट लाये थे,जिन्हें दुकानदार सड़ा-गला और गुलगुले समझ अलग रख दिया करते थे। ग़रीब-गुरबे कम दाम पर इन्हें खरीद ले जाते। यह देख उस नासमझ बालक का हृदय में कंपन-सी उठी थी । उसे ऐसा आभास हुआ कि इन दागी आमों की मिठास ने उसकी आत्मा हमेशा के लिए तृप्त कर दी हो। अब भला बाज़ार में बिक रहें आमों में वह रस कहाँ? इन्हें खिलाने वाले वे अपने प्रियजन कहाँ ?


     जिस दुर्लभ निधि के स्मरण-मात्र से उसे परमसुख की अनुभूति हो रही थी।नस-नस में बिजली-सी दौड़ आयी थी। वह समझ गया है कि दुःख तो जीवन का सबसे बड़ा रस है,जो सबको माँजता है, सबको परखता है। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है। इसे संभाल कर रखना चाहिए। क्योंकि सुख के आते ही उसका परिवार बिखर गया था, संवेदनाओं के तंतु कमजोर पड़ गये थे और महत्वाकांक्षा ने आपसी संबंधों के मध्य दीवार खड़ी कर दी थी। काश ! दुःख के वे ही दिन  वापस लौट आते। उसके एकाकी जीवन में फिर से स्नेह रूपी पीयूष-वर्षा होती। दीपेंदु अपने नेत्रों से बह चले अश्रु प्रवाह को नहीं रोक पा रहा था।


-व्याकुल पथिक


 


Wednesday, 9 September 2020

औक़ात

औक़ात
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  अरुण दा अब हमारे बीच नहीं रहें। कोरोना संक्रमण ने शोषित-उपेक्षित वर्ग के हक़-अधिकार के लिए ताउम्र संघर्ष करने वाले इस सादगी पसंद राजनेता को जिस दिन अपने गिरफ़्त में लिया,उसी दिन यह आशंका गहरा गयी थी कि  दादा का उसके खूनी पंजे से बचना संभव नहीं है। उनके शरीर में पहले से ही वे सारे रोग मौजूद थे,जिसके गृह में प्रवेश करते ही कोरोना की मारक क्षमता प्रबल हो जाती है, इसलिये उन्हें बचाया नहीं जा सका। तमाम छोटे-बड़े श्रमिक आंदोलनों में कभी मेघ-गर्जना करने वाले इस महान आत्मा के निधन पर मानो पूरा शहर शोकाकुल हो उठा था। एक सच्चे जनसेवक के लिए इससे बड़ी और क्या श्रद्धांजलि होगी ? मृत्यु तो जीवन का अंतिम सत्य है। प्राणी चाहे कितना भी सामर्थ्यवान हो, किन्तु मृत्युदेवी के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण करना ही पड़ता है।

      वैसे, उम्र के इस पड़ाव पर उनकी राजनैतिक गतिविधि शिथिल पड़ गयी थी, किन्तु इस शहर में दबंग राजनेता के रूप में उनकी वही पुरानी पहचान कायम थी। वे किसी पद-प्रतिष्ठा के मोहताज नहीं थे। उन्होंने विलासिता के जाल में फँस कर अपने संस्कारों को कभी गिरने नहीं दिया। सफेद मोटा कुर्ता पहने कद-काठी से मज़बूत इस शख्स में न जाने कौन-सा ऐसा जादू था कि उसकी एक आवाज़ पर असंगठित मज़दूर  तबके के लोग अनुशासित सिपाहियों की तरह एक मंच पर आ जुटते थे। जो अरुण दा को देवता समझते , उनकी पूजा करते और उनके लिए प्रचंड शासन-शक्ति से भी टकरा जाते थे। 

     अरुण दा जब कालेज में पढ़ते थे, तो उन्होंने अपनी छात्र राजनीति को श्रमिक वर्ग के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था।  किसकी मजाल  कि किसी मज़दूर को मजबूर समझ वह उसका गला हलाल कर दे ? दादा की युवा फ़ौज उस पर हल्ला बोलने को तत्पर रहती थी। विधाता ने उन्हें अच्छी कद-काठी , अक्खड़पन के साथ कड़क आवाज़ भी दे रखी थी। वैसे भी जो व्यक्ति अपने ईमान पर डटा हो, उसे किसी प्रलोभन से डिगाना हँसी खेल नहीं होता है। मजदूरों के इस मसीहा पर आँखें तरेरने का मतलब था --'बर्रे के छत में हाथ डालना !' इसलिये धनबल और बाहुबल से यहाँ काम नहीं लिया जा सकता था। धनिकों का जुगाड़ तंत्र भी बेमानी था, कौन अफ़सर चाहेगा कि ऐसे आंदोलनकारी से बेज़ा उलझकर  नगर की शांति भंग होने दिया जाए।  और फिर तबादले से बचने के लिए वह 'कुर्सी पकड़' में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करे। 

      उनकी राजनीति जब चटकी तो सोशलिस्ट संगठनों ने आगे बढ़ कर सलामी ठोकी थी। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का सानिध्य प्राप्त हुआ और इसतरह से उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी श्रमिक वर्ग को समर्पित कर दिया था। ऐसे तबके के प्रति उन्हें सच्चा प्रेम था और इनके साथ अन्याय होने पर उनका हृदय तिलमिला उठता था, क्योंकि अन्य राजनेताओं की तरह ये सब उनके लिए 'वोट बैंक' नहीं थे। जिसका परिणाम यह रहा कि ऐसे अभागों पर अत्याचार कर जो लोग हँसते और तालियाँ बजाते थे, वे सब सहम उठे थे। 
   
     किन्तु सियासत में साफ़गोई भला कहाँ चलती है। यहाँ तो बगुला भक्त बन उन्हीं मछलियों को गटकना होता है, जो उसपर विश्वास करती हों। सो,इन ग़रीबों संग दग़ाबाज़ी वे कैसे कर सकते थे, इसीलिये सिद्धांत विहीन राजनीति करने वाली पार्टियों संग उनकी विधि न बैठ पायी। वे फिर से एकला चलो रे.. की डाक लगाने लगें। अब तरुणाई ढलने लगी थी। यहाँ तक की अपना घर भी नहीं बसाया ,क्योंकि उनका मानना था कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा यह वर्ग ही उनकी संतान है। जिनके लिए उन्हें कुछ करना है।

       अपने देश की सियासत का हाल यह है कि पूरे पाँच वर्षों तक बड़े राजनैतिक दलों के जनप्रतिनिधियों को कोसने वाली जनता को जब भी अपना प्रतिनिधि बदलने का अवसर मिलता है, तो वह फिर से दल, जाति और मजहब के मकड़जाल में उलझ जाती है। उसकी मति मारी जाती है, क्योंकि अगले पाँच वर्षों तक उसे पुनः हाय-हाय करने की आदत-सी पड़ चुकी है। अपनी जनसेवा के बल पर किसी निहंग द्वारा आम चुनाव जीतना इस अर्थयुग में चमत्कार से कम नहीं है। जनता की इसी कमजोरी का लाभ उठा कर धनबल, बाहुबल और जातिबल से संपन्न लोगों ने लोकतंत्र को जुगाड़तंत्र में बदल रखा है। जिस कारण सफ़ेदपोश जनता के लिए काम करने वाले सच्चे राजनेताओं को उनकी औक़ात जनता की अदालत में ही बता देते हैं, ताकि उसका मनोबल इसप्रकार से टूट जाए कि या तो वह राजनीति से सन्यास ले ले अथवा उन जैसे गिरगिट लोगों की टोली का हिस्सा हो ले। 

   किन्तु उस वर्ष म्युनिसिपैलिटी के इलेक्शन ने इतिहास बदल दिया था । बात सन् 1995 की है। निहंगों की फ़ौज को न जाने क्या सूझी कि उसने अपने प्रिय नेता का राजतिलक करने की ठान ली । चेयरमैन के उम्मीदवार के रुप दादा के नाम की घोषणा होते ही शहरी राजनीति में वर्चस्व रखने वाले एक दल के नेताओं ने उपहास किया था-"अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। इस चुनाव में उसे अपनी औक़ात समझ में आ जाएगी ।"

       उनका कहना अनुचित न था। एक और विशाल संगठन और उसके पारम्परिक समर्थक और दूसरी ओर मुट्ठी भर लोग। न कोई संगठन- न पार्टी। सबसे कठिन कार्य तो यह था कि घर-घर जाकर अपरिचित चुनाव चिन्ह की पहचान करवाना। और तभी श्रमिक वर्ग का सिंहनाद सुनाई पड़ा था- "अरुण नहीं,यह आँधी है, मीरजापुर का गाँधी है ।" इक्के, ठेले, रिक्शे और खोमचे वालों से लेकर हर मजदूर की जुबां पर सिर्फ़ यही जुमला था। देखते ही देखते ये मज़दूर मजबूर नहीं मज़बूत दिखने लगें ।  वज्रपात-सा हुआ था प्रतिद्वंद्वियों पर। चुनाव परिणाम जब आया तो औक़ात बताने वालों को खुद अपनी औक़ात समझ में आ गयी थी।

     यह चेयरमैन पद उनके जीवनभर की कमाई रही। जनता ने इस विश्वास के साथ उन्हें मीरजापुर का प्रथम नागरिक बनाया था कि जो व्यक्ति पूर्णतया निःस्वार्थ है,जिसे धन और कीर्ति की लालसा नहीं है,वही अन्य की अपेक्षा उत्तम कार्य कर सकता है।

    ख़ैर, इस  चुनाव के बाद दुबारा कोई इलेक्शन अरुण दा भी नहीं जीत सकें,क्योंकि जीवन में सुनहरा अवसर सदैव नहीं आता है। फिर भी उन्होंने अपने कार्यकाल में जनहित में जो कार्य किये,उसका गुणगान आज भी होता है।  किसी भी इंसान को उसका यही व्यक्तित्व और कृतित्व  अमरत्व प्रदान करता है।

---व्याकुल पथिक






Wednesday, 2 September 2020

मोक्ष



मोक्ष
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(जीवन के रंग)

   बचपन से ही वह सुनता आ रहा है कि जैसा कर्म करोगे-वैसा फल मिलेगा , किन्तु अब जाकर  इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि पाप-पुण्य की परिभाषा सदैव एक-सी नहीं होती है। बहुधा उदारमना व्यक्ति को भी कर्म की इसी पाठशाला में ऐसा भयावह दंड मिलता है कि उसकी अंतर्रात्मा यह कह चीत्कार कर उठती है - " हे ईश्वर ! मेरा अपराध तो बता दे।" और प्रतिउत्तर में ज्ञानीजन कहते हैं -" तुम्हारा प्रारब्ध !" जिसके विषय में हमें कुछ भी नहीं पता..!!

   आज इस मलिन बस्ती के खंडहरनुमा मकान के बदबूदार बरामदे में जिस वृद्धा का निर्जीव शरीर पड़ा हुआ था, उसके साथ भी नियति ने कुछ ऐसा ही तमाशा किया था। उसकी मौत पर आँसू बहाने वाला कोई न था। मुहल्लेवाले उसकी काया को सद्गति देने की शीघ्रता में थे।शहर के उस छोर पर रहने वाले वृद्धा के पुत्र को सूचना भेजी गयी थी। बेटा नालायक ही सही किन्तु मुखाग्नि देने का अधिकार तो उसी का बनता है !

   मानव जीवन की यह कैसी विडंबना है कि जिस वृद्धा ने ताउम्र परिश्रम किया हो, बहुतों पर उसके उपकार रहे हों,लेकिन आखिरी वक़्त भाग्य ने उसे औरों के रहम पर छोड़ दिया था।  रबड़ी-मलाई वाला कुल्हड़ जिसने उसकी आत्मा को तृप्त कर मोक्ष प्रदान किया था, वह भी उसे  किसी ग़ैर ने ही दिया था। उसकी मृत्यु के समय मुख में तुलसी-गंगाजल डालना तो दूर आस- पास कोई न था। आज सुबह उसका निर्जीव शरीर देख सभी ने उसकी मुक्ति पर संतोष प्रकट किया था।

     दीनू भी वहीं ख़ामोश खड़ा था। उसका संवेदनशील हृदय वेदना से कराह उठा था । वह आसमान की ओर निगाहें उठा कर सवाल करता है- " क्या इसीलिए तुझे दीनबंधु कहा जाता है !" उसके मानसपटल पर इस वृद्धा को लेकर अतीत से जुड़ी अनेक घटनाएँ ताजी हो गईं।

    जिस बुढ़िया के कफ़न के लिए ये सभी आपस में चंदा कर रहे थे, उसे कभी परांठेवाली काकी के नाम से पुकारा जाता था। जिसकी मशहूर दुकान के गरमागरम आलू के परांठे इतने स्वादिष्ट होते थे कि दिन चढ़ते ही ग्राहकों की कतार लग जाती थी। दीनू का परिचय उससे तब हुआ था, जब वह पहली बार दस पैसा लेकर उनकी दुकान  पर रसेदार तरकारी लेने गया था। वह उसके दादी की उम्र की थी। तनिक सकुचाते हुये उसने दस का सिक्का और गिलास उसके सामने बढ़ाया था। 
    अच्छे पोशाक में खड़े इस बालक को विस्मित नेत्रों से देख काकी ने परिचय पूछा था। "अच्छा, तो तू मास्टर का लड़का है !" और फिर गिलास भर तरकारी उसे थमाते हुये पैसा वापस करने लगी। " नहीं ,आप इसे रख लो ,मम्मी डाँटेगी।" बच्चे ने दृढ़तापूर्वक कहा था। "अच्छा ठीक है रे ! पर क्या मैं तेरी दादी जैसी नहीं ?"

   दीनू के परिवार के लिए वह सबसे बुरा दौर था। उसके पिता दिन भर चप्पल घिसते फिरते और शाम को उसकी माँ को यह चिंता खाये जाती कि सूखी रोटी कैसे पति के सामने रखी जाए ? पापा के लिए परांठे की दुकान से मसालेदार सब्जी लाने का सुझाव दीनू का ही था। घर की परिस्थिति देख वह समय से पहले होशियार जो हो गया था।

   एक दिन परांठेवाली दादी ने उसकी माँ से कहा -"बहू, मैं तो गँवार हूँ। हो सके तो मेरे पोते को अपने घर बुला लिया कर।तेरे बेटे के साथ कुछ पढ़ने-लिख लेगा ।" अपने पोते को गिनती-पहाड़ा रटते देख काकी दीनू को ढेरों आशीर्वाद देती। मानो उसके अरमान को पर लग गये हों। दो परिवार एक-दूसरे के करीब आ गये थे। एक के पास धन था,दूसरे के पास विद्या।

   वक़्त ने अचानक करवट लिया और फिर काकी की खुशहाल दुनिया में भूचाल-सा आ गया। वर्षों पुरानी उसकी दुकान खाली करा ली गयी। वह आँचल पसार दबंग भूस्वामी के पाँव पकड़ गिड़गिड़ाती रह गयी । उसे बनारस जैसे शहर की इस बड़ी मंडी में नयी दुकान नहीं मिली। आजीविका के लिए बेटा-बहू नगर के बाहरी इलाके में जा बसे। नयी जगह पर धंधा चला नहीं ,तो वे दोनों काकी पर बरसते। इंसान हर दुःख सह लेता,अपनों का तिरस्कार नहीं।

     मन कठोर कर काकी अपने पुराने मुहल्ले में आ गयी। यहाँ आकर उसे बोध हुआ कि दुनिया तो पैसे की है, जब धन नहीं तो आत्मसम्मान कैसा ? अब उनके प्रति सभी का दृष्टिकोण बदल गया था। पेट पालने के लिए उसने एक चबूतरे पर  बैठ वर्षों टॉफी-बिस्कुट बेचा था। उम्र के साथ-साथ उसके जीवन में अंधकार बढ़ता जा रहा था। उसका परिवार और स्वप्न दोनों बिखर गया था । मानो ग़रीबी और बेबसी की जिंदा तस्वीर हो वह। काकी को इस हाल में जब भी  दीनू देखता उसका कलेजा धक से रह जाता, किन्तु उसमें दयाभाव दिखलाने के सिवा कुछ भी मदद करने का सामर्थ्य न था। ऐसी स्थिति में उसे अपनी दीनता पर लज्जा आती।

   पिछले कुछ दिनों से काकी इसी बरामदे में टूटी खाट पर निःसहाय पड़ी हुई थी। अतिसार की बीमारी ने उसके तन को निचोड़ लिया था। उसकी साँसें मंद पड़ती जा रही थीं। आसपास अपना कोई न था। मन को दिलासा देने के लिए   वह अपने सुनहरे अतीत को याद कर रही थी। पति के मृत्य शोक को किनारे कर उसने कितने जतन से अपने पुत्र मोहन को पाला था। दिन-रात छाती फाड़कर काम करती थी। नाते-रिश्तेदार से लेकर मुहल्ले-टोले वालों के दुःख-दर्द में भी कभी पैसे से मदद में पीछे न हटती। जिसका यही फल मिला उसे ? धीरे-धीरे उसके तन की पीड़ा पर मन की वेदना भारी पड़ती जा रही थी।

     जिन नाती-पोते के लिए रात में पड़ोस की दुकान से रबड़ी-मलाई भरे कुल्हड़ घर लेकर आती थी, आज जब वह बेसुध खाट पर पड़ी है तो इन सभी की आँखों का पानी मर गया है। किसी ने नहीं सोचा कि बुढ़िया क्या खाती है ?  वृद्धावस्था में स्वादेन्द्रिय कम विद्रोह नहीं करती है । रबड़ी-मलाई की याद आते ही काकी के साथ भी कुछ ऐसा हो रहा था। वह अपनी अन्य पीड़ा को भूल स्वादेन्द्रिय की गुदगुदाहट के वशीभूत हो जाती है । "आह ! कितनी स्वादिष्ट मलाई थी। काश ! कोई हितैषी होता जो उसकी आत्मा को तृप्त कर देता।"  मलाई का स्वाद उसे बेक़ल किये हुये था। जिस पर नियंत्रण पाना उसके बस में नहीं जान पड़ता था। "हाँ, दीनू से कह के देखूँ।और किसी से कहने में तो लज्जा आएगी। कहीं झिड़क न दें मुहल्लेवाले कि इस बुढ़िया को देखों आँव पड़ रहा है और मलाई खाएगी।"

    काकी के इस बालहठ ने दीनू के हृदय को हिला कर रख दिया था। वह समझ गया था कि दीपक बुझने से पहले भभक रहा है। काकी के सूख चुके तन-मन में नवजीवन का संचार अब संभव नहीं था। .....उस रात दीनू दबे पाँव आया था। उसके हृदय में एक द्वंद जारी था। जिसे परे रख उसने अपने ही हाथों से स्नेहपूर्वक काकी को मलाई खिलायी थी। होठों पर जीभ फेर काकी ने गदगद स्वर में उसे जी भर के दुआएँ दी थी। उसकी आखिरी इच्छा जो पूरी हो गयी थी।  

      दीनू ने काकी को अमृत दिया अथवा विष  उसे नहीं पता। वह सिर्फ़ इतना जानता है कि उस कुल्हड़ भर मलाई ने उसकी परांठेवाली दादी की आत्मा को तृप्त कर दिया था। जीवात्मा का परमात्मा से मिलन हो गया था। फिर कभी वह अपने पुत्र और पौत्र से मिलन के लिए नहीं तड़पेगी। मलाई के लिये नहीं तरसेगी। क्योंकि काकी जीवन का हर रंग देख इस निष्ठुर जगत से जा चुकी थी। उसे मोक्ष मिल गया था। 

    वह आर्द्र नेत्रों से काकी के उज्जवल पड़ चुके मुख को देखता है। जिसपर अद्भुत शांति थी। दीनू जीवन और जगत के इस रहस्य को समझ गया था कि आज जो राजा है कल वह भिखारी हो सकता है।जिसे यह बोध हो गया कि महल और मिट्टी का अस्तित्व एक ही है, वही सुखी है। तभी उसे वही चिरपरिचित आवाज़ सुनाई पड़ती है-राम नाम सत्य है..।

 - ©व्याकुल पथिक




    

Wednesday, 26 August 2020

फेरीवाला


फेरीवाला 
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      वही अनबुझी-सी उदासी फिर से उसके मन पर छाने लगी थी। न मालूम कैसे यह उसके जीवन का हिस्सा बन गयी है कि दिन डूबते ही सताने चली आती है। बेचैनी बढ़ने पर मुसाफ़िरख़ाने से बाहर निकल वह भुनभुनाता है-- किस मनहूस घड़ी में उसका नाम रजनीश रख दिया गया है ,जबकि उसके खुद की ज़िदगी में चाँद के खिलखिलाने का अवसर ही न आया हो । जीवन का यह पड़ाव उसे कचोट रहा है। "आखिर, किसके लिए जीता हूँ मैं ..?" किन्तु इस प्रश्न का उत्तर स्वयं उसके पास भी नहीं है।

      और तभी उसकी संवेदनाओं से भरी निगाहें उधर से गुजर रहे एक वृद्ध फेरीवाले पर जा टिकती हैं। वह बूढ़ा आदमी किसी प्रकार अपने दुर्बल काया, मन और प्राण लिये डगमगाते , लड़खड़ाते कदमों से उसी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। उसके कंधे कपड़ों के गट्ठर के बोझ के कारण आगे की ओर झुक गये थे। झुर्रीदार पिचका हुआ चेहरा, आँखों के नीचे पड़े गड्ढे और माथे पर शिकन उम्र से कहीं अधिक मानो उसकी दीनता की निशानी हो। किन्तु वह मानव जीवन के उस संघर्ष का भी मिसाल है, जिससे परिस्थितियों के समक्ष अभी घुटने नहीं टेके हैं।

    चिलचिलाती धूप में दिन भर सड़कों पर पाँव घसीटते ,मुँह बाए गलियों में ग्राहकों को तलाशते हुये उसकी पिंडलियाँ बुरी तरह से दुखने लगी थीं।सड़क किनारे एक अतिथि भवन के चबूतरे को देख उसके बदन में थरथराहट हुई थी और वह धौंकनी-सी तेज होती अपनी साँसों को विश्राम देने के लिए धम्म से उस पर जा बैठता है। कंधे से गट्ठर का बोझ हटा वह चारदीवारी से सट कर अपनी पीठ सीधी करता है। अपने तलुओं को सहलाते हुये उस बूढ़े आदमी ने अपनी धुँधलाई आँखों से आसमान की ओर देखा था।
 मानो अपना अपराध पूछ रहा हो। सामने की दुकान पर कुछ लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। यह देख बूढ़े ने भी अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला था और फिर न जाने क्या सोच कर दाँत किटकिटाने कुछ बुदबुदाने लगता है। उसके उदास चेहरे के भाव में यकायक परिवर्तन देख रजनीश की उत्सुकता उसमें बढ़ने लगी थी । यूँ कहें कि उसकी पत्रकारिता कुलबुला उठी थी। किन्तु बिना संवाद के किसी के अंतर्मन को पढ़ना आसान तो नहीं होता ? औरों का दर्द वही समझ सकता है जो स्वयं भी उससे गुज़रा हो। 

     इस लोकबंदी ने रजनीश को भी फिर से पटरी पर ला खड़ा किया है। वर्षों की उसकी पत्रकारिता अब दो वक़्त की रोटी देने में भी समर्थ नहीं है। अक्सर छोटे संस्थानों में काम करने का यही हश्र होता है। किन्तु जहाँ कभी अपनत्व मिला हो, रोटी मिली हो, उसके प्रति मोह मानव स्वभाव है।उम्र के इस पड़ाव पर  इस संदर्भ में हानि-लाभ की चिन्ता कर वह अपने कष्ट को सिर्फ़ और बढ़ा ही सकता है, इसलिए रजनीश इस मानसिक पीड़ा से उभरने की कोशिश कर रहा है। वह ईश्वर को धन्यवाद देता है कि उसके पास कुछ पैसे हैं ...और उस होटल के मालिक को भी जहाँ उसने शरण ले रखी है। अन्यथा आज इसी बूढ़े फेरीवाले की तरह वह भी दर-दर भटकते रहता ।

     परिस्थितियों में समानता ने रजनीश को उस फेरीवाले के और करीब ला दिया था। उसने देखा   गट्ठर में बंधे गमछे और लुंगी को चबूतरे पर छोड़ वह बूढ़ा हैंडपंप की ओर बढ़ जाता है। प्यासे कंठ को तृप्त करते समय भी उसकी निगाहें अपनी अमानत (गट्ठर) पर जमी रहीं। खुदा का शुक्र है कि ग़रीबों के लिए अब भी मुफ्त में यह जल उपलब्ध है, अन्यथा इस पर भी बाज़ारवाद की मुहर लग चुकी है।

    फेरीवाला अब स्वयं को कुछ हल्का महसूस कर ही रहा था कि भगौने में खदकती चाय की खुशबू उसके घ्राणेंद्रिय में अनाधिकृत रुप से प्रवेश कर जाती है, जो उसके स्वादेन्द्रिय को विद्रोह के लिए बराबर उकसा रही थी। वह फिर से अपनी जेब को टटोलने लगता है। दिन भर के मेहनत-मशक्कत के बावजूद बिक्री के कोई दो सौ रुपये मुश्किल से उसके हाथ आये थे। संभवतः इसीलिए उसने अपनी चाय की तलब को बलपूर्वक रोक रखा था । " हे ईश्वर ! ये कैसी लाचारी है कि दिन भर चप्पल घिसने के बाद भी एक कुल्हड़ चाय इस वृद्ध को नसीब नहीं है !" यह देख रजनीश के हृदय में एक तड़प-सी उठती है कि फिर किस व्यवस्था परिवर्तन की बात चुनावों में हमारे रहनुमा करते हैं। इसीबीच चबूतरे पर रखे गट्ठर को खोल लुंगी और गमछे को तह करते समय फेरीवाले की नज़रें वहीं खड़े रजनीश से मिलती हैं।

   "क्यों चाचा,बाज़ार तो मंदा रहा होगा न ?" रजनीश स्वयं को रोक नहीं सका था और इसी के साथ दोनों के बीच वार्तालाप शुरु हो जाती है। बूढ़े ने उसे बताया कि उसका नाम सिब्ते हसन है और वह अकबरपुर का रहने वाला है। बाल बच्चेदार है, पर पेट तो सबका अपना है। लोकबंदी के बाद पहली बार वह धंधे पर निकला है। कोरोना के भय से कब तक बैठकर खाता। बच्चों को आस लगी रहती है कि अब्बा कुछ लेकर आएँगे, किन्तु यहाँ आकर बाज़ार का जो हाल देखा,उससे उसका दिल बैठा जा रहा है। क्योंकि इन दो सौ रुपये में उसका अपना मुनाफ़ा साठ रुपये ही है। इनमें से दस के नोट तो मुसाफ़िरख़ाने के बरामदे में रात्रि गुजारने के देने होंगे और फिर पेट की आग भी तो अभी शांत करनी है। वैसे, इस लोकबंदी के पहले वह जब भी इस शहर में आता था तो हजार-बारह सौ की बिक्री हो ही जाती थी,किन्तु इस बार घर वापसी के लिए भाड़े तक का पैसा नहीं निकला है।

      "तो और मुझसे क्या जानना चाहते हो आप ?" सिब्ते हसन अब धीरे-धीरे उससे खुलने लगा था। "मैं एक पत्रकार हूँ। कोराना काल में आप जैसे रोज कमाने-खाने वालों के दर्द से रूबरू होना चाहता हूँ। "अपनी मंशा स्पष्ट करते हुये रजनीश ने कहा था। 

    यह सुन बूढ़े के बदन में सिर से पाँव तक लर्ज़िश हुई थी।वह आसमान की ओर निगाहें उठा कर कहता है -" अबतक तो किसी तरह गुजारा हो गया ,आगे रब जाने ?" इस बार उसके स्वर में काफी वेदना थी। उसके पास जो थोड़ी बहुत पूंजी थी, उसे बीते साढ़े चार महीनों में घर में बैठे-बैठे खा चुका है।वह कहता है- " ठीक है कि सरकार इस संक्रमणकाल में हमें मुफ़्त में चावल दे रही है,किन्तु परिवार का ऊपरी खर्च भी तो है। बाल- बच्चों को ऐसे कैसे तरसते छोड़ दिया जाए ? आखिर सत्ता में बैठे नेता भी तो औलाद वाले हैं,क्या उन्हें हम जैसों पर जरा भी रहम नहीं है ?" सिब्ते दिल का गुबार निकाले जा रहा था।

    "अरे साहब ! उनके साहबज़ादे तो कैफ़े-रेस्टोरेंटों में हजारों ऊपरी उड़ा देते हैं और हम हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले ग़रीब-गुरबे अपने बच्चों को गोश्त का एक टुकड़ा तक नहीं दे पा रहे हैं। लानत है हमपर और ऐसी व्यवस्था पर ...।" हर एक बात एक आह -सी बन निकलती रही थी उसकी जुबां से।

     रजनीश को ऐसा लगा कि मानो ऐसे श्रमजीवियों की यह ' आह ' ज्वालामुखी में बदलने ही वाली हो , न जाने कब इनमें से लावा फूट पड़े और एक नयी क्रांति को जन्म दे। इस नयी व्यवस्था में इन्हें समानता का अधिकार प्राप्त हो, किन्तु सियासतबाज कम चालक नहीं होते, वे हर बार आमचुनाव में जातीय-मज़हबी ढोल बजा कर इन्हें बरगला ही लेते हैं और यह ज्वालामुखी फिर से ठंडा पड़ जाता है।

         आज पूरे दिन इस शहर में जब वह बौराया-सा घूमता रहा तो उसने महसूस किया कि वह सच में बूढ़ा हो गया है। इन साढ़े चार महीनों में सड़क पर पैदल चलने का अभ्यास क्या छूटा कि उसके बदन पर बुढ़ापे का जंग लगते देर न लगी। वह कहता है- "जब तक काम पर निकलता था मेरा शरीर रवा था,लेकिन आज तो पाँवों ने बिल्कुल जवाब ही दे दिया है। " अब दुबारा मीरजापुर में वापसी कब होगी , यह उसे भी नहीं पता। और जब धंधा है ही नहीं तो क्यों यहाँ आकर अपनी हड्डियाँ तोड़ता फिरे..।
  
      वैसे तो सिब्ते आजम धंधे के लिए बनारस और जौनपुर भी जाता रहा है, किन्तु मिर्ज़ापुर से उसका जुड़ाव-सा हो गया है। वह कहता है कि अन्य बड़े शहरों में लूटमार है,बेअदबी है और यह जिला अब भी अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर है। यहाँ लोगों के दिल में मुहब्बत है, जो उस ग़रीब को भी ' मौलाना ' कह के बुलाते हैं।  वह कहता है कि खाना और भाड़ा बनारस जैसे शहरों में सस्ता है और व्यवसाय भी ठीक ही हो जाता है,परंतु अदब से बात करने वाले लोग यहाँ की तरह वहाँ नहीं हैं। उसकी बातों से लगा कि वह खुद्दार इंसान है।अपने धंधे में भी मुनाफ़ा उताना ही लेता है, जितना वाजिब है। जैसे देश भर की ईमानदारी का जिम्मा सिब्ते जैसे मेहनतकश लोगों ने ही ले रखा हो।

     इस शहर में वह तब से आ रहा है, जब  मुसाफ़िरख़ाने का किराया चार-पाँच रुपये हुआ करता था और अब यह बढ़ कर साठ हो गया है। इसलिए उसे गंदगी से पटे इस अतिथिगृह के बरामदे में ही रात काटनी पड़ती है। अतिथिगृह क्या इसे कूड़ाघर ही समझें,क्योंकि यहाँ सिब्ते आजम जैसे ग़रीब मुसाफ़िर जो ठहरते हैं। शहर में स्वच्छता अभियान की डुगडुगी बजाने वाले जनप्रतिनिधियों की दृष्टि न जाने क्यों इसके बदबूदार शौचालय की ओर नहीं गयी है !  मच्छरों का गीत सुनते हुये यह बूढ़ा फेरीवाला एक और रात यहीं गुजारने को विवश है। और हाँ, मुनाफ़े के साठ रुपये में से दस तो ऐसे ही चला गया, शेष बचे पचास जिसमें रात का खाना और सुबह वापस अकबरपुर जाने के लिए वाहन के भाड़े की व्यवस्था करना है। वह हाईवे पर खड़ा होकर किसी ट्रक वाले से मिन्नत करेगा, क्योंकि बस की यात्रा आज उस जैसों के लिए सपना है। किन्तु उसे अपने कष्ट की नहीं फिक्र इस बात कि है कि उसे खाली हाथ देख अपनों की वह उम्मीद टूट जाएगी,जिसके लिए वह इस शहर में आया है।  

    ख़ैर, भारी मन से रजनीश से विदा लेते हुये वह कहता है- " आप भले आदमी जान पड़ते हो, जो मुझ जैसों में भी आपकी रूचि है। आपसे बात करके मन कुछ हल्का हुआ है,अन्यथा आज का दिन तो मेरे लिए बहुत तकलीफ़देह रहा।"

     रजनीश यह जान कर स्तब्ध है कि रंगीन कपड़ों को बेचने वाले की ज़िंदगी कितनी बदरंग है।वह मोबाइल फोन निकाल फेरीवाले से उसका एक फ़ोटो लेने की इजाजत मांगता है। यह देख उत्सुकतावश सिब्ते उससे पूछता है- "आप जो छापोगे, क्या उसका कुछ लाभ मुझ जैसों को  मिलेगा ?" यह सुन फिर से रजनीश का मन तड़प उठता है, वह अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये कहता है -" बड़े मियां , मैं तो एक मामूली पत्रकार हूँ, तुम्हारी समस्या से बस अख़बार का पन्ना रंग सकता हूँ, इससे अधिक मुझमें कुछ भी सामर्थ्य नहीं है। " अच्छा, खुदा हाफिज़ ..! और फेरीवाला आहिस्ता-आहिस्ता मुसाफ़िरख़ाने की ओर बढ़ जाता है। उन दोनों में फ़र्क़ इतना है कि सिब्ते को सिर्फ़ एक रात अतिथिगृह में गुजारनी है और रजनीश को ताउम्र। 

      लेकिन कुछ अनसुलझे प्रश्न रजनीश का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं ----- ऐसे मेहनती लोग जिन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने का प्रयास नहीं किया, उन्हें किस बात की सज़ा मिली है? क्यों मिल रही है ? इन मेहनतकश लोगों की ये कैसी भाग्य-रेखा है? क्या यह इनके पिछले जन्मों के कर्म का परिणाम है अथवा इसके लिए हमारी सामूहिक अर्थव्यवस्था दोषी है ? ग़रीबी से मुक्ति के लिए क्या ये इसीप्रकार ताउम्र छटपटाते रहेंगे ? है कोई मसीहा जिसकी आँखों में इनके लिए इंसाफ़ हो? तो क्या यही ईश्वरीय न्याय है...!!!
            - व्याकुल पथिक