जीवन के रंग
राजतंत्र हो या लोकतंत्र सत्ता के मद में बहुधा जनप्रतिनिधि स्वयं को शासक और जनता को दास समझ लेते हैं। आज़ाद भारत में आज भी वही हो रहा है जो गुलामी के दौर में अंग्रेज़ अथवा इनसे पहले राजा और जमींदार अपनी प्रजा संग किया करते थे। इनकी इच्छा की अहवेलना की नहीं कि रक्षक से भक्षक बनते इन्हें तनिक देर नहीं लगता । शहर के नामी बनिया दुखहरन साव का किस्सा भी कुछ ऐसा ही है। जिले के एक जनसेवक की भृकुटि टेढ़ी क्या हुई कि उनकी ख्याति मिट्टी में जा मिली। दुकान पर सरकारी ताला लटक गया। पलक झपकते ही वे साव से चोर समझे जाने लगें।बिना आगे-पीछे देखे-समझे जनता को भेड़चाल चलने की आदत जो है।
जिस व्यक्ति की सराहना 'यथा नाम तथा गुण' कह कर की जाती हो,जो दीनजनों के संकट में तन-मन-धन से संग रहा हो,उसी परोपकारी व्यक्ति की चरित्र पंजिका पर स्वार्थवश यदि किसी सफ़ेदपोश के इशारे पर लाल स्याही लग भी गयी,तो क्षेत्र के विशिष्टजनों का कर्तव्य बनता था कि वे उसका नैतिक समर्थन करतें,जनसेवक पर दबाव बनाते। परंतु यहाँ सहानुभूति के नाम सभी की जुबां पर एक ही शब्द था-"बेचारा साव ,बड़ा नेक था,बुरा फँस गया!"
कहाँ तो प्रतिष्ठा और समृद्धि उनकी चेरी थी,बच्चे भी आज्ञाकारी और अपने व्यवसाय में निपुण,स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझते थे वे। और अब उम्र के चौथेपन में इस अपयश को सहना उनको कठिन जान पड़ रहा था, परंतु करते भी क्या? उनकी मनोस्थिति को समझने की फुर्सत मानवता का ढोल बजाने वाले किसी संगठन को था कहाँ ? ये सभी तो बस मंच से संवाद करते हैं। वैसे भी समाज मे वैश्य- व्यापारियों की उपयोगिता चंदा देने तक ही सीमित समझी जाती है। फिर उन जैसे बिगड़े बनिया को कौन पूछता ? हितैषी ढूँढ़े नहीं मिलते। सभी जानते थे कि दबंग जनसेवक की इच्छा की अहवेलना,जल में रह मगर से बैर मोल लेना है। इस युग में चतुर-सुजान शायद इसे ही लोकचातुरी(दुनियादारी) कहते हैं। भले ही किसी नेक इंसान के साथ अन्याय होते देख आँखें मूँद लेनी पड़े।
सो,उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। व्यवसाय और सम्मान दोनों एकसाथ खोना,यह उनके जीवन की सबसे बड़ी क्षति थी।उन्हें गहरा सदमा लगा था। सप्ताह भर से वे गुमशुम अपनी बैठक में पड़े हुये थे। मानो कोई परकटा परिंदा आसमान से धरती पर गिरा तड़प रहा हो। वे स्वयं से कहते-" ओह! कैसा निष्ठुर समाज है ? जरा-सी विपत्ति आयी नहीं कि सबके भाव ही परिवर्तित हो गये !" न तो प्रातः हवाखोरी को जाते,न ही सामाजिक गतिविधि में शामिल होते। यह चिन्ता उन्हें खायी जाती कि ज़िदगी भर उन्होंने सबके लिए कुछ न कुछ किया और अब उन्हें पराधीन होना पड़ेगा,चाहे आश्रयदाता अपनी ही संतान क्यों न हो।
उनकी यह स्थिति देख पुत्रों की चिन्ता बढ़ी। ख़बर मिलते ही बेटियाँ भी ससुराल से भागी आयीं। उनके सभी पुत्र धन-दौलत से सम्पन्न थे। किसी का अपना व्यवसाय था,तो कोई सरकारी नौकरी में ऊँचे ओहदे पर था।सभी के अपने बंगले,कार और नौकर-चाकर थे। खुद दर्जा पाँच तक पढ़े दुखहरन साव ने उन्हें शिक्षित, सांस्कारिक और स्वालंबी बनाने में अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी थी।वे पिता की ऐसी स्थिति भला कैसे सहन कर सकते थे ?सो,उस दिन बैठक में दुखहरन साव का पूरा परिवार उन्हें मनाने जा पहुँचा। घर के स्त्री-पुरुष ही नहीं, नाती-पोते भी मौजूद थे,मानो कोई छोटी-मोटी सभा चल रही हो।
बड़े पुत्र ने बात शुरू की- "इस लोकतंत्र में यह कैसी तानाशाही ! हम अपने पसंद के प्रत्याशी का चुनाव प्रचार भी न करें? हमारे ऐसा करने के कारण बाबू जी की सरकारी सस्ते सामानों की दुकान मंत्री की निगाहों में चढ़ गयी, जिसकी बेजा सज़ा उन्हें मिली है। सत्ता परिवर्तन होते ही, हमें न्याय मिलेगा।"
"बिल्कुल भैया..। बाबूजी ! यह ठीक है कि इस दुष्ट जनसेवक ने निजी खुन्नस में आपके सम्मान पर चोट किया है। जिससे हम सभी का सिर झुका हुआ है। आज वह सत्ता में है, मंत्री है, इसलिए हमारी बात प्रशासन नहीं सुनेगा। इस सरकार में निष्पक्ष जाँच की उम्मीद भी हमें नहीं है। जब यह तय है कि अगले वर्ष सरकार बदलेगी, तब-तक हम सभी को धैर्य रखना चाहिए।" बड़े भाई की बातों का समर्थन करते हुये मझले ने कहा।
अब छोटे की बारी थी,जो एक महाविद्यालय में प्रवक्ता था। जिस प्रकार वह कॉलेज में छात्रों को लेक्चर दिया करता, उसी दार्शनिक अंदाज में उसने अपनी बात रखते हुये कहा-" भैया, बाबूजी की कृपा से हमारे पास दौलत और शोहरत दोनों हैं, फिर भी हमने उन्हें कुछ नहीं दिया,आज इसपर निर्णय करना होगा।"
भाइयों की बात सुनकर बहनें क्यों पीछे रहतीं। कमी उनके पास भी किसी चीज की न थी। सो, उन्होंने लाख-पचास हजार रुपये पिता के बैंक खाते में डालने की सबसे पहले हामी भर दी। अब बारी तीनों पुत्रों की थी,जिन्होंने हर महीने एक निश्चित धनराशि अपने पिता को देने के साथ ही सर्वसम्मति से अपना निर्णय सुनाते हुये कहा -"बाबूजी ! आपने हमें इस योग्य बनाया है कि हममें से आपका कोई भी पुत्र पूरे परिवार का भरण-पोषण करने में समर्थ है, इसलिए अब आप कोई काम नहीं करेंगे।"
घंटे भर तक चली इस पारिवारिक बैठक में हर किसी ने अपनी राय रखी। सभी ने अपने पिता के प्रति आदर और ज़िम्मेदारी का प्रदर्शन किया, फिर भी दुखहरन साव पहले की तरह ही मौन आरामकुर्सी पर सिर झुकाये बैठे रहे। यह देख उनकी बड़ी पुत्री से रहा न गया। सो, उसने सभा विसर्जन से पहले भरपूर दबाव बनाते हुये अधिकार भरे शब्दों में कहा-"बाबूजी, सुन लें आप भी ! हम पंचों के फैसले को टाल नहीं सकतें।अम्मा संग आपकी सेवा कर हमें भी कुछ पुण्यलाभ कमा लेने दें।"
पाँचों संतानें अभी पिता के उत्तर की प्रतीक्षा कर ही रही थीं कि बड़ों के संवाद पर जैसे ही विराम लगा कि दर्शन दीर्घा में मौजूद दर्जन भर नाती-पोते ने साव जी को घेर लिया।कोई उनके गोद में जा बैठा, तो किसी ने कंधे पर आसन जमा लिया। जो नहीं बैठ सका वह हाथ पकड़ कर खींचने लगा। बेचारे बच्चे, डाँट सुनने के भय से मुख पर ताला लटकाए अबतक घंटे भर यूँ ही मौन धारण किये जो थे ।इस बोगस पिक्चर यानि कि बड़ों के लेक्चर से वे ऊबने लगे थे। उन मासूमों को क्या पता कि समस्या कितनी गंभीर है। रिंकू ने कहा -"नाना जी ,चलिए न बाज़ार।" बाहर जाने की खुशी में पिंकी ने भी भाई के समर्थन में जोर लगाया-"हाँ, दादा दी,देखें न भाई कितने दिनों पर आया है। हमें घुमाने ले चले न।" भाई-बहनों की बातें सुन कर बच्चों की पलटन में सबसे छोटा रहा सोनू ने चहकते हुये कहा कि आप तो अच्छे दादू हो,बज्जी चलो न और फिर उनके कान में कुछ फुसफुसाता है,शायद कोई फ़रमाइश की थी उसने । सोनू की माँ की शादी कोलकाता में हुई है,जहाँ नाना को दादू कहा जाता है। उसकी तोतली आवाज दुखहरन साव को अत्यंत प्रिय है। यूँ कहे वह उनकी आँखों का तारा है।
सो, इन मासूमों की खिलखिलाहट भरे बालहठ के समक्ष दुखहरन साव का दुःख कहाँ टिकता ! वे तो यह भी भूल गये कि पिछले एक सप्ताह से इस बैठक में पड़े हुये हैं, यहाँ तक कि दर्शन-पूजन के लिए भी मंदिर न गये। बच्चों के इसी शोरगुल में वे अचानक अपनी आरामकुर्सी छोड़ कर उठ खड़े हुये और अपना कुर्ता-धोती ठीक करने लगे कि तभी गोलू दौड़कर उनका चप्पल ले आया, नीतू ने छड़ी संभाल ली।पिता के मुरझाए मुख पर प्रसन्नता का भाव देख उनके पुत्र और पुत्रियों ने सुख की साँसें भरीं । खुशी से सभी आपस में कहते हैं कि जो कार्य वे घंटे भर प्रवचन देकर भी नहीं कर सके, इन नादान बच्चों ने कर दिखाया।
इसप्रकार बच्चों की फ़ौज संग मनोविनोद करते दुखहरन साव बाज़ार को कूच कर जाते हैं। दो-ढ़ाई घंटे पश्चात जब वे वापस लौट हैं, तो सभी बच्चों के हाथों कोई न कोई सामान होता है। दीनू ने बैटरी से चलने वाला रेलगाड़ी ले रखा था तो गोलू हवाईजहाज उड़ा कर अपनी माँ को दिखा रहा था। रिंकू ने बैट-बॉल खरीदा था और पिंकी की आँखें मटकाती गुड़िया तो देखते ही बन रही थी। नीतू दीदी की गुड़िया के लिये गृहस्थी का सामान ले आयी थी और चिंकी ने गुड्डा खरीदा। बच्चों ने तय किया था कि इसी गर्मी की छुट्टी में जब वे सब फिर मिलेंगे,तब इसी बैठक में इन दोनों की शादी होगी। किन्तु सबसे आगे उनका लाडला नाती सोनू चल रहा था,जिसने बंदूक ले रखी थी। घर में घुसते ही उसने कहा-"देखों माँ !क्या लाया हूँ ?दादू को किसी ने तंग किया न तो हम गोली माल देंगे।" उसकी बातें सुन बैठक में फिर से ठहाके लगने लगते हैं।
सभी बच्चे जहाँ अपनी माताओं को अपने खिलौने दिखला रहे थे और साथ ही बाज़ार में उन्होंने क्या-क्या खाया इसकी जानकारी भी दे रहे थे,वहीं सावजी आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे मंद-मंद मुस्कुराते रहे।तनिक विश्राम कर उन्होंने अपनी पाँचों संतानों से कहा- " तुम्हें अब भी कुछ समझ में आया की नहीं ?" आश्चर्यचकित होकर उन सभी ने एक साथ कहा-"क्या बाबूजी! हमने तो कुछ भी नहीं समझा?"जिसपर दुखहरन साव ने उन्हें दुनियादारी का पाठ पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने कहा कि बातें तो तुम सभी ने बड़ी-बड़ी की,किन्तु जब ये सभी बच्चे बाज़ार जाने को कह रहे थे, तब तुम सभी मौके पर ही थे न ? कुल दर्जन भर बच्चे और तेरा यह पिता इन दिनों बम बोल गया है,यानि बिल्कुल बेरोज़गार है,फिर भी तुममें से किसी ने यह सोचा कि बाबूजी का जेब खाली है? यदि बाज़ार में उन्हें कुछ न दिलाता-खिलाता,तो ये बच्चे इसीप्रकार हँसते-खिलखिलाते दिखते ? तुम्हारे इन आश्वासनों को फिर क्या समझूँ, सिर्फ़ कोरा संवाद ?
पिता का वचन तीर-सा लगा उन पाँचों के मर्मस्थल पर,वे पानी-पानी हो गये और आपस में ही नज़रें चुराने लगे। क्योंकि जिस पिता को खुश रखने,उन्हें पुनः श्रम कर नये व्यवसाय करने से रोकने के लिए वे सभी मना रहे थे, प्रतिमाह एक निश्चित धनराशि देने का वायदा कर रहे थे।वे उन्हीं की एक छोटी-सी ज़रूरत को भी नहीं समझ सकें कि बाबू जी एक-दो नहीं पूरे दर्जन भर बच्चों के साथ बाज़ार को निकल रहे हैं,तो उनके जेब का क्या हाल है ? उनमें से किसी ने भी एक रुपया उसमें नहीं डाला था। अब वे सभी निरुत्तर थे।
बच्चों की यह स्थिति देख दुखहरन साव ने स्नेहपूर्वक पुनः उनसे कहा कि इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है। इसे व्यवहारिक ज्ञान समझो। भविष्य में तुम्हारे भी काम आएगा। उन्होंने अपनी बात यह कह कर समाप्त की- "जेब में पैसा है,तो आत्मसम्मान की भावना स्वतः आ जाती है,अन्यथा व्यक्ति सकुचाता-झेंपता रहता है।यदि हम आत्मनिर्भर हैं,तभी आत्मसम्मान की इस भावना से परिपूर्ण होंगे और हमें यश प्राप्त होगा।" साथ ही फिर से व्यवसाय करने का अपना संदेश भी उन्होंने पुत्रों को सुना दिया। यह घोषणा करते हुये उनका मुखमण्डल फिर से दमकने लगा था,किन्तु बैठक में सन्नाटा था। पलटकर पुनः प्रश्न करने का साहस उनकी संतानों में नहीं था, क्योंकि उनके इस संवाद का पोल खुल चुका था।
सत्य यही है कि दूसरों के दबाव में, जब कभी हम अपने विवेक के अनुसार निर्णय नहीं लेते, तो वह अभिशाप बन जाता है। और यही यातना मानव जीवन की सबसे बड़ी क्षति है।सो, दुखहरन साव की अनुभवी आँखों को इसे समझते तनिक भी देर न लगा कि उनके बच्चों की बातों में कितना वजन है।
-व्याकुल पथिक